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कराहती धरती को बचाओ

वर्ष 2022 में दुनिया ने ऐसा बहुत कुछ देखा जो कल्पना से परे है। इंग्लैंड और पूरे यूरोप में गर्मी से लोग बेहाल हुए, भारत में पहले हीट वेव से फसलों को नुकसान हुआ फिर बारिश न होने के कारण धान की बुवाई नहीं हो सकी और जब मानसून की विदाई का वक्त आया तो अप्रत्याशित बारिश हुई।

वर्ष 2022 में दुनिया ने ऐसा बहुत कुछ देखा जो कल्पना से परे है। इंग्लैंड और पूरे यूरोप में गर्मी से लोग बेहाल हुए, भारत में पहले हीट वेव से फसलों को नुकसान हुआ फिर बारिश न होने के कारण धान की बुवाई नहीं हो सकी और जब मानसून की विदाई का वक्त आया तो अप्रत्याशित बारिश हुई। पाकिस्तान में भयंकर बाढ़ आई। नाइजीरिया के 18 राज्य भीषण बाढ़ की चपेट में आ गए। कई देशों को जल संकट से जूझना पड़ा। दुनिया भर में खाद्य संकट की चुनौती पैदा हो गई। सभी महाद्वीपों में सिंचाई योग्य भूमि का 20 से 50 प्रतिशत हिस्सा उपजाऊ नहीं रहा। इन सबके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार माना गया। कराहती धरती को बचाने के लिए अब दुनिया के सामने एक तरह से अंतिम मौका है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन सीओपी-27 इस बार मिस्र में हुआ। इस सम्मेलन को एक तरह से ऐतिहासिक माना जा सकता है क्योंकि इसमें 14 दिन चली बहस के बाद 200 देशों में एक समझौता हुआ। समझौते के तहत अमीर देश एक फंड बनाएंगे। इस फंड से  विकासशील देशों और गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मुआवजा दिया जाएगा। इस समझौते को भारत, ब्राजील समेत एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कई देशों की जीत माना जा रहा है। भारत समेत विकासशील  और गरीब देशों ने अमीर देशों पर दबाव बनाया। दुनिया के धनी और विकसित देश हमेशा जलवायु परिवर्तन के लिए विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहराते रहे। फंड बनाने को मंजूरी देने का सारा दारोमदार अमेरिका पर था जो दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषण फैलाने वाला देश माना जाता है। अमेरिका ने भी इस फंड को मंजूरी दे दी है। भारत ने फंड बनाने का स्वागत किया है। केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि हानि और ​क्षति निधि की व्यवस्था का दुनिया को लंबे समय से इंतजार था। उन्होंने जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए भारत द्वारा किए जा रहे कार्यक्रमों से अवगत भी कराया।
साल 2015 के सम्मेलन में, जिसका समापन पेरिस समझौते को अपनाने के साथ हुआ था, विकासशील देशों ने फिर से नुकसान और क्षति के वित्तपोषण पर एक मजबूत फंड की मांग की थी, लेकिन वार्ता इस मुद्दे के केवल एक अस्पष्ट संदर्भ के साथ समाप्त हो गयी और इसे भविष्य की चर्चा के लिए छोड़ दिया गया। डेनमार्क ने हाल में विकासशील देशों को 13 मिलियन डॉलर से अधिक देने का वादा किया है। पिछले नवंबर में ग्लासगो में हुए सम्मेलन में स्कॉटलैंड की प्रथम मंत्री निकोला स्टर्जन ने एकमुश्त नुकसान और क्षति भुगतान के रूप में 2.7 मिलियन डॉलर देने का वादा किया था। उम्मीद थी कि अन्य अमीर देश भी ऐसा करेंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, पर उन पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन अमीर देशों के कारण हुआ है। यह भी साबित हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन के लिए वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की उपस्थिति जिम्मेदार है धनी और विकसित देश अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं। जबकि विकासशील और गरीब देश सुधारात्मक उपाय करने में असमर्थ हैं क्योंकि उनके पास धन नहीं है। इस वर्ष वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा उस स्तर पर पहुंच गई जो लाखों वर्षों में नहीं देखी गई । इससे दुनिया का औसत तापमान बढ़ गया। इससे जंगलों में आग, सूखा और समुद्री तूफान बढ़ते गए। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य का  मौसम अधिक हिंसक हो सकता है। यद्यपि मिस्र सम्मेलन से गरीब देशों के लिए एक उम्मीद की किरण जरूर जागी लेकिन कई मुद्दों पर यह निराशाजनक तरीके से समाप्त हुई। सभी तरह के जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बंद करने के लिए भारत के आह्वान  सहित कई अन्य प्रमुख मुद्दों पर बहुत कम प्रगति देखने को मिली। अभी तक मुख्य रूप से कोयले पर वैश्विक निर्भरता घटाने पर जोर दिया जाता रहा है लेकिन पैट्रोलियम पदार्थ प्रदूषण फैैलाने और ग्रीन हाउस गैसों के ​भारी उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए काफी हद तक कोयले पर निर्भर हैं। हालांकि देश में स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और उपयोग बढ़ाने के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। ग्लासगो सम्मेलन में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2070 तक भारत के अपने उत्सर्जन को शून्य पर लाने की प्रतिबद्धता जताई थी। भारत का स्टैंड यही है कि धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए हर स्तर पर कोशिश की जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र जलवायु समिति भी सभी जीवाश्म ईंधनों को समयबद्ध तरीके से खत्म करने की सिफारिश कर चुकी है। जलवायु परिवर्तन का संकट दूर करने के लिए वैश्विक सहयोग बहुत जरूरी है। भारत तो हरित ऊर्जा, सौर ऊर्जा को काफी प्रोत्साहन दे रहा है। भारत एक राष्ट्र के रूप में धरती को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है। हालांकि जलवायु परिवर्तन फंड की कोई विस्तृत रूपरेखा सामने नहीं आई लेकिन अमेरिका और यूरोपीय देशों ने कहा है कि इस फंड से एक भी कौड़ी चीन को नहीं मिले क्योंकि चीन दुनिया की  दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और वह सबसे ज्यादा ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करता है जबकि चीन का कहना है कि अमेरिका और उसके मित्र देश भेदभाव कर रहे हैं। भविष्य में देखना होगा कि यह फंड कितना सार्थक रहता है। कराहती धरती को बचाने के लिए अगर दुनिया अब नहीं चेती हो परिणाम भयंकर होंगे।

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