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बैसाखी पर्व पर उदासी

बैसाखी एक कृषि पर्व है। पंजाब, हरियाणा के अलावा उत्तर भारत में इस पर्व की बड़ी मान्यता है। जब रबी की फसल पक कर खेतों में लहलहाने लगती है और कटाई का सत्र शुरू होता है तब बैसाखी मनाई जाती है।

बैसाखी एक कृषि पर्व है। पंजाब, हरियाणा के अलावा उत्तर भारत में इस पर्व की बड़ी मान्यता है। जब रबी की फसल पक कर खेतों में लहलहाने लगती है और कटाई का सत्र शुरू होता है तब बैसाखी मनाई जाती है। असम में इस पर्व को ​बिहू, पश्चिम बंगाल में  पोइला बैसाख और केरल में यह त्यौहार विशु कहलाता है लेकिन कोरोना वायरस के चलते बैसाखी का पर्व इस बार उदास है। वैसे तो किसानों पर कभी सूखे की तो कभी अतिवृष्टि की बार-बार मार पड़ी है लेकिन इस बार उस पर महामारी की मार झेलनी पड़ रही है। फसल खड़ी हो और कटाई के लिए मजदूर न मिल रहे हों तो किसान की पीड़ा असहाय हो जाती है।
कोरोना वायरस के चलते पंजाब, हरियाणा और अन्य उत्तर भारतीय राज्यों के श्रमिक अपने गांवों को लौट गए हैं। कोरोना विषाणु का प्रकोप ऐसे समय शुरू हुआ जब आलू, प्याज, गन्ना, दलहन इत्यादि की फसलें खेतों में थी और गेहूं की फसल तैयार हो रही थी। अब गेहूं की फसल पक कर तैयार है लेकिन न श्रमिक और न ही मशीनें उपलब्ध हैं। सोशल डि​स्टेंसिंग के नियमों के चलते और पांच से अधिक लोगों के इकट्ठे न होने से भी मुश्किलें बढ़ गई हैं। जहां स्थानीय मजदूर उपलब्ध भी हैं, वहां भी फसल की कटाई, छंटाई और फिर उसे मंडियों तक लाने की चिन्ता सता रही है। पंजाब सरकार ने यद्यपि फसल कटाई की मशीनों के आवागमन पर  से रोक हटा ली है और इसी तरह मजदूरों पर से भी प्रतिबंध हटा लिया गया है।
खेतों में काम करने वाले लोगों में भीड़भाड़ नहीं होती जैसी अन्य व्यावसायिक गतिविधियों में होती है। फसल कटाई में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन किया जा सकता है। हरियाणा और अन्य राज्य सरकारें भी किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए कदम उठा रही हैं और उपायों पर मंथन जारी है। 
गेहूं की सरकारी खरीद के साथ न केवल किसानों के परिवारों का गुजारा चलता है बल्कि पूरे देश की खाद्य सुरक्षा से भी इसका गहरा सम्बन्ध है। सरसों और चने की खरीद के लिए तो नेफेड और राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। महामारी के समय समूचा भारत किसानों की मेहनत के चलते ही अपना पेट भर रहा है। पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के चलते भारत को इस बात की चिन्ता नहीं है कि करोड़ों लोगों को मुफ्त में भोजन देने से भी खाद्यान्न में कोई कमी आ जाएगी।  भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये यदि करोड़ों लोगों को खाद्यान्न मिल रहा है तो उसका श्रेय भी धरती पुत्रों को जाता है।
आज मैं टैलीविज़न पर कुछ किसानों को सुन रहा था। उनका कहना था कि ‘‘गेहूं का टाइम है, चना भी रहता है। मजदूरों की दिक्कत है, बाजार 25 किलोमीटर दूर है, जाते हैं तो दुकानें बन्द मिलती हैं। बीमारी के दिनों में तालाबन्दी भी जरूरी है लेकिन क्या करें खड़ी फसल न बन्दी को समझती है न कर्फ्यू को।’’
किसानों का कहना सही है कि खड़ी फसल तो कटाई मांगती है। भगवान का शुक्र है कि शहरीकृत गांवों को छोड़कर भारत के अधिकांश गांव कोरोना से सुरक्षित हैं। भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए इन्हें सुरक्षित रहना भी जरूरी है। ग्रामीण गांवों के प्रवेश मार्गों पर पहरा देकर बाहरी लोगों का प्रवेश रोक रहे हैं और सामाजिक दूरियों का पालन कर रहे हैं। 
राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह सुझाव भी दिया है कि मंडियों में भीड़ को रोकने के लिए कृषि उपज की डायरेक्ट मार्केटिंग को प्रोत्साहित किया जा सकता है और इसके लिए एपीएमसी कानूनों में तेजी से संशोधन किए जाने चाहिए। किसानों को इसके लिए इन्सेंटिव दिया जा सकता है। इस तरह के कदमों से किसानों को अपने दरवाजाें पर ही अपनी उपज बेचने में मदद मिलेगी।
किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। किसानों की जेब में पैसा आएगा तो ही वह बाजार में खरीदारी करने आएगा। बाजार में मांग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा। देश में आर्थिक मंदी के जो हालात पैदा हुए हैं उसका एक कारण यह भी है कि पिछले कुछ समय से देश के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आय में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। उम्मीद है कि जीवन और अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए केन्द्र सरकार कृषि क्षेत्र के लिए आर्थिक पैकेज तो घोषित करेगी ही। साथ ही उसे कुछ और कदम भी उठाने होंगे।
फसल कटाई के लिए इस काम को मनरेगा के साथ जोड़ा जा सकता है। उन्हें इसके लिए वाजिब दिहाड़ी दी जा सकती है। जो लोग बेरोजगार बैठे हैं, इससे उन्हें काम भी मिलेगा और पैसे भी। इन पैसों से कमजोर वर्गों की क्रय शक्ति बढ़ेगी। सबसे बड़ा सवाल तो किसानों को  उपज का वाजिब दाम मिलना है। फसल की अधिक से अधिक सरकारी खरीद कर ऐसा किया जा सकता है। सबसे बड़ी चुनौती खाद्य भण्डारण की सुरक्षा का है। लाखों टन खाद्यान्न वर्षा में भीग कर नष्ट हो जाता है। खाद्यान्न की सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक भी टूटी तो दूसरी खुद ही टूट जाएगी। बैसाखी के पर्व की हताशा को खुशी में बदलना राज्य सरकारों पर निर्भर है। राज्य सरकारों को युद्ध स्तर पर व्यवस्था करनी ही होगी।

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