सियासत भी क्या शह है जो कोई हद नहीं मानती है। दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे नागरिकता कानून (सीएए) विरोधी आंदोलनकारियों को आखिरकार ‘उठाना’ ही पड़ा क्योंकि यहां धरने पर बैठने वाले लोग ‘कोरोना वायरस’ को भी अपने खिलाफ कोई ‘बहाना’ मान बैठे थे।
इन खुदा के बन्दों को यह अक्ल नहीं आयी कि पहले वह इंसानियत को जिन्दा रखने के लिए कोरोना से तो लड़ लें उसके बाद ही इंसानी हकूकों की अपनी बराबरी की लड़ाई को लड़ें! क्योंकि इनका मानना है कि सीएए धार्मिक आधार पर हिन्दोस्तानियों में फर्क करता है। यह उनका मत है और इसके लिए अपनी आवाज उठाने का पूरा हक भी भारत का लोकतन्त्र उन्हें देता है मगर यही लोकतन्त्र यह भी कहता है कि पहले इंसान को बचाने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए क्योंकि कोरोना वायरस बिना किसी ‘भेदभाव’ के आदमी की जान का दुश्मन है।
इसके खिलाफ जो भी कदम केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें उठा रही हैं वे खुशी से नहीं बल्कि मजबूर होकर सिर्फ आम लोगों की जान की हिफाजत करने के लिए उठा रही हैं इसलिए हर शहरी का फर्ज बनता है कि वह इन्हें मानें मगर दूसरी तरफ कोरोना के खौफ के चलते ही जिस तरह मध्य प्रदेश में सत्ता का युद्ध हुआ है वह भी कम दिलचस्प नहीं है।
यहां सत्ताधारी कांग्रेस पक्ष के 22 विधायकों को भोपाल से बेंगलुरू रवाना करके जिस तरह हफ्ते भर से भी ज्यादा वक्त तक ड्रामा चला उसमें मुख्यमन्त्री ‘कमलनाथ’ के हाथ से ‘कमल’ के निशान वाली पार्टी भाजपा के नेता शिवराज सिंह चौहान ने ‘कमल’ ही छीन लिया।
नतीजा यह हुआ कि शिवराज सिंह चौहान विधानसभा के भीतर बने नये सदस्य संख्या समीकरण में बहुमत के हकदार हो गये और उन्हें राज्यपाल श्री लालजी टंडन ने मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला दी। इस सत्ता अदल– बदल से कोरोना पूरी तरह दूर रहा। जाहिर है कि कोरोना का डर आदमियों को आपस में मिलने-जुलने से तो रोक सकता है मगर राजनीतिज्ञों की खेमाबन्दी को नहीं रोक सकता।
मगर आज मुद्दा यह है कि कोरोना से उपजे खतरे का मुकाबला करने की तैयारी किस पैमाने पर की जाये जिससे आम आदमी की जिन्दगी मुश्किलों में न फंसे। प्रसन्नता की बात है कि देश के कारपोरेट जगत के उद्योगपतियों ने इस मोर्चे पर संवेदनशीलता का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारत की यह खूबी रही है कि यहां के उद्योगपति अपने ‘देश धर्म’ पर प्रायः खरे उतरे हैं।
एक जमाना स्वतन्त्र भारत में वह भी था जब स्वास्थ्य, शिक्षा व धार्मिक पर्यटन के क्षेत्र में नामी-गिरामी उद्योगपति दिल खोल कर खैरात दिया करते थे। यह उनका भारत के प्रति समर्पण ही था और देश की मिट्टी को नमन था। चाहे टाटा हो या बिड़ला अथवा डालमिया तीनों का नाम आम भारतीय सम्मान व श्रद्धा के साथ लिया करते थे।
