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साधू, संघ, सहिष्णुता और दीप

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने ‘पालघर’ की बर्बर घटना पर दुख प्रकट करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि साधुओं की पुलिस के पहरे में हुई हत्या भारतीयता के माथे पर ‘कलंक’ से कम कुछ नहीं है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने ‘पालघर’ की बर्बर घटना पर दुख प्रकट करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि साधुओं की पुलिस के पहरे में हुई हत्या भारतीयता के माथे पर ‘कलंक’ से कम कुछ नहीं है। संघ प्रमुख का 70 वर्षीय कल्पवृक्ष जी महाराज, 36 वर्षीय सुशील गिरी जी महाराज व उनके 30 वर्षीय सारथी को श्रद्धांजलि अर्पित करना बताता है कि इस घटना से भारतीयता की ही हत्या करने का कुत्सित प्रयास किया गया है।
 पूरे देश के सनातनी हिन्दू समाज ने साधुओं की स्मृति में एक ‘दीप’ जला कर सिद्ध कर दिया है कि भारत की धर्मनिरपेक्षता कभी भी इकतरफा नहीं हो सकती। अतः हाथों में मोमबत्तियां लेकर अलख जगाने वाले इंसानियत के खुदाई खिदमतगारों को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि ‘सहिष्णुता’ किस घाट पर पानी पी रही है? संघ जिस हिन्दू संस्कृति का ध्वज वाहक माना जाता है उसका मूल मन्त्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ है जिसमें धर्म या पंथ की निरपेक्षता निहित है। यह दृष्टि ही हिन्दू संस्कृति को दुनिया की सबसे बड़ी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति घोषित करती है जिसकी अन्तर्निहित विविधता में ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ का सिद्धान्त आत्म सिद्ध है। अतः पालघर में पुलिस की मौजूदगी में जिस प्रकार 70 वर्षीय साधू समेत तीन लोगों की हत्या की गई उसे मात्र ‘माॅब लिंचिंग’ कह कर आगे चल देना पूरे भारतीय समाज को धोखे में डालने से ज्यादा और कुछ नहीं होगा। साधू समाज सत्य की स्थापना का भार अपने कन्धों पर तब उठाता है जबकि संसार की असत्य माया के मोह से बन्धे लोगों के बीच ही उसे रहना होता है। मोह और माया की नश्वरता की शिक्षा वह अपने कार्यकलापों से देता है। अतः राजनीति से उसका नाता किसी भी स्तर पर नहीं जोड़ा जा सकता और संघ प्रमुख की श्रद्धांजलि भी इसी तथ्य का प्रतीक है। जबकि माॅब लिंचिंग के नाम पर पूर्व में जितना भी हाे-हल्ला मचाया गया और मोमबत्तियां जला कर जुलूस निकाले जाते रहे हैं, उन सभी का सम्बन्ध राजनीति से रहा है क्योंकि तब लोगों ने अपने पुरस्कार वापस कर डाले थे और राष्ट्रपति भवन तक मार्च कर-करके सहिष्णुता के नाम पर आंसू बहाये गये थे।
मगर क्या गजब की सहिष्णुता है कि निरपराध साधुओं की हत्या पर वे ही लोग अब मुंह पर पट्टी बांध कर किसी कम्बल को ओढ़ कर आंखें खोल कर सो रहे हैं! मंगलवार को एक दीप जला कर साधुओं की स्मृति में  किया गया वह  ऐसा श्रद्धा नमन माना जायेगा जिससे सहिष्णुता का सही अर्थ समझा जा सके।  भारत गांधी का देश केवल तब ही नहीं था जब किसी अखलाक या पहलू खां की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या की गई थी बल्कि यह गांधी का देश तब भी था जब महाराष्ट्र के पालघर में 16 अप्रैल की रात्रि को जूना अखाड़े के दो साधुओं को पुलिस ने हिंसक भीड़ को सौंप दिया था? यदि गौर से देखा जाये तो पालघर में  पुनः गांधी की हत्या दोहराई गई क्योंकि गांधी तो स्वयं साधू थे। क्या कोई रोशनी डालेगा कि किसी ईसाई मिशनरी और हिन्दू साधू की हत्या में क्या फर्क होता है? ओडिशा में जब 1999 में ईसाई पादरी ग्राहम स्टेंस की हत्या कर दी गई थी तो वहां के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री जे.बी. पटनायक को पद से हटा दिया गया था मगर पालघर में दो साधुओं को सरेआम लाठी-डंडों से मरते  पुलिस देखती रही  और घटना का संज्ञान मुम्बई में बैठी सरकार ने चार दिन बाद तब लिया जब एक अंग्रेजी अखबार में घटना का सचित्र विवरण छप गया और दो पुलिस कांस्टेबलों को मुअत्तिल करके 100 से अधिक लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी गई। यह कौन सी धर्मनिरपेक्षता है जो हमें भेदभाव सिखाती है? धर्म निःस्वार्थ सेवा सिखाता है। 
ईसाई मिशनरियां हमारे भोले-भाले आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करने का काम करती हैं। संयोग से पालघर के जिस इलाके में यह घटना हुई वह आदिवासी बहुल क्षेत्र है और ईसाई मिशनरियां वहां सक्रिय हैं।  इसलिए भगवा वस्त्रधारी साधुओं को चोर समझने के पीछे कोई कुत्सित मानसिकता अवश्य काम कर रही थी मगर करोड़ों सनातनियों ने आज एक दीप जला कर सिद्ध कर दिया है कि भारतीयता की हत्या करना किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि यह ‘सर्व धर्म समभाव’ की बात करती है, लेकिन उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के अनूपशहर कस्बे के निकट एक गांव में मन्दिर के दो पुजारियों की हत्या से पालघर की तुलना करने की कोई भी कोशिश निपट राजनीति से प्रेरित होगी क्योंकि अनूपशहर में यह हत्या की वारदात एक नशेड़ी व्यक्ति ने की है जिसे पुलिस ने पकड़ भी लिया है।
अपराध करना और अपराध को सामाजिक चेतना देकर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करना बिल्कुल भिन्न होता है। पहला पूर्ण रूपेण अपराध होता है जबकि दूसरा अपराध का सामाजिक बोध होता है। साधुओं की हत्या करना पालघर के लोगों का सामाजिक बोध बन गया था जो महा अपराध होता है। अब महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे यदि अनूपशहर की घटना पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री को फोन करते हैं तो इसका क्या मतलब हो सकता है?  क्षमा कीजिये साधुओं की हत्याओं पर राजनीति नहीं हो रही है बल्कि पालघर का हिसाब पूछा जा रहा है और प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि पुलिस क्या साधुओं की हत्या देखने के लिए पालघर में मौजूद थी। जो उसने 70 वर्ष के कल्पवृक्ष गिरी जी महाराज को भीड़ की तरफ धकेल दिया। इस कांड की वीडियो फिल्में चीख-चीख कर कह रही हैं कि पूरी भारतीयता को शर्मसार किया जा रहा है। दीप जला कर हमने केवल भारतीयता को जीवित रखने की कसम ही खाई है।

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