आज भी वो शाम का दर्दनाक भयानक समय आंखों के सामने घूम जाता है। कानों में आवाज गुंजती है-''लाला जी को गोली लगी'' अपने पिता ससुर और पति को भागते हुए कार में जाते देखा, न कोई बात हुई। समझ ही नहीं आ रहा था कि गोली क्यों लगी और मैं भयभीत सी अपनी चाची सास श्रीमती सुदेश चोपड़ा के साथ चिपक गई, जिनसे मेरा बहुत लगाव था। मैं अपना हर पल उनके साथ बिताती थी। मुझे उन्होंने गले से लगाया और मेरा सिर सहलाने लगीं। मेरी उम्र छोटी थी। अभी मैं पढ़ रही थी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या हो रहा है। कुछ ही देर में सैकड़ों लोग इकट्ठे हो गए। मेरी सासू मां श्रीमती सुदर्शन चोपड़ा सारे इंतजाम में लग गईं। मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। बहुत से लोग घर के आंगन और बाहर हजारों की संख्या में भीड़ इकट्ठी हो रही थी। मेरे तीनों देवर, मेरी ननदें सभी चाची मां के साथ चिपके हुए थे। अभी मेरी शादी को 3 साल हुए थे। लाला जी का बहुत स्नेह पाया था।
तभी एक व्यक्ति भागा-भागा आया और उसने कहा, लाला जी को लुधियाना के पास उग्रवादियों ने गोली मार दी, उनको और उनके ड्राइवर सोमनाथ को गोली लगी, लाला जी नहीं रहे। सोमनाथ को जख्मी हालत में लुधियाना के अस्पताल लाया गया तब तक सारे घर को स्वर्गीय तिलक राज सूरी, बुआ जी स्वर्ण सूरी ने सम्भाल लिया था। उस समय आदरणीय चाजा जी जालंधर से बाहर थे। लोग रो-रोकर इकट्ठे हो रहे थे। हम सब रो रहे थे परन्तु मेरे अन्दर एक ही प्रश्न था कि किसने और क्यों लाला जी को मारा। क्योंकि उन जैसा अच्छा प्रिंसिपल वाला, देशभक्त, निर्भीक पत्रकार, परिवार को एक लड़ी में पिरोये रखने वाला, घर में सब पर रोआब और प्यार बांटने वाला इंसान मैंने देखा ही नहीं था जिसने देश की आजादी के लिए 16 साल जेल काटी। यही नहीं शादी के बाद जो मैंने उनके व्यक्तित्व को पहचाना वो देश को, समाज को लिखकर, बोलकर दिशा देते थे। जो कहते थे वो करते थे। उन्होंने मेरी शादी आर्य समाज मंदिर में 1 रुपए से करवा कर दुनिया में एक मिसाल पेश की। 10,000 से ज्यादा लोग थे परन्तु बहुत साधारण तरीके से शादी हुई, यहां तक कि मेरी मां के पहनाए गहने भी उतरवा दिए और अपनी पत्नी की चेन और गहने मुझे पहनाए। उसके बाद मैं सुबह रोज उठकर 4 बजे चाय देती और शाम को चाय-पकौड़े। उनको मेरे हाथ से यह सब लेकर गर्व होता था, क्योंकि मैं उनके लाडले पौत्र अश्विनी की बहू यानी उनकी पौत्रवधू थी। उनके साथ समय बिताते हुए मेरे मन में बुजुर्गों के लिए कुछ करने की ललक पैदा हुई। उन्होंने जीवन संध्या नामक सीरिज चलाई। आज उनको शहीद हुए 43 साल हो गए हैं। एक भी दिन ऐसा नहीं होगा जो उनको याद नहीं किया, इसीलिए उनके नाम पर वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब की शुरूआत की, जिसको 20 साल हो गए हैं। उनके नाम पर ही जेआर मीडिया इंस्टीच्यूट चलाया। (जगत नारायण रमेश चन्द्र) जितने भी मैं सामाजिक, भलाई के काम करती हूं उनको ही समर्पित होते हैं।
आज भी उनकी याद में उनके शहीदी दिवस पर बुजुर्गों को आर्थिक सहायता, राशन और उनकी जरूरत का सम्मान बांटा जाता है।
उनकी और पिता ससुर की शहादत के बाद मेरे पति अश्विनी जी ने कलम सम्भाली और अश्विनी जी के बाद मेरे बेटे आदित्य, अर्जुन, आकाश ने। मैं उनको हमेशा अपने पड़दादा और दादा और पिता के सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हूं। आज हम सबको गर्व है कि हम उस परिवार से हैं जो हमेशा सत्य के पथ पर चला। ''सत्य पथ पर चलने से रास्ते में कांटे चुभते ही हैं, अतः वीर वही है जो न सतमार्ग छोड़े और न ही कभी मोहासिक्त हो।'' दूसरे तुम्हारा क्या मूल्यांकन करते हैं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण यह है कि तुम स्वयं को कितना महत्वपूर्ण मानते हो। आपके पड़दादा की नजर में शरीर आत्मा का वस्त्र था जो इसे आत्मा का सबसे स्थूल मानते थे। अगर वह शरीर के आकर्षण या किसी लोभ में बंधे होते तो उनकी प्रवृत्ति समझौतावादी होती। कभी न कभी वह अपने अशूलों, सिद्धातों पर किसी न किसी से समझौता जरूर कर लेते।
वह महा पंजाब में मंत्री रहे, सांसद रहे, वह हमेशा निर्भीक, निष्पक्ष पत्रकारिता करते रहे। उन्होंने जीवनभर मूल्यों, संस्कारों और परम्पराओं की रक्षा की। उन्होंने खुद को हमेशा अनुशासन में ढाले रखा। पहले अंग्रेजी सत्ता और बाद में अपने ही लोगों द्वारा उन्हें बार-बार प्रताड़ित किया गया, तकलीफें दी गईं। उन्होंने अपने राजनीतिक और सामाजिक दायित्वों से कभी पलायन नहीं किया। जहर पीकर भी अमृत पीने जैसी मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी। अमर शहीदों को याद करना परिवारों का दायित्व तो है ही लेकिन समाज और कौमों का भी है। अगर मैं लाला जी यानि अपने दादा ससुर जी का बतौर सम्पादक आंकलन करूं तो एक सवाल उभर कर सामने आता है कि एक सम्पादक को दुनिया क्यों याद करती है। हिन्दी पत्रकारिता के संदर्भ में इस सवाल पर विचार करना उचित होगा। आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी, तिलक और अरविन्द जी जैसे लोगों ने समाचार पत्रों का सम्पादन किया, उन्होंने स्वतंत्रता हासिल करने के लिए पत्रकारिता को हथियार बनाया और पत्रकारिता की कसौटी भी इन महापुरुषों ने तय की। स्वतंत्रता संघर्ष के कालखंड में ही लाला जी और मेरे पिता ससुर रमेश जी ने पत्रकारिता की शुरूआत की थी। लाला जी, रमेश जी, अश्विनी जी को आज भी पाठक याद करते हैं। आज ऐसे नेता, पत्रकारों की मुझे तलाश है जो सच को वरीयता दें और सामाजिक हितों के लिए निजी लाभ की परवाह न करें। आओ आज ऐसे शेर, पंजाब के शेर, देश के शेर लाला जगत नारायण जी के शहीदी दिवस पर उनकाे नमन करें और उनके दिखाए मार्ग पर चलने की कोशिश करें।