इस वर्ष भीषण गर्मी तपा रही है और बिजली रूला रही है। चढ़ते पारे ने सभी अनुमानों को गलत साबित कर दिया है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, झारखंड, आंध्र प्रदेश समेत एक दर्जन राज्य बिजली संकट की चपेट में हैं। कई राज्यों में, ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर छोटे-बड़े शहरों में बिजली कट लगाए जा रहे हैं। बिजली किसी भी देश की प्रमुख जरूरत है। इसके बिना बुनियादी सुविधाओं पर अतिरिक्त जोर पड़ता है, जिसके कारण विकास अवरुद्ध हो जाता है। केवल घरों को ही नहीं, उद्योगों और किसानों को भी बिजली नहीं मिल रही। पंजाब के किसानों ने तो बिजली संकट के विरोध में सड़कों पर आकर प्रदर्शन भी किए हैं। बिजली घरों ने कोयले की कमी का ढिंढोरा पीट कर हाथ खड़े कर दिए हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव को ग्लोबल वार्मिंग का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जलवायु और वैश्विक तपन की तीखी मार झेलनी पड़ रही है। मार्च के पहले सप्ताह से ही गर्मी पड़ने से गेहूं का दावा सिकुड़ गया है। गेहूं का दावा 6 फीसदी तक सिकुड़ गया है, इससे कुल फसल के वजन पर दस से बारह फीसदी की कमी तो आ ही रही है, कम गुणवत्ता के कारण इसके दाम भी कम मिल रहे हैं। जनवरी 1891 के बाद कश्मीर में मार्च में इतनी गर्मी पड़ी है कि श्रीनगर के प्रसिद्ध टयूलिप गार्डन तय समय से पांच दिन पहले ही बंद करना पड़ा, क्योंकि गर्मी के कारण फूल ही मुरझा गए थे। देश में कुल सेब उत्पादन का 80 फीसदी उगाने वाले कश्मीर में 20 से 30 फीसदी कम उत्पादन का अनुमान है। तीखी गर्मी से सेब की मिठास और रसीलेपन पर भी विपरीत असर पड़ा है। अकेले सेब ही नहीं चैरी, आडू, आलूबुखारा जैसे फलों के भी गर्मी ने छक्के छुड़ा दिए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के ताजा शोध बताते हैं कि 2030 तक धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी। तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी। जलवायु परिवर्तन के ऊपर के लिहाज से देश के 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है, जिनमें 109 जिले बेहर संवेदनशील हैं। आजादी के बाद सकल घरेलू उत्पादन में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी, जो आज घटकर 13.7 फीसदी रह गई है।
आज भी देश की 60 फीसदी आबादी खेती पर आश्रित है। स्पष्ट है कि खेती किसानी करने वालों की आर्थिक स्थिति जर्जर है। तापमान बढ़ने से जलनिधियों पर खतरा मंडराने लगा है। जल स्रोतों का पानी सूखने लगा है। पानी बचाने और कुपोषण से निपटने की चिंता पूरे देश में एक समान है। खाद्य सुरक्षा का अभूतपूर्व संकट हमारे सामने है। जैसे ही गर्मी का मौसम शुरू होता है, बिजली की मांग बढ़ जाती है। भारत में बिजली का हाल किसी से छुपा हुआ नहीं है। जब भी अंधेरे में डूबने की नौबत आने लगती है, तब हम जागते हैं। पिछले 38 वर्षों में पहली बार इस वर्ष अप्रैल में बिजली की सबसे ज्यादा मांग बढ़ी है। समस्या है बिजली के उत्पादन की।
जिस तेजी से शहरी आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए बिजली की मांग बढ़ना स्वाभाविक है। घरों में भी एसी से लेकर बिजली से चलने वाली तमाम चीजें उपयोग में होती हैं। उद्योगों को उत्पादन के लिए पर्याप्त बिजली चाहिए। बिजली घर कोयले के संकट का शौर मचाते हैं जबकि सरकार का कहना है कि कोयले की कोई कमी नहीं, उसके पास कोयला ढुलाई के पर्याप्त साधन हैं। लेकिन सच तो यह है कि कई बिजली घरों के पास चार-पांच दिन का ही कोयला बचा है। कोयले की कमी के चलते अनेक यात्री ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं। ट्रेनें रद्द करके बिजलीघरों तक कोयला आपूर्ति करने की व्यवस्था की जा रही है। समस्या यह भी है कि देश में अभी भी 75 फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले और गैस आधारित संयंत्रों में होता है। देश में 135 पावर प्लांट ऐसे हैं जो कोयले से चलते हैं।
देश में बिजली की मांग का 62 फीसदी भारत के विशाल कोयला रिजर्व के जरिये पूरा होता है बाकी मांग आयातित कोयले से पूरी होती है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर का प्रकोप कम होते ही भारत समेत पूरी दुनिया में बिजली की मांग तेजी से बढ़ी। औद्योगिक गतिविधियों में तेजी आने से 2019 के मुकाबले इस वर्ष कोयले की खपत भी करीब 18 से 20 प्रतिशत तक बढ़ी। वैश्विक स्तर पर कोयले की कीमतों में वृद्धि हुई। दरअसल परम्परागत स्रोतों से हम मांग के मुताबिक ऊर्जा पैदा नहीं कर पा रहे और कोयला जलाने से पर्यावरण का संकट भी गम्भीर होता जा रहा है। न तो लोग ऊर्जा बचाने के लिए प्रयास करते हैं। लोग प्रयास करें भी तो कैसे क्योंकि सूर्यदेव के तेवर काफी कड़े हैं और लू के थपेड़ों से बचने के लिए लोग घरों या आफिस के भीतर बैठना ही पसंद करते हैं।
देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए और ग्रीन हाऊस गैसों से पर्यावरण को बचाने के लिए हमें नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को पैदा करने की जरूरत है। यद्यपि सरकार सौर ऊर्जा मिशन के माध्यम से विद्युत उत्पादन के लिए अनेक योजनाएं चलाए हुए है। मेक इन इंडिया के तहत सोलर एनर्जी और विंड एनर्जी पर ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन इसके लिए हमें बुनियादी ढांचा स्थापित करना होगा जब तक हम ऊर्जा के नए स्रोत नहीं सृजन करते तब तक संकट बरकरार ही रहेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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