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संघ प्रमुख का ‘एकतावाद’

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने यह कह कर कि भारत के हिन्दू-मुसलमानों का मूल उद्गम एक ही है और ये एक ही पूर्वजों के वंशज हैं, स्पष्ट कर दिया है कि भारत पर सभी धर्मों के नागरिकों का बराबर का अधिकार है और किसी के भी बीच धर्म के आधार पर भेदभाव की गुंजाइश नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने यह कह कर कि भारत के हिन्दू-मुसलमानों का मूल उद्गम एक ही है और ये एक ही पूर्वजों के वंशज हैं, स्पष्ट कर दिया है कि भारत पर सभी धर्मों के नागरिकों का बराबर का अधिकार है और किसी के भी बीच धर्म के आधार पर भेदभाव की गुंजाइश नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग दूसरे धर्म के अनुयाइयों की हत्या (लिंचिंग) अपने आग्रहों के चलते करते हैं वे हिन्दू नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में आतताई बनने की कहीं कोई संभावना ही नहीं है। यह धर्म ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के आदर्श पर इस प्रकार टिका हुआ है कि  विरोधी मत के मानने वाले को भी बराबर का सम्मान देता है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सिर्फ पूजा पद्धति बदल जाने से भारतीयता पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है। गौर से देखा जाये तो संघ प्रमुख ने भारतीयता के उस राग को ध्वनि दी है जिसमें से हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्वर फूटते हैं। बेशक धर्म के आधार पर 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए मगर हकीकत यह है कि आज भी पाकिस्तान की मिट्टी में से भारतीयता के बोल ही निकलते हैं जो इसकी क्षेत्रीय व आंचलिक संस्कृति के तारों से झंकृत होती है। 
कोई बताये कि पाकिस्तान के पंजाब के मुस्लिम पंजाबियों और भारत के हिन्दू पंजाबियों की संस्कृति में क्या फर्क है। सीमा के इधर भी पंजाब में पंजाबी बोली जाती है और उधर भी पंजाबी बोली जाती है । दोनों के तीज-त्यौहारों पर भी पंजाब की उन्मुक्त संस्कृति का असर जीवन के हर क्षेत्र में एक समान रूप से दिखाई पड़ता है । दोनों तरफ के पंजाबियों के दिलों की धड़कन हर खुशी के मौके पर ढोल की आवाजों के साथ भंगड़े पर थिरकती है। यही वह भारतीयता है जो समूचे भारतीय महाद्वीप को इसकी विवधतापूर्ण संस्कृति से जोड़ती है । चाहे वह दो देशों में बंटे हुए बंगाल की धरती हो या उत्तर-पूर्व से 1935 में अलग करके बनाये गये म्यांमार की धरती हो। बौद्ध धर्म के अनुयायी म्यांमार में भी हैं और बांग्लादेश में भी। यही वह सांस्कृतिक विविधता है जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को भारतीय संस्कृति के मूल तत्व से जोड़ती है। फिर भारत के हिन्दू-मुस्लिम तो इसके बगीचे में लगे हुए एेसे दो पेड़ हैं जिनकी बागवानी एक ही माली करता है और उन्हें हरा-भरा बनाये रखने का जिम्मा उठाता है। हिन्दुत्व में भी विविधता की झलक हमें हर पहलू में मिलती है। द्वैत या अद्वैत से लेकर शैव या वैष्णव अथवा साकार या निराकार तक यह धर्म प्रत्येक मत का सम्मान करता है और इस प्रकार करता है कि जितने भी धर्म भारत में आये सभी को इसमें रहने वालों ने अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अपनाया और सच्चे भारतीय बने रहे। 
इतिहास भी हमें इसके पक्ष में प्रमाण देता है। जब बादशाह अकबर से ईरान के शाह मुअज्जम ने यह पुछवाया कि वह बतायें कि वह कौल से मुस्लिम हैं शिया है या सुन्नी? तो अकबर ने जवाब लिखवा भेजा कि वह हिन्दोस्तानी मुसलमान हैं। भारत में इस्लाम भारतीयता के रंग में रचता-बसता चला गया और रहीम व रसखान जैसे कवि इसने दिये जिन्होंने भारतीयों की सांस्कृतिक मान्यताओं का अपनी रचनाओं में बखान किया। यही वजह रही कि मुगल शासन के दौरान तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत का सिक्का सड़कों से लेकर शाही दरबारों तक चलता रहा।
 संघ प्रमुख जब यह कहते हैं कि हिन्दू-मुसलमानों का डीएनए एक ही है तो वह भारत की वह तस्वीर पेश करते हैं जिसमें हर हिन्दू के दिल में एक मुसलमान रहता है और हर मुसलमान के दिल में एक हिन्दू रहता है क्योंकि दोनों का आर्थिक जीवन एक- दूसरे की मदद के बिना नहीं खिंच सकता। इसके बावजूद यदि असुद्ददीन ओवैसी या सुश्री मायावती जैसे नेता उनके बयान की आलोचना करते हैं तो वे अपने ही वोट बैंक के बुने गये जाल के टूटने की आशंका से घबराते हैं। भारत में इस्लाम धर्म के प्रसार के एक नहीं अनेक कारण हैं। मगर पूर्व में जो हो चुका है संघ प्रमुख ने उसे भूल कर आगे आंखें खोल कर चलने का आह्वान किया है और चेताया है कि एक भाई-दूसरे भाई से किस तरह रंजिश रख सकता है। जब हमारे पूर्वज एक और संस्कृति एक तो हम में भाईचारा क्यों न हो। भला इससे किसी भी भारतीय को गुरेज क्यों हो सकता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यदि पाकिस्तान का निर्माण मजहबी तास्सुब फैला कर मुहम्मद अली जिन्ना ने किया तो एेसे भी मुसलमान थे जिन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया था। इनमें देवबन्द का दारुल उलूम भी था और स्व. मोहम्मद करीम छागला भी थे। छागला साहब तो जिन्ना के निकट सहयोगी तक रहे थे मगर पाकिस्तान निर्माण के सख्त विरोधी थे। 
यह भी हमें ध्यान रखना चाहिए कि संघ का विश्वास उस हिन्दू महासभा के सिद्धान्तों पर कभी नहीं रहा जो राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण पर विश्वास रखती थी। संघ राष्ट्रवाद पर विश्वास करता है और इस राष्ट्रवाद में हिन्दू- मुस्लिम सभी आते हैं। यदि ऐसा न होता तो 1977 में स्व. जय प्रकाश नारायण के कहने पर संघ अपनी सदस्यता के दरवाजे मुसलमानों के लिए क्यों खोलता ? समग्र राष्ट्रीयता का पर्याय केवल हिन्दू ही नहीं है बल्कि इस देश में रहने वाले हर जाति धर्म के नागरिक हैं। संघ का ध्येय इसी राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने में है। संघ प्रमुख ने केवल इतना ही कहा है कि जिसका असर भारतीय समाज पर सकारात्मकता के साथ पड़ना चाहिए। संघ प्रमुख ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए यह मन्तव्य भी प्रकट किया है, यदि देश के लोगों के बीच एकता व भाईचारा होगा तो पूरे देश की एकता भी मजबूत होगी और देश भी मजबूत होगा।

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