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सहमा हुआ है महानगर

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देश की राजधानी दिल्ली अब बहलाती नहीं बल्कि दिल काे दहलाती है। रिश्तों में खून, बलात्कार, कहीं मेट्रो स्टेशन के नीचे गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी गैंगवार और दिल्ली पुलिस के सब-इंस्पैक्टर की पीट-पीट कर हत्या, ये सब घटनायें इस बात की ओर इशारा करती हैं कि राजधानी में बदमाशों को पुलिस और कानून का कोई खौफ नहीं। घर से निकलते ही दहशत का माहौल, बदहवास होती जिंदगियां। कहीं चेन स्नैचिंग तो कहीं मोबाइल स्नैचिंग। सड़कों पर अंधेरा होते ही जानबूझ कर आपकी गाड़ी को हल्की सी टक्कर मारकर घेर लेने और गाड़ी की मुरम्मत के नाम पर जबरन पैसे ऐंठने की घटनायें। कोई भी महानगर में सुरक्षित नहीं।

कानून को लात मार भागते बदमाशों को पकड़ने की किसी में हिम्मत नहीं। हम बर्बादियों के गवाह बनते हैं, उनका वीडियो बनाते हैं और घर लौट आते हैं। जिस पुलिस पर दिल्ली की सुरक्षा का जिम्मा है, उसके ही सब-इंस्पैक्टर को बदमाश पीट-पीट कर मार डालता है क्योंकि वह अवैध शराब की बिक्री का विरोध कर रहे थे। दिल्ली में कई तरह के माफिया सक्रिय हैं। ड्रग्स माफिया, अवैध शराब मािफया, हैल्थ माफिया और जैड माफिया। इनकी मौजूदगी कोई नई नहीं। इस दिल्ली ने अपराधियों की दरिंदगी को झेला है। मीडिया ने भी इन घटनाओं को काफी कवरेज दी है। सामान्य मनोविज्ञान ऐसा होता है कि किसी घटना के प्रमुखता से प्रचारित होने पर हम वैसी घटना की आसपास पुनरावृति का नोटिस लेने लग जाते हैं।

राजधानी दिल्ली ही नहीं पूरे देश में ऐसी-ऐसी वीभत्स घटनायें हो रही हैं जो संवेदनशील लोगों को अवसादग्रस्त कर देने के लिये काफी हैं। कुछ घटनायें तो इतनी घृणित होती हैं कि इन्सान सोचने को विवश है कि क्या कोई अपराधी इस सीमा तक भी जा सकता है। क्या अपराधों को रोकने का कोई विकल्प शेष बचा है? इस सवाल का उत्तर सीधे शब्दों में यही है कि अब पुलिस, कानून, न्यायपालिका और कार्यपालिका सब असहाय हो चुकी हैं। अपराधों पर रोकथाम तो नई-नई प्रौद्योगिकी भी नहीं कर पा रही हैं। समूचे महानगर में कितने भी कैमरे लगा दिये जायें तो भी अपराध नहीं रुक सकते। जिस प्रकृति के यौन अपराध हो रहे हैं उससे तो साफ है कि अपराधी जन्मजात विकृतियां लिये हुए है। ऐसा लगता है कि राक्षसों को संतुष्ट करने के लिये इस पूरी कालोनी को बचाने के लिए रोज किसी न किसी की बलि दे रहे हैं।

“जब तक दरिंदे बेखौफ पलते रहेंगे
तब तक लोग सड़कों पर मरते रहेंगे।”

जितने अपराधी उतने ही उन्हें संरक्षण देने वाले लोग। पिछले कुछ वर्षों से महानगरों में अपराध की समस्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही है। इस प्रकार की घटनाओं को लोगों ने अपनी नियति मान लिया, इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है। अपराधों के बढ़ने के पीछे मुख्य कारण औद्योगिकरण का विकास, गांव वालों का आजीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन, बेरोजगारी और सामाजिक विषमता है। बेरोजगार युवकों को महानगरों की चकाचौंध, ऐश्वर्य चकित कर देता है। समाज के दो वर्गों के मध्य खाई बहुत ज्यादा है। इस कारण उनमें कुंठा की भावना जागृत होती है। यही कुंठा अपराध और असामाजिक कार्यों को जन्म देती है।

कृषि घाटे का व्यवसाय बन चुकी है। अधिकांश युवक खेतीबाड़ी करने के इच्छुक नहीं। भूमि अधिग्रहण के चलते करोड़ों का मुआवजा मिल जाता है। फिर महंगी बेशकीमती गाड़ियां आ जाती हैं। जब धन की कमी आने लगती है तो वे अपराध की तरफ उन्मुख हो जाते हैं। किसी से भी बात कर लीजिए एक ही जुमला दोहराता नजर आता है- क्या ईमानदारी से जीविका का निर्वाह किया जा सकता है? आपराधिक प्रवृति में बढ़ोतरी एक सामाजिक, आर्थिक आैर राजनैतिक समस्या भी है। हर व्यक्ति को अपने लिये बेहतर चाहिये। भारत में कभी मान्यता थी कि

साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूं साधू न भूखा जाय।

आज पैसे के लिए भागमभाग लगी हुई है। लोगों में सहनशीलता, त्याग, करुणा, दया, लोगों को सुनने की क्षमता सब खत्म हो चुकी है। समाज असहिष्णु हो चुका है। रोडरेज की घटनायें बताती हैं कि लोग अपना मानसिक संतुलन खोते जा रहे हैं। समाज के लोग अपने लाभ के लिये समाज में बने नियमों को तोड़ रहे हैं। जब समाज में किसी बड़े अपराध का जबरदस्त विरोध होता है तो चेतना जागती जरूर है लेकिन कुछ समय बाद शांत हो जाती है। हर वर्ष दिल्ली और अन्य राज्यों की पुलिस अपराध के आंकड़े जारी करती है। आंकड़े बहुत कुछ बोलते हैं। पुलिस अपराधियों को पकड़ती भी है, उन्हें दंडित भी करवाती है लेकिन अपराधों का बढ़ना समाज के लिए घातक है। आज पुलिस पहले से अधिक मुस्तैद है तो अपराध की शैली बदल गई है। समाज में स्वार्थ इस कदर बढ़ गया है कि न तो कोई रिश्ता बचा है और न ही कोई नैतिक मूल्य। कोई चीख मदद के लिये पुकार रही हो तो लोग उसे अनसुना कर आगे बढ़ जाते हैं। लोगों में असुरक्षा और अविश्वास काफी बढ़ चुका है। हर किसी को डर है कि सामने वाला उससे कुछ छीन न ले। समाज में अपराध कैसे कम हो, इस बारे में समाज को ही सोचना होगा। फिलहाल तो महानगर सहमा हुआ है।

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