भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को प्रशासन तन्त्र से लेकर राजनीतिक तन्त्र में आरक्षण देने का मन्तव्य इन वर्गों के लोगों को स्वतन्त्र भारत में वह मानवीय बराबरी का दर्जा देने का था जिसे हिन्दू समाज सदियों से वर्ण व्यवस्था के नाम पर अपने बीच के ही एक विशेष वर्ण के लोगों को देना नियम विरुद्ध मानता था। बाबा साहेब अम्बेडकर ने देश का संविधान बनाते समय महात्मा गांधी के सान्निध्य में हिन्दू समाज की उन जातियों को अधिकृत तौर पर अनुसूचित किया जिन्हें हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था ने केवल समाज की सेवा करने के काम में अधिकृत किया हुआ था और इस व्यवस्था के चलते इन जातियों के लोगों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता था।
हजारों साल से चल रहे इस सामाजिक अपराध को समाप्त करना आसान काम नहीं था इसीलिए संविधान में एेसी व्यवस्था की गई कि इन वर्गों के लोगों को शेष हिन्दू समाज के वर्णों के लोगों के बराबर ही अधिकार देने के पक्के प्रावधान इस प्रकार किए गए। सत्ता से लेकर प्रशासन व शिक्षा तक के क्षेत्र में इनकी हिस्सेदारी आनुपातिक रूप से हो सके। पूरी दुनिया में संभवतः भारत ही एकमात्र देश एेसा है जिसमें जन्मगत जाति के आधार पर आदमी-आदमी में भेदभाव को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी।
हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने इस हकीकत को पहचानते हुए ही नए भारत के निर्माण के साथ यह शपथ ली कि इस सदियों से चले आ रहे अन्याय को इस प्रकार समाप्त करने की वििध विकसित की जाए कि इन्हीं उपेक्षित तबकों के लोगों को नए भारत में सत्ता व प्रशासन प्रमुख होने का अवसर भी मिले जिससे समाज के उन तबकों के लोगों में यह भाव पनप सके कि जन्मगत श्रेष्ठता या जातिगत सामाजिक बड़ापन न तो किसी संस्कृति का हिस्सा हो सकते हैं और न ही किसी समाज का नियम किन्तु जैसे–जैसे नए भारत का समय आगे बढ़ता गया वैसे–वैसे ही अनुसूचित वर्गों को मिले विशेषाधिकारों के विरुद्ध वे कट्टरपंथी व पोंगापंथी ताकतें सक्रिय होती चली गईं जिनका वर्चस्व कथित जातिवादी अस्मिता के मनघड़ंत शौर्य, दक्षता व क्षमता पर टिका हुआ था।
अतः संविधान में जिस मानवीय आधार पर अनुसूचित जातियों व जन जातियों को सामाजिक न्याय देने के उपबन्ध रखे गए थे उनके खिलाफ भी समानान्तर जंग छेड़ने की कोशिशें होने लगीं और इसी क्रम में अनुसूचित जतियों के लोगों के विरुद्ध अपराधों को इस प्रकार अंजाम दिया जाने लगा कि उनके मूल में वही सदियों पुरानी मानसिकता जागृत हो सके जिसके चलते चार वर्णों से बने हिन्दू समाज के तीन वर्ण स्वयं को बेहतर साबित कर सकें। इसी मानसिकता के विरुद्ध दलित अत्याचार निरोधक कानून को कालान्तर में बनाया गया जिससे एेसी मानसिकता के लोगों के खिलाफ तुरन्त कार्रवाई करके सजा का प्रावधान किया जा सके और समाज के नव सुसंस्कृत होने का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति के साथ उसकी जाति की वजह से किया गया दुर्व्यवहार इस श्रेणी में डाला गया और इसे गैरजमानती बना दिया गया।
यह पूरी तरह न्यायोचित कहा जा सकता है क्योंकि भारतीय समाज में यह प्रथा भी सदियों पुरानी है कि ‘भय बिन होत न प्रीत’ इसका मन्तव्य भी केवल इतना ही था कि दलित समाज के व्यक्ति को केवल अन्य जातियों के लोगों के समकक्ष ही रख कर देखा जाए परन्तु यह भी सत्य है कि कुछ तत्व निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए कानून का दुरुपयोग करने से बाज नहीं आते परन्तु एेसे लोगों के लालच की सजा पूरे समाज को भी नहीं दी जा सकती। विगत 20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में नुसूचित व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत की तसदीक किए जाने पर ही आगे की कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। इससे दलित उत्पीड़न निरोधक कानून के कुछ हल्का पड़ने की संभावना पैदा हो गई थी जिसे संसद में बदल कर पुरानी व्यवस्था कायम करने का संशोधन विधेयक पारित कर दिया गया।
इस विधेयक को लगभग सभी दलों ने अपना समर्थन दिया परन्तु सरकार के इसी फैसले के खिलाफ कल कुछ राज्यों में कथित सवर्ण जातियों के संगठनों ने बन्द तक का आयोजन किया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में दलितों पर अत्याचार सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश राज्य में होते हैं और बन्द का असर भी इसी राज्य में सबसे ज्यादा दिखाई दिया। इसकी क्या वजह हो सकती है? इसकी वजह यही है कि इस राज्य में उन सामाजिक शक्तियों को अपनी ताकत घटती हुई नजर आ रही है जो दलितों के उत्पीड़न को अभी तक सामाजिक शिष्टाचार के रूप में स्वीकार करती हैं। इन ताकतों को अभी तक वे प्रशासनिक पेचीदगियां बचाती रही हैं जिसके तहत किसी भी दलित वर्ग के व्यक्ति को अपनी शिकायत दर्ज करने पर अपना जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार के चलते ये ताकतें गरीब व लाचार दलित को इसी औपचारिकता मेें इस तरह उलझा देती हैं कि वह प्रताडि़त होने के बावजूद हथियार डालने को मजबूर हो जाता है। जाहिर है कि यह स्थिति अन्य राज्यों में भी कमोबेश होगी। हमें दलितों के मामले में यह सोचना होगा कि यह व्यक्तिगत अपराध जरूर होता है मगर यह समग्र सामाजिक मानसिकता के जहरीलेपन की वजह से ही उपजता है अतः इसका उपाय भी हमें इसी स्तर पर जाकर करना होगा।
अतः सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जाते हुए सरकार ने दलित उत्पीड़न निरोधक कानून में जो संशोधन करके उसे पूर्ववत् बनाये रखने का प्रावधान किया है वह सामाजिक हकीकत के मद्देनजर ही किया है जिस पर समूचा राजनीतिक जगत एक है। इसकी तुलना हम किसी भी स्तर पर उस दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून से नहीं कर सकते हैं जिसका 98 प्रतिशत दुरुपयोग होता है। इसका दुरुपयोग इसलिए होता है कि यह कानून घर की चारदीवारी में दो व्यक्तियों या दो परिवारों के बीच अपनी–अपनी धन लिपस्या की गरज से इस तरह किया जाता है कि मामला नववधू के उत्पीड़न का दिखाई दे। जबकि दहेज लेते या देते समय दोनों ही पक्ष समाज को इस प्रक्रिया से बाहर रखते हैं।