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सच को सलाम करो!

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जो लोग भारत के लोकतन्त्र को सत्ता की लाठी से हांकने के सपने पालकर लोगों में अपने झूठ को ही सच की तरह पेश करना चाहते हैं उन्हें अन्ततः उसी सत्य के आगे सिर झुकाना पड़ता है जिसकी गवाही में आम लोग ही सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज बुलन्द करते हैं लेकिन यह भी हकीकत है कि ये लोग जब सड़कों पर उतरते हैं तो बड़े-बड़े सत्ताधीशों के चेहरों से नकाब उतर जाते हैं और उन्हें असली सच के आगे नतमस्तक होना ही पड़ता है। झूठ के लाख पर्दों को चीरकर आखिरकार सच सामने आ ही जाता है।

सनद रहनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर सूबे के कठुआ में जिस तरह एक बकरवाल (गुर्जर) की 8 वर्षीय अबोध कन्या के साथ दरिन्दगी की हदें पार करते हुए पूरे हिन्दोस्तान और इसके बाशिन्दों की रूह को झकझोरा गया उसने खुद को हिन्दू संस्कृति के पुजारी लोगों के दोगलेपन के पीछे छिपे ‘वहशी भेड़िये’ का चेहरा इस तरह उजागर किया कि हैवान भी सोचने पर मजबूर हो जाये कि यह काम तो उसने भी जानवरों के लिए छोड़ दिया था मगर बहुत सावधानी के साथ उत्तर प्रदेश के उन्नाव की किशोरी के साथ बलात्कार करने वाले भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के मामले पर भी नजर रखनी होगी और सीबीआई को सिद्ध करना होगा कि उसकी बची-खुची साख को और ज्यादा बट्टा न लगे क्योंकि उसने कुलदीप सिंह की तरफ से पीड़िता के परिवार के विरुद्ध भी एक चार्जशीट तैयार की है जबकि दो चार्जशीट पी​ड़िता की तरफ से दायर की गई हैं।

इस मामले में पीड़िता के पिता की पुलिस हिरासत में रहते जिस तरह मृत्यु हुई है उससे राज्य की पूरी योगी सरकार भी आरोपों के घेरे में आ गई है। पुलिस हिरासत में मौत के मामले के साथ सीबीआई को बड़े ही एहतियात के साथ केवल तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर आगे बढ़ना होगा और दूध का दूध और पानी का पानी करना होगा। भारत में एक नहीं बल्कि कई उदाहरण हैं जब पुलिस हिरासत में मौत होने पर मुख्यमन्त्री को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी है।

इमरजेंसी के दौरान ‘कालीकट रीजनल इंजीनियरिंग कालेज’ के छात्र ‘एन. राजन’ की मृत्यु पुलिस हिरासत में उस पर किये गये अत्याचारों से होने की वजह से तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री करुणाकरण को गद्दी से हटना पड़ा था। स्व. करुणाकरण तो गांधीवादी कांग्रेसी थे मगर कठुआ कांड में तो न्याय की लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने ही मुल्जिमों के हक में बन्द और प्रदर्शन करके उन सभी सीमाओं को तोड़ डाला जिन्हें न्याय प्रणाली ने वकीलों के पेशे को इज्जत बख्शने के लिए बनाया है।

जम्मू बार एसोसियेशन का अध्यक्ष बी.एस. सलाथिया अगर खुद मुल्जिमों की हिमायत में मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग तब करता है जब पूरे मामले की जांच राज्य उच्च न्यायालय की निगरानी में हो रही हो तो उसे वकालत करने का हक किसी भी तौर पर नहीं दिया जा सकता। उस पर तुर्रा यह है कि वह खुद को राष्ट्रवादी बताता है। यह कोई छोटी बात नहीं है कि स्वयं देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का संज्ञान लेते हुए जम्मू-कश्मीर बार एसोसियेशन से रिपोर्ट मांगी है।

