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रक्षा क्षेत्र में आत्म निर्भरता

जिस समय चीनी सेनाएं लद्दाख के ‘पेगोंग झील’ इलाके से लेकर ‘दौलतबेग ओल्डी’ के समीप ‘देपसंग’ पठारी क्षेत्र में भारतीय भूमि पर कब्जा जमाये बैठी हैं

जिस समय चीनी सेनाएं लद्दाख के ‘पेगोंग झील’ इलाके से लेकर ‘दौलतबेग ओल्डी’ के समीप ‘देपसंग’ पठारी क्षेत्र में भारतीय भूमि पर कब्जा जमाये बैठी हैं उस समय रक्षा मन्त्री श्री राजनाथ सिंह की यह घोषणा कि भारत रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की तरफ निर्णायक कदम उठायेगा, इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे भारत के उस संकल्प का उद्घोष होता है जो चीन को भारत की अन्तर्निहित शक्ति का बोध कराता है। हालांकि रक्षा उत्पादन क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की पहल पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने तभी कर दी थी जब 2006 में वह देश के रक्षा मन्त्री थे। उन्होंने तब कहा था,  ‘‘आयुध सामग्री के विश्व बाजार में भारत मात्र एक खरीदार बन कर नहीं रह सकता।’’ 
उन्होंने तभी रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र के दरवाजे खोलने का ऐतिहासिक  निर्णय भी लिया था और रक्षा सामग्री की पारदर्शी खरीद के लिए ‘आफसेट’ नीति भी बनाई थी जिसका लक्ष्य 300 करोड़ रुपए से ज्यादा की सैनिक सामग्री आयात करने पर तत्सम्बन्धी उपकरण की टेक्नोलोजी का हस्तांतरण भी जरूरी था। इतना ही नहीं उन्होंने विदेशी कम्पनी का भारत में निवेश करना भी जरूरी बना दिया था। रक्षा खरीद की यह आफसेट नीति बाद की सरकारों के लिए एक आदर्श कीर्तिमान बना कर छोड़ गई और सभी के लिए इस पर अमल करना जरूरी हो गया।
 कुछ रक्षा विशेषज्ञों का यहां तक कहना है कि राफेल विमानों की खरीद में देरी भी इसी वजह से हुई क्योंकि 2012 में मनमोहन सरकार इसकी निर्माता कम्पनी पर टैक्नोलोजी हस्तांतरण के लिए जोर डाल रही थी। श्री राजनाथ सिंह ने 101 सैनिक उपकरणों के आयात पर प्रतिबन्ध लगाते हुए कहा है कि अब इनका उत्पादन केवल भारत में ही होगा। भारत में आयुध फैक्टरियों का निगमीकरण करने की नीति बन जाने के बाद यह बहुत जरूरी है कि आधारभूत रक्षा सामग्री से लेकर आधुनिक शस्त्राें का उत्पादन भारत में ही किया जाये तभी इस नीति की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
राजनाथ सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञों की श्रेणी में आते हैं और वह जानते हैं कि चीन किस प्रकार अपनी सामरिक शक्ति की धौंस में भारतीय भूमि पर जबरन कब्जा जमाये बैठा है और उसे खाली करने को तैयार नहीं हो रहा है। अतः बहुत जरूरी है कि चीन को भारत की सामरिक क्षमता का आभास इस तरह कराया जाये जिससे उसके हौंसले टूटें और वह भारत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध कायम रखने की तजवीज पर काम करना शुरू कर दे।
 दरअसल जिस देपसंग पठार के क्षेत्र में चीनी फौजें भारतीय सीमा में 18 कि.मी. तक भीतर घुसी हुई हैं वे इस पर भी  राजी नहीं हैं और असली नियन्त्रण रेखा को इससे और छह कि.मी. आगे तक बता रही हैं। जबकि हकीकत में भारत के अनुसार असली नियन्त्रण रेखा  चीनी सेनाओं की वर्तमान स्थिति से और पांच कि.मी. पीछे है। इस बाबत दोनों सेनाओं के उच्च अफसरों के बीच शनिवार को लम्बी बातचीत भी हुई मगर नतीजा कोई खास नहीं निकला।
