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शर्म अगर उनको आती नहीं !

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लोकसभा से कांग्रेस के छह सदस्यों को अशोभनीय व्यवहार के लिए लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन द्वारा पांच दिनों के लिए कार्यवाही से बर्खास्त किया जाना वास्तव में चिंता का विषय है क्योंकि देश की यह सबसे पुरानी पार्टी लोकतंत्र की सबसे बड़ी अलम्बरदार ही नहीं रही है बल्कि भारत को संसदीय प्रणाली का लोकतंत्र देने का श्रेय भी इसी पार्टी को जाता है परन्तु देशभर में गौरक्षकों द्वारा आतंक मचाए जाने के मुद्दे पर जिस तरह सोमवार को इस पार्टी के सांसदों ने आचरण किया वह संसद की मर्यादा के अनुरूप नहीं था। देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी से इस तरह के आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इसके सांसदों ने अध्यक्ष के आसन के समीप आकर कागजों को फाड़ कर फैंक दिया। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि लोकसभा किसी राज्य की विधानसभा नहीं है कि यहां सदस्य इस प्रकार का आचरण करें बल्कि लोकसभा की कार्यवाही प्रत्येक विधानसभा के लिए उदाहरण का काम करती है। इसकी कार्यवाही पर पूरे देश के लोगों की नजरें लगी रहती हैं। अत: सारा कार्य नियमों व स्थापित परंपराओं के अनुरूप होना चाहिए। दूसरी तरफ सत्ता पक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह विपक्ष द्वारा जनता की तकलीफों से संबंधित मुद्दों को उठाए जाने के मुद्दे पर अपना दिल बड़ा करके उन पर बहस का स्वागत करेगा।

सोमवार को जो कुछ सदन में हुआ तब मैं भी सदन में मौजूद था। जब मैं अपने घर लौटा तो मैंने परिवार के साथ भी टी.वी. पर पूरा दृश्य देखा। मैं अपने बच्चों को क्या बताता कि मैं उस सदन का सदस्य हूं जिस सदन में यह सब-कुछ हुआ। पता नहीं कि कांग्रेस को शर्म क्यों नहीं आती। गौरक्षकों द्वारा गौरक्षा के नाम पर निरीह नागरिकों की हत्या के मामले को विपक्ष काम रोको प्रस्ताव के जरिये सदन में उठाना चाहता था। ऐसी मांग करने का उसे जायज हक है मगर इस पर फैसला लोकसभाध्यक्ष को लेना होता है। वह ऐसे प्रस्ताव को अस्वीकृत कर सकती हैं। सोमवार को प्रश्नकाल के दौरान जब कांग्रेसी सांसदों ने ऐसी मांग की तो उन्होंने इसकी इजाजत नहीं दी और शून्यकाल में इसे उठाने के लिए कहा मगर विपक्ष राजी नहीं हुआ और कांग्रेस के सांसद अध्यक्ष के आसन के समीप आकर नारेबाजी करने लगे जिसके बाद उन्होंने कागज फाड़कर फैंकने शुरू कर दिए जिसे अवांछनीय आचरण करार देकर छह सदस्यों को पांच दिन के लिए सदन की कार्यवाही से निलम्बित कर दिया गया मगर इन छह सांसदों में से सुश्री सुष्मिता देव का कहना है कि ऐसी कार्रवाई करने से पहले सदस्यों के नाम लेकर अध्यक्ष चेतावनी देते हैं, जो नहीं किया गया और उन्हें सीधे निलम्बित कर दिया गया।

दूसरी तरफ विपक्ष ने यह भी कहा है कि सत्तापक्ष के एक सांसद इस पूरे प्रकरण की अपने मोबाइल टेलीफोन पर वीडियो फिल्म बना रहे थे जो कि पूरी तरह नियम विरुद्ध है। सदन की कार्यवाही की बिना अध्यक्ष की अनुमति के कोई भी फिल्म नहीं बना सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इसकी भी कहीं जांच किए जाने की जरूरत है मगर इस तर्क से कांग्रेस के सांसदों का आचरण सही नहीं हो जाता है। दूसरा हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि लोकसभा की कार्यवाही कम से कम व्यवधानों के साथ चले। यह बेवजह नहीं है कि सरकार में संसदीय कार्यमंत्री होते हैं जिनकी जिम्मेदारी सदन के सुचारू रूप से चलने से बंधी होती है। सदन की कार्यमंत्रणा समिति भी होती है जिसमें सत्ता और विपक्ष के नेताओं की सहमति से सदन में उठने वाले मुद्दों पर मतैक्य बनाकर सदन को चलाया जाता है। इस मंत्रणा समिति की अपनी पवित्रता होती है जिसे बनाए रखने की जिम्मेदारी दोनों ही पक्षों की होती है और इसका जिक्र सदन के भीतर करने से बचा जाता है बल्कि इसका जिक्र सदन में करना अनैतिक माना जाता है परन्तु पिछले कुछ सालों से यह पवित्रता भंग हो रही है और यदा-कदा किसी भी ओर से इसकी कार्यवाही का जिक्र सदन में कर दिया जाता है।

मूल रूप से सदन को सुचारू चलाने की जिम्मेदारी सरकार या सत्तापक्ष की इसीलिए होती है जिससे विपक्ष की हर जिज्ञासा को शांत करने का तार्किक हल निकाला जा सके। संसदीय लोकतंत्र की विपक्ष आत्मा होता है क्योंकि वह सत्ता से बाहर रहते हुए भी सत्ता पर बैठे हुए लोगों को निरंकुश होने से रोकता है मगर यह कार्य नारेबाजी या दस्तावेज फाडऩे से नहीं हो सकता, इसके लिए रचनात्मक तथ्यपरक बहस जरूरी होती है। बिना शक पूरे देश में गौरक्षकों के क्रियाकलापों से आम आदमी में गुस्सा है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि संसद सदस्य भी गुस्से में भर कर कागज फाडऩे लगें और सरकार की जवाबदेही नारों से तय करने लगें। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमने जिस संसदीय प्रणाली को अपनाया है उसकी गिरफ्त से संविधान के संरक्षक कहे जाने वाले राष्ट्रपति तक बाहर नहीं हैं और न्यायपालिका के कर्णधार तक इसके घेरे में आते हैं।

संसद सर्वोच्च इसीलिए है कि इसके सदस्यों के पास लोकतंत्र को निरापद रखने के अंतिम अधिकार हैं। लोकसभा अध्यक्ष को सर्वसम्मति से चुनने की परिपाटी को हमने आगे बढ़ाया है, क्योंकि लोकसभा अध्यक्ष सत्तापक्ष के बहुमत की जोर-जबर्दस्ती से अल्पमत के सदस्यों को बचा सकें। वह सदन में चुनकर आए प्रत्येक सदस्य या समूहों के हितों के संरक्षक होते हैं और सदन की गरिमा को हर हाल में सुरक्षित रखते हैं। उनके पास न्यायिक अधिकार भी इसीलिए होते हैं कि वह प्रत्येक सदस्य या दल अथवा समूह के साथ न्याय कर सकें। वह लोकसभा के माध्यम से पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु संसद की जद से वह भी बाहर नहीं रखे गए हैं। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि देश की पहली लोकसभा में ही इसके अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के खिलाफ 1954 में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था वह भी तब जबकि संसद के नियमों को निर्धारित करने और इसकी स्वतंत्र सरकार से निरपेक्ष सत्ता कायम करने में श्री मावलंकर का सबसे अधिक योगदान था।

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