1960 में जब चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ एन लाई ने भारत की दोबारा यात्रा की थी तो प. जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें बैरंग लौटा दिया था और साफ कर दिया था कि चीन जिस प्रकार दोनों देशों के बीच में सरहदों का निर्धारण करना चाहता है, वह भारत को किसी सूरत में मान्य नहीं है।
चाऊ एन लाई की यह यात्रा 1959 में चीन द्वारा तिब्बत को पूरी तरह हड़प कर वहां का नियन्त्रण अपने हाथों में लेने के बाद हुई थी। इस यात्रा में चाऊ एन लाई ने बातचीत में अक्साई चिन पर भी अपना दावा ठोकने की जुर्रत की थी। इसके दो वर्ष बाद 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
इसके बाद मदमस्त चीन के वजीरेआजम चाऊ ए लाई ने नेहरू जी को पत्र लिखा कि भारत और चीन की सेनाएं वर्तमान स्थानों से बीस-बीस किलोमीटर पीछे चली जायें जो कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा है। नेहरू जी ने इसका जो जवाब दिया उसे सुनिये-‘‘चीन के पत्र में दिये गये इस सुझाव का कोई मतलब नहीं है कि हम उस स्थान से बीस किलोमीटर पीछे चले जायें जिसे वह ‘वास्तविक नियन्त्रण रेखा’ कहता है, यह नियन्त्रण रेखा क्या होती है? क्या यह वह रेखा है जिसे चीन ने सितम्बर महीने में आक्रमण करके खींचा है।
चाहे कुछ भी हो जाये और नतीजा कुछ भी निकले तथा भारत को चाहे जितना लम्बा और कड़ा संघर्ष करना पड़े, भारत कभी भी चीन द्वारा 1959 में खींची गई रेखा को स्वीकार नहीं करेगा।’’ तिब्बत को अपने देश में मिलाने के बाद चीन ने भारत के साथ अपनी सीमाओं का स्वयं ही निर्धारण कर लिया था और वह भारत को उसे ही स्वीकार करने की जिद कर रहा था। जबकि तिब्बत और भारत के बीच सीमा रेखा पहले से ही निर्धारित थी।
चाऊ एन लाई इससे पूर्व 1954 में भी भारत यात्रा पर आये थे जिसमें ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगे थे और उसमें पंचशील समझौता भी हुआ था। पं. नेहरू ने चाऊ एन लाई के पत्र को ऐसा बताया था जैसे कोई विजेता अपनी शर्तें रखता है। नेहरूजी जैसे दूरदृष्टा राजनेता का चीन से युद्ध हार जाने के बावजूद यह जवाबी खत बताता है कि चीन के सामने वह किसी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं थे।
1962 में चीन ने सभी सन्धियों और समझौतों को तोड़ कर भारत पर भारी लाव-लश्कर के साथ हमला बोल दिया था। तब भारत को स्वतन्त्र हुए मुश्किल से 15 साल भी नहीं हुए थे और यह अंग्रेजों द्वारा कंगाल बनाये मुल्क से ऊपर उठ रहा था लेकिन आज का भारत निश्चित रूप से 1962 का भारत नहीं है और इसकी फौजें दुनिया की बेहतरीन फौजों में मानी जाती हैं।
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कल लद्दाख जाकर स्वीकार किया है कि चीन की नीयत खराब है और सीमाओं पर स्थिति गंभीर है। चीन अपनी मर्जी से उसी तरह नियन्त्रण रेखा को बदल देना चाहता है जिस तरह 1959 में उसने नियन्त्रण रेखा का निर्धारण कर डाला था। अतः भारत को करारा जवाब देने के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर दलगत हितों से ऊपर होती है। हमारी सेनाएं देश की सेनाएं होती हैं, उनका सर्वप्रथम कर्त्तव्य राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करना होता है। संवैधानिक दायित्व से बंधी किसी भी पार्टी की सरकार का भी पहला कर्त्तव्य भौगोलिक सीमाओं की अखंडता अक्षुण्य रखने का होता है।