 भारतीय सेना की इस क्षेत्र में कई सैनिक चौकियां हैं जहां पर चीनी सेना ने उसे गश्त लगाने से रोक रखा है। यह इलाका ऐसा है जो भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बहुत संजीदा है क्योंकि यह उस महत्वपूर्ण ‘दारबूक- श्योक- दौलतबेग ओल्डी’ सड़क के करीब पड़ता है जिसकी पहुंच काराकोरम दर्रे के निचले भाग तक है। यह सड़क चीन के शिनजियांग प्रान्त और  तिब्बत के भी बहुत समीप है। अतः चीनी सेनाएं इसमें अवरोध पैदा करके भारत पर दबाव बनाना चाहती हैं। 2012 में भी चीन ने ऐसी हरकत की थी मगर उसे नाकाम कर दिया गया था। इस बार चीन अपनी हठ पर अड़ा हुआ है। 
वास्तव में 255 कि.मी. लम्बी सड़क का निर्माण भी श्री प्रणव मुखर्जी ने ही शुरू करने का आदेश 2006 में दिया था जिस पर बाद में बने रक्षा मन्त्री ए.के. एंटोनी ने अमल किया। यह प्रणव दा की दूरदर्शिता का नमूना था कि उन्होंने तब चीन के पर कतरने की तरकीब निकाली थी क्योंकि यह सड़क पाक अधिकृत कश्मीर के 540 वर्ग कि.मी. के उस इलाके को अपनी पहुंच में लेती है जो 1963 में पाकिस्तान ने चीन को खैरात में दिया था। यह सड़क ऐसी  है जिसके बहुत करीब बीच में ही तिब्बत का एक गांव भी पड़ता है। इस सड़क के बनने से अक्साई चिन का इलाका भी भारत की निगाहों में रहता है। चीन इसी सड़क में अवरोध पैदा करने पर अड़ा हुआ है। श्री राजनाथ सिंह जैसा राजनीतिज्ञ इस हकीकत से वाकिफ न हो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः देश के रक्षा मन्त्री होने के नाते उनके हर प्रयास को भारत की जनता बहुत ध्यान से देख रही है।
 रक्षा उत्पादन में आत्म निर्भरता का मन्त्र मौजूदा दौर की आवश्यकता भी है क्योंकि एक तरफ पाकिस्तान और दूसरी तरफ अब चीन के उठ खड़े होने पर भारत की यह जरूरत बन चुका है। ऐसा नहीं है कि आजाद होने के बाद भारत ने इस तरफ प्रयास नहीं किये। ऐसे प्रयास पचास के दशक से ही शुरू हो गये थे जब परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भारत ने कदम रख दिया था। अंग्रेजों द्वारा कंगाल बना कर छोड़े गये भारत का यह क्रान्तिकारी कार्य था परन्तु रक्षा सामग्री के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना आधुनिक भारत के उस संकल्प का प्रतीक माना जायेगा जिसकी कसम उठा कर भारत गांधी के समय से ही चल रहा है, परन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है क्योंकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इस्राइल, रूस, चीन जैसे देश आयुध सामग्री के बहुत बड़े निर्यातक देश हैं। 
आधुनिकतम हथियारों की टैक्नोलोजी प्राप्त करने का कोई सरल रास्ता भी नहीं है। भारत सौभाग्यशाली है कि इसके दूरदर्शी नेताओं ने पचास के दशक में रक्षा विज्ञान प्रयोगशाला (डिफेंस साइंस लेबोरेटरी)  की स्थापना की और बाद में स्व. इदिरा गांधी ने इसे रक्षा विज्ञान अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) का दर्जा दिया। इस संगठन ने  प्रक्षेपास्त्र से लेकर अन्य आधुनिकतम अस्त्रों का निर्माण किया। यही संगठन रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की दिशा में अग्रणी भूमिका निभाता रहे इसकी गारंटी सरकार को इस प्रकार करनी होगी ​कि इसके द्वारा विकसित उपकरणों के उत्पादन में निजी क्षेत्र के सहयोग से भारत आयातक देश से निर्यातक देश बन सके।

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