कर्नाटक में पिछले सप्ताह लोकतंत्र की फड़ लगाकर मोल-भाव की बोलियों के बीच राजधानी दिल्ली में गूंजी लोकतंत्र की शहनाई की वह धुन दबकर रह गई जिसमें प्रजातंत्र के जीवंत रहने का राग पूरी तैयारी के साथ अलापा गया था। यह राग वह था जिसे भारत की संसद में आम हिन्दाेस्तानी की आवाज को ठेठ देशी अंदाज में पेश करने वाले नेता श्री शरद यादव ने अलापा था और 18 मई को घोषणा की थी कि वह अपनी नई पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल शुरू करके उन सभी लोगों को इसमें आने का आह्वान कर रहे हैं जिनकी आस्था असली भारत के उत्थान में है। श्री यादव ऐसे समाजवादी सोच के अग्रणी नेता माने जाते हैं जिन्होंने संसद में एक बार नहीं बल्कि कई बार सीना ठोक कर ऐलान किया कि भारत तभी विकास कर सकेगा जब इसके किसानों से लेकर मजदूरों व दस्तकारों की हालत में वह तबदीली लाई जाएगी जिस पर देश के संभ्रांत कहे जाने वाले लोग कब्जा जमाए बैठे हैं।
श्री यादव लोकतंत्र के ऐसे सिपाही माने जाते हैं जिन्होंने स्वर्गीय इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री के शासन के दौरान 1973 में कांग्रेस पार्टी के गढ़ को ढहा दिया था और मध्यप्रदेश की जबलपुर लोकसभा सीट को इस साल हुए उपचुनाव में उससे छीन लिया था। उस समय वह युवा थे और जबलपुर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद राजनीति में हाथ आजमा रहे थे। बेशक वह इसी विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे थे और उन्हें कई बार छात्र आंदोलनों के चलते जेल भी जाना पड़ा था मगर उन्होंने सत्ता के जुल्म के आगे कभी सिर नहीं झुकाया और हर अत्याचार के बाद उनका सिर और ऊंचा होता चला गया। उनकी राज्यसभा सदस्यता जिन परिस्थितियों में जनता दल (यू) से विद्रोह करने के बाद समाप्त की गई वह विवादास्पद है। क्योंकि उन्होंने बिहार में जनता दल (यू) व राजद गठबंधन को समाप्त करने के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फैसले का पुरजोर विरोध किया था मगर राज्यसभा में उनकी अनुपस्थिति से इस सदन में आम जनता के जमीनी मुद्दों को हकीकत की रोशनी में बयान करने वाला वकील नहीं रहा।
बहुत कम लोग हैं जो सीना तान कर कह सकते हैं कि विकास का वर्तमान तरीका भारत में अमीर और गरीब के बीच की खाई को और बड़ा करेगा तथा गांवों और गरीबों का इस हद तक शोषण करेगा कि अपनी खेती की जमीन जोतने वाला धरती का भगवान ‘किसान’ शहरों में आकर ‘दास’ बन जाएगा क्योंकि विकास का यह मॉडल गांवों की कीमत पर शहरों काे चकाचौंध करने का है। श्री यादव उन स्व. चौधरी चरण सिंह के परम शिष्य रहे हैं जिन्होंने जात-पात और संप्रदाय व धर्म से परे समूचे ग्रामीण भारत की जनता को गोलबंद करके चुनौती दी थी कि लोकतंत्र में सत्ता पर पहला हक इसी वर्ग का है। अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए संघर्ष में इन्हीं लोगों ने सबसे आगे आकर कसम खाई थी कि उनकी राह वही होगी जो गांधी बाबा दिखाएंगे। वास्तव में आज भारत में जितने भी जनता दल या समाजवादी दल हम देख रहे हैं वे सब चौ. चरण सिंह के वृहद लोकदल से ही टूटे हुए खंड हैं। बेशक चौधरी साहब के लोकदल में दिसम्बर 1974 में विभिन्न समाजवादी व उदार दक्षिणपंथी दलों जैसे स्वतंत्र पार्टी व बीजू पटनायक की पार्टी का विलय हो गया था मगर इन सभी पार्टियों का आधारभूत वोट बैंक ग्रामीण मूलक ही था। श्री यादव इसी स्कूल से निकले हुए राजनीति के खिलाड़ी हैं और एक स्वतंत्रता सेनानी के एेसे सुपुत्र हैं जिन्हें दादा धर्माधिकारी जैसे तपे हुए समाजवादी विचारक का सान्निध्य भी मिला।
अतः उनके द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक जनता दल का लक्ष्य निश्चित रूप से भारत की काया और कलेवर को बदलने का होगा। तर्क दिया जा सकता है कि क्या पहले से ही कम जनता दल मौजूद थे जो एक नए जनता दल की जरूरत पड़ी? इसका जवाब श्री यादव ने अपनी पार्टी के स्थापना सम्मेलन में यह कहते हुए दिया कि राजनीति में निजी आकांक्षा का कोई महत्व नहीं होता है बल्कि लोक आकांक्षा का महत्व होता है। जब कोई राजनीितक दल निजी महत्वाकांक्षा को लोक आकांक्षा के ऊपर रखकर देखने लगता है तो वह दल नहीं बल्कि ‘दलदल’ हो जाता है। उन्होंने यह कटाक्ष नीतीश कुमार पर किया था। उनके अनुसार वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए जरूरी है कि हर मंच से ‘भारत के विचार’ को बचाने की पुख्ता कोशिश की जाए और हर स्तर पर लोगों को साथ लिया जाए। भारत के विचार को असलियत में जिन्दा रखने वाले लोग गरीब और पिछड़े तबके के ही हैं, जिनके लिए ‘मज़हब’ कोई मायने नहीं रखता बल्कि ‘माहौल’ मायने रखता है। आज देश में इसी माहौल को बिगाड़ने की कसम कुछ लोग उठाए हुए हैं और आम जनता का ध्यान असली मुद्दों से हटाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका यह बयान वास्तव में उनकी जमीनी राजनीति की परतें खोल देने के लिए काफी है जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा उपचुनाव के संदर्भ में दिया है।
‘इस क्षेत्र की जनता के लिए गन्ना ज्यादा महत्व रखता है या जिन्ना, जिसकी तस्वीर पर बखेड़ा किया जा रहा है। इस क्षेत्र की 6 गन्ना मिलों पर किसानों का इसी सीजन का 1200 करोड़ रुपए से ज्यादा का बकाया है जिसका 14 दिनों के अंदर भुगतान हो जाना चाहिए था मगर राज्य सरकार क्या जिन्ना को कब्र से खोद कर किसानों का भुगतान करेगी?’ मगर इससे इस सवाल का जवाब पूरा नहीं मिलता है कि लोकतांत्रिक जनता दल का गठन क्यों जरूरी है? यह जबाव जरूर मिलता है कि श्री यादव किसी अन्य जनता दल की आंतरिक बनावट की राजनीति से संतुष्ट नहीं हैं। श्री नीतीश कुमार के साथ उनका गठजोड़ काफी लंबा रहा मगर यह बिहार की जनता द्वारा दिए गए जनादेश की वैधता पर टूट गया। इससे लगता है कि श्री यादव 2019 से पहले जनता दल (यू) को बदहवासी की हालत में डालने की रणनीति पर आगे चल रहे हैं। राजनीति कब क्या रंग बदल ले इस बारे में क्या कहा जा सकता है?