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शरद यादवः चिराग कहीं खो गया

श्री शरद यादव के निधन से स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति का वह दैदीप्यमान सितारा खो गया है जिसके प्रकाश ने कभी देश के युवा वर्ग की एक पूरी पीढ़ी को आलोकित किया था और उनके दिलों में भारत की जमीनी हकीकत की पहचान छोड़ी थी।

श्री शरद यादव के निधन से स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति का वह दैदीप्यमान सितारा खो गया है जिसके प्रकाश ने कभी देश के युवा वर्ग की एक पूरी पीढ़ी को आलोकित किया था और उनके दिलों में भारत की जमीनी हकीकत की पहचान छोड़ी थी। पूरे जीवन भर गांव, गरीब, मजदूर, किसान से लेकर आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन के लिए संवैधानिक संघर्ष करने वाले शरद यादव का 75 वर्ष की आयु में दुनिया छोड़ देना उनके छोड़े गये कदमों के निशानों की हमेशा याद दिलाता रहेगा और उन्हें जन संघर्ष का मसीहा मानता रहेगा। शरद यादव युवा जीवन से ही गांधीवादी समाजवाद के क्रान्तिकारी विचारों के पोषक रहे और उनकी वैचारिक दीक्षा भी दादा धर्माधिकारी से लेकर अच्युत पटवर्धन जैसे विचारशील पुरुषों के सान्निध्य में हुई। वह भारत की मिट्टी की खुश्बू से ओत-प्रोत ऐसे नेता थे जिसने अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया और हर परिस्थिति में भारत के लोगों की एकता के लिए काम किया। उनका निश्चित मत था कि कोई भी देश उसके लोगों से ही बनता है और विकास का तरीका भी व्यक्ति को हर मायने में सशक्त करने से ही निकलता है। ऐसा विकास ही स्थायी होता है। 
यह तथ्य भी कम लोगों को ही ज्ञात होता कि शरद यादव इमरजेंसी लगने से पहले ही जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में जेल की सलाखों के पीछे भेज दिये गये थे मगर उन्होंने छात्रसंघ का चुनाव जेल के भीतर से ही लड़ा था और वह भारी बहुमत से विजयी हुए थे। 1974 में जय प्रकाश आन्दोलन से पूर्व ही शरद जी जबलपुर लोकसभा सीट से कांग्रेसी  सांसद महान हिन्दी प्रेमी सेठ गोविन्द दास की मृत्यु की वजह से हुए उपचुनाव लड़े थे और एक निर्दलीय युवा प्रत्याशी के रूप में भारी बहुमत से जीते थे। इसी वर्ष वह देश के युवाओं की धड़कन बन गये थे। इसके बाद बनी जनता पार्टी में चौधरी चरण सिंह ने उन्हें अपनी छत्रछाया में लिया और उनमें भविष्य की राजनीति का उजाला देखा। बेशक शरद यादव समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रेरित थे मगर चौधरी साहब के विचारों की छाप भी उन पर बहुत गहरी थी। वह जातिवाद के कट्टर दुश्मन थे और भारतीय समाज में जातिविहीन समता चाहते थे। यह तथ्य कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है क्योंकि उनका नाम प्रायः मंडल आयोग की राजनीति से जोड़ा जाता है परन्तु वास्तविकता यही रहेगी पूरी संसद में शरद यादव एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने कई बार भारत में फैली जाति- व्यवस्था पर बहस कराने की मांग की और ऐलान किया कि जातियों से जुड़ी गरीबी की पहचान को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम इस वर्ग के लोगों का आर्थिक उत्थान किया जाना चाहिए। वह सात बार लोकसभा के सांसद रहे और कई बार राज्यसभा में भी पहुंचे। 
संसद के दोनों सदनों में उन्होंने इंजीनियर होने के बावजूद भारत के दस्तकारों, हुनरमन्दों, कारीगरों व शिल्पकारों की समस्याओं की ऐसी वृहद विवेचना की कि उन्हें देश का ‘कौशल कुमार’ कहा जाने लगा। वह संसद से लेकर सड़क तक भारत के गांवों से लेकर शहरों में बसे वंचित व विभिन्न लोगों की आवाज बन गये। वह ऐसे वक्ता थे जो जमीनी सच को अपने सारगर्भित शब्द देकर बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों का ध्यान खींच लेते थे। इसी वजह से उन्हें एक बार संसद के सर्वश्रेष्ठ वक्ता का पुरस्कार भी मिला था। हालांकि वह कांग्रेस विरोधी राजनीति के बीच पले-बढे़ थे मगर उनके विचार मूलतः गांधीवाद की धारा से ही बन्धे रहे। वह समाज में ऐसे बदलाव के पक्षधर थे जिसमे महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्राप्त हो। अपने संसद के भाषणों मे उन्होंने हमेशा परिवार की मां को आर्थिक व सामाजिक रूप से सशक्त करने की वकालत करते हुए कहा कि यदि परिवार में मां आर्थिक रूप से सशक्त होगी तो भारत के पितृ सत्तात्मक समाज में बदलाव आयेगा मगर इसके लिए सबसे पहले हमें ग्रामीण समाज में यह बदलाव लाना होगा। शरद जी एक स्वतन्त्रता सेनानी के सुपुत्र थे। अतः वह मानते थे कि भारत के लोकतन्त्र में राजनैतिक विकल्पों की कमी नहीं होनी चाहिए। यही वजह थी कि स्व. वाजपेयी के शासनकाल के दौरान उन्हें राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चे (एनडीए) का संयोजक बनाया गया था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह जनता दल (यू) के अध्यक्ष रहे थे बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि उनकी वाज पर देश के ग्रामीण व रोजमर्रा का काम करने वाले लोग संगठित हो जाया करते थे। यही वजह थी विपक्षी दल जब भी किसी मुद्दे पर भारत बन्द का आह्वान करते थे तो आह्वान शरद यादव का ही चलता था।
 संसद की राजनीति को लगातार सामान्य व्यक्ति को केन्द्र में रखते हुए नया विमर्श देने वाले अपने अन्तिम समय में बीमारी की वजह से राजनीति में निष्क्रिय जरूर हुए मगर उनकी चिन्ता लगातार राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति रही। वह अपने समकक्ष राजनीतिज्ञों सर्वश्री लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार व रामविलास पासवान से अलग इस मायने में थे कि उनके शब्द कोष में समझौतावादी राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं था। यही वजह रही कि उनका पूरा राजनैतिक बेदाग रहा और वाजपेयी सरकार में मन्त्री रहने के बावजूद उन पर गलत आरोप लगाने की किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं हुई। उनका जीवन सादा और सरल था जिसमें गांव की महक आती थी। वह ऐसे इंजीनियर थे जिसके पास समाज के गरीब आदमी को ऊपर उठाने के पुख्ता औजार थे। वह ऐसे चिराग थे जो खुद जल कर गरीब की झोंपड़ी में उजाला भरने का सपना संजोते थे। उनके निधन से राजनीति में रिक्तता को भरा जाना बङा मुश्किल है। 
‘‘हजारों साल नरगिस अपनी ‘बेनूरी’ पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’’                         

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