डालमिया उद्योग घराने के अधिपति ‘स्व. सेठ रामकृष्ण डालमिया’ तो भारत में राजनीतिक मतभिन्नता पर लोकतन्त्र को जीवन पर्यन्त जीवन्त बनाये रहे। वास्तव में एक समय एेसा था जब स्वतन्त्रता के बाद डालमिया जी को वित्तमन्त्री बनाने का सुझाव कांग्रेस पार्टी के ही कुछ नेताओं ने रखा था परन्तु पं. नेहरू से उनके कुछ आधारभूत वैचारिक मतभेद थे। इसी प्रकार टाटा और बिड़ला उद्योग घराने भी राष्ट्रीय विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान ‘समाजवादी आर्थिक नीतियों’ के दौर में देते रहे।
कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह प्रधानमन्त्री के साथ हुई वीडियो बैठक में वर्तमान भारत के उद्योग शिरोमणियों ने समाज के गरीब व असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को होने वाली परेशानियों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए ठोस सुझाव दिये हैं। उन्हें देख कर यह कहा जा सकता है कि भारत ‘भामाशाहों’ से कभी खाली नहीं हो सकता।
अपने देशवासियों के लिए इनका पीड़ा का भाव बताता है कि इस देश के स्रोतों से कमाया हुआ इनका धन भारत माता को नमन करने से पीछे नहीं रहेगा। टाटा उद्योग समूह के वर्तमान चेयरमैन श्री एन. चन्द्रशेखरन ने सुझाव दिया कि इस संकट की घड़ी में सरकार को समाज के गरीब तबकों के लोगों के खातों में सीधे धन पहुंचाना चाहिए और वित्तीय घाटे की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
दूसरे उद्योगपति महिन्द्रा एंड महिन्द्रा समूह के कोटाक महिन्द्रा बैंक के उपाध्यक्ष श्री उदय कोटाक ने तो पूरी कार्ययोजना बना कर पेश कर दी और सुझाव दिया कि लघु क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों और दैनिक मजदूरी या रोजगार करके गुजारा करने वाले लोगों को सीधे पांच हजार रुपए व दस हजार रुपए की एकमुश्त मदद दी जाये जिससे घर में रहने के कारण उनका खर्चा चल सके। 25 वर्ष से ऊपर के कर्मियों के खाते में पांच हजार रुपए और 65 वर्ष से ऊपर के लोगों के खाते में दस हजार रुपए डाले जायें।
वित्तीय क्षेत्र पर पड़ने वाले कोरोना के असर को देखते हुए उद्योगपतियों ने कार्पोरेट कम्पनियों के लिए भी अस्थायी तौर पर कुछ रियायतों की मांग की परन्तु असली सवाल यह है कि ‘पूंजीपतियों’ ने ‘पूंजीविहीन’ लोगों की खुल कर वकालत की। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में विदेशी निवेश के लिए मची होड़ के बीच देशी उद्योगपतियों की भारत के प्रति यह निष्ठा निश्चित रूप से प्रशंसनीय है क्योंकि वे अपना मुनाफा इस संकटपूर्ण समय में गरीब जनता पर वार देना चाहते हैं।
हकीकत यह है कि कोरोना की सबसे ज्यादा चोट दैनिक दिहाड़ी करने वाले लोगों और छोटे-छोटे काम धन्धों में लगे मेहनतकशों के अलावा लघु दर्जे के कारखानों या फैक्टरियों अथवा व्यापार में लगे कारिन्दों पर पड़ेगी। यही लोग हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और छोटे किसान व भूमिहीन काश्तकार भी इनमें शामिल हैं। अतः घर बैठने को मजबूर इन लोगों के हितों की चिन्ता यदि बड़े-बड़े उद्योगपति करते हैं तो मानना होगा कि पूरा भारत इस मुश्किल से पार पा जायेगा। जब बात हिन्दोस्तान की आती है तो हम सबसे पहले हिन्दोस्तानी हो जाते हैं। यही रहस्य है हमारी ‘विविधता में एकता’ का। जय हिन्द।