अतः चीन को भारत के किसी भी इलाके में क्षण भर भी रहने का अधिकार नहीं दिया जा सकता मगर जिस धौंस के साथ चीनी सेनाएं गलवान घाटी से लेकर पेगोंग सो झील के इलाके और अक्साई चिन से लगे देपसंग के पठारी मैदान में कब्जा जमाये हुए हैं, उसे खाली कराये बिना हम अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकते। भारत की विशेषता इसका लोकतन्त्र रहा है जिसमें विपक्ष की भूमिका जागरूक चौकीदार की भी होती है। किसी भी खतरे से सरकार को सचेत कराने की प्राथमिक जिम्मेदारी भी विपक्ष की होती है।
सीमाओं के मामले में यह कार्य राजनीतिक प्रतियोगिता के आधार पर नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के सर्वोच्च विचार के साथ होता है। इसलिए कांग्रेस नेता श्री कपिल सिब्बल का यह सवाल उठाना जायज है कि गलवान घाटी में नियन्त्रण रेखा के भारतीय इलाके में चीनियों ने भारी सैनिक ढांचे किस तरह खड़े कर लिये हैं? पेगोंग सो झील इलाके के भारतीय इलाके में चीन ने हेलीपैड बनाने से लेकर भारी सैनिक जमावड़ा कर रखा है स्थायी बंकर आदि तक बना लिये हैं? देपसंग के पठार में चीनी सेना नियन्त्रण रेखा के 18 कि.मी. अन्दर तक आकर दौलतबेग ओल्डी सैनिक सैक्टर में बने हमारे सैनिक हेलीपेड को निशाने पर लिये हुए है? और लद्दाख के कई गांवों पर चीनी फौज विगत फरवरी महीने से भी पहले से ही कब्जा जमाये हुए है। ये सब ऐसे मामले हैं जो बहुत संजीदा हैं और जिनका सम्बन्ध भारत के सम्मान और भौगोलिक अखंडता से है।
जो चीन 1962 से ही हमारी 40 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि अक्साई चिन पर कब्जा करके बैठा हुआ है उसकी ऐसी हिमाकतों को कोई भी भारतवासी नजरअन्दाज नहीं कर सकता। हकीकत में चीन की ये हरकतें हर भारवासी का खून खौला रही हैं। भारत में किसी भी विषय पर राजनीति हो सकती है मगर राष्ट्रीय सुरक्षा का जब मुद्दा आता है तो कांग्रेस या जनसंघ का भेद टूट जाता है।
ऐसा हमने 1962 के भारत-चीन युद्ध में देखा और 1965 व 71 के भारत-पाक युद्ध में भी देखा। सत्तारूढ़ पार्टियां बदल सकती हैं मगर इस देश की एक इंच भूमि पर भी कोई कब्जा नहीं कर सकता। यह देश सूबेदार जोगिन्दर सिंह (चीनी युद्ध के नायक) से लेकर हवलदार अब्दुल हमीद (पहले पाक युद्ध के नायक) की वीर गाथाओं से भरा पड़ा है। जब सीमाओं पर संकट आता है तो इसी देश के नागरिक बांसुरी छोड़ कर बन्दूक की गोलियों में संगीत की बयारें बहा देते हैं। यही वह देश है जिसमें किसान खेत पर पसीना बहाता है और उसका बेटा सीमा पर जौहर दिखाता है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि विगत 15 जून को ही कर्नल बी. सन्तोष बाबू समेत 20 सैनिकों ने लद्दाख की गलवान घाटी पर भारतीय भूमि की रक्षार्थ चीनियों से लड़ते हुए शहादत पाई। हम उस राजनीतिक इच्छा शक्ति के वारिस हैं जो 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ देते हुए व्यक्त की थी। हम उस जमीन के बाशिन्दें है जिसकी वीर सेनाओं ने पाकिस्तान को बीच से चीर दिया था और उसके एक लाख फौजियों को घुटने के बल बैठा कर तौबा कराई थी। विस्तारवादी चीन से हम न पहले कभी झुके हैं और न अब झुकेंगे। यही हमारा निश्चय होना चाहिए, उसे अपनी धरती से निकाल बाहर करने के लिए हर भारतवासी बेताब है। जय हिन्द!