यह सलाथिया 2014 के चुनाव में राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद का मुख्य चुनाव एजेंट रह चुका है। अतः श्री आजाद को भी एेसे व्यक्ति के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की मांग करनी चाहिए मगर उस कान्त कुमार का क्या किया जाये जो कांग्रेस पार्टी का सदस्य है और एेसे संगठन ‘हिन्दू एकता मंच’ का सचिव है जिसने इस मामले को हिन्दू-मुसलमान का रंग देकर न्याय का गला घोटना चाहा और राज्य सरकार की अपराध पुलिस शाखा द्वारा की जा रही जांच में मुसलमान अधिकारियों के होने का मुद्दा खड़ा किया।

दरअसल इस कांड की निष्पक्ष जांच के लिए ही राज्य के तीनों हिस्सों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख से पुलिस अधिकारियों का चयन महबूबा सरकार ने किया था। महबूबा ही राज्य की गृहमन्त्री भी हैं। हिन्दू एकता मंच के अध्यक्ष विजय कुमार का क्या किया जाये जिसने पूरे मामले को हिन्दू-मुस्लिम रंग देते हुए कहा कि अपराध शाखा के जांच दल में मुसलमान अधिकारी क्यों हैं? क्या इस मुल्क में यह नौबत ला दी गई है कि हिन्दू के अपराध की जांच हिन्दू अधिकारी करेंगे और मुसलमान के अपराध की जांच मुसलमान अधिकारी? मगर साजिश का दायरा इससे भी बहुत बड़ा है और जम्मू- कश्मीर को हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बांटने की हद तक जा सकता है।

यह निश्चित रूप से भारत के किसी राज्य को धर्म के नाम पर बांटने की घृणित राष्ट्रद्रोही चाल से कम करके नहीं देखा जाना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की हिमायत करने की मानसिकता है। एेसी साजिश वे लोग ही कर सकते हैं जिन्हें भारत के संविधान पर यकीन न हो। अतः हिन्दू एकता मंच के कारनामों को किसी भी सूरत में सतही तौर पर लेने की गलती नहीं की जानी चाहिए।

बेशक महबूबा सरकार में भाजपा कोटे से शामिल दो मन्त्रियों लालसिंह और चन्द्रप्रकाश गंगा ने इस्तीफा दे दिया है मगर खुद को राष्ट्रभक्तों की जमात कहने वाली यह पार्टी एेसे लोगों के साथ मंच से जुड़े अन्य व्यक्तियों को अपना सदस्य नहीं बनाये रख सकती और ठीक यही रवैया कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को भी अख्तियार करना पड़ेगा और एेसे देश विरोधी काम करने वालों को कानून के आगे अपनी सफाई देने के लिए कहना पड़ेगा। भारत उन सभी 130 करोड़ देशवासियों का है जो इसकी भौगोलिक सीमाओं के भीतर बसते हैं।

उनका धर्म कोई भी हो सकता है मगर उनकी राष्ट्रभक्ति को कोई भी संगठन या व्यक्ति तब तक चुनौती नहीं दे सकता जब तक कि वे इसके संविधान के दायरे में अपने कार्यकलाप करते हों। जम्मू-कश्मीर में तो हिन्दू एकता मंच ने भारतीय संविधान के साथ ही इस रियासत के ‘आईन’ की भी धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जरा सोचिये 8 अगस्त 1947 को इस राज्य की हिन्दू-मुसलमान जनता के मकबूल नेता स्व. शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने श्रीनगर में एक विशाल जनसभा करके जब यह एेलान किया हो कि ‘‘जब तक मेरे जिस्म में खून का एक भी कतरा बाकी है तब तक पाकिस्तान नहीं बन सकता।’’

वहां के लोगों को हम हिन्दू-मुसलमान में बांटने की सारी तरकीबें भिड़ा रहे हैं और पूरी दुनिया में उस हिन्दोस्तान का नाम डुबो रहे हैं जिसकी तहजीब या संस्कृति का ढिंढोरा स्वामी विवेकान्नद ने अंग्रेजों के राज में ही 1900 के करीब अमेरिका के शिकागो में पीटकर एेलान किया था कि ‘हम सबसे पहले मानवतावादी हैं। मानवीयता ही हमारे धर्म का मूल है। हमारी पहली पहचान किसी धर्म से नहीं बल्कि मानव से होती है। हमारी राष्ट्रीय अवधारणा मानवीय मूल्यों से परे नहीं है।

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