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शरद यादव की साझा विरासत

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लोकसभा चुनावों से पूर्व पूरे देश में जिस प्रकार के राजनीतिक गठबन्धन बन रहे हैं उनमें अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सैद्धांतिक आधार पर गठबंधन के दलों में कितनी समानता है। यह स्थिति केवल विपक्षी दलों के साथ ही हो ऐसा नहीं है बल्कि सत्ताधारी दल के बने गठबन्धन के साथ भी ऐसा ही है। दरअसल सत्ता प्राप्त करने की इस लड़ाई में सिद्धान्तों का कोई महत्व नहीं रह गया है क्योंकि शासन करने के लिए राजनीतिक दलों को सिद्धान्त जरूरी ही नहीं लगते उन्हें सिर्फ यह दिखाई देता है कि लोकसभा में आंकड़ों का बहुमत किस प्रकार बैठेगा परन्तु लोकतन्त्र विचार व सिद्धान्तविहीन शासन पद्धति से चलने वाली प्रक्रिया का नाम नहीं है।

इस प्रक्रिया के चलने पर ही जो बहुमत का शासन बैठेगा उसे ही लोकशाही कहा जाएगा। गांधीवाद या समाजवाद इसी पद्धति की पुरजोर वकालत करते हुए विरोधी मत को अपनी तार्किकता सिद्ध करने की चुनौती फैंकता है। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि सत्ता की राजनीति की आपाधापी और फरेब के मौजूदा दौर में भी यह कार्य कोई कर सकता है? यह काम जिस निष्ठा और लगन व सादगी के साथ विपक्षी खेमे में बैठे हुए पूर्व जनता दल ( यू) अध्यक्ष श्री शरद यादव कर रहे हैं उसकी तरफ अब ध्यान दिया जाना जरूरी है।

श्री यादव ने पिछले तीन साल से ‘साझा विरासत’ अभियान के तहत समूचे राजनीतिक जगत के लोगों को आह्वान किया हुआ है कि वे अपने विचारों में उस भारत को केन्द्र में रखने की शपथ लें जिसमें सदियों से विभिन्न संस्कृतियों के लोग इकट्ठा मिल कर रहते आए हैं और उन्होंने ही वह भारत बनाया है जिसका खाका भारत के संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर ने खींचा। इसलिए श्री शरद यादव ने इस मुहिम को ‘संविधान बचाओ’ का नाम भी दिया। दरअसल साझा विरासत और संविधान बचाओ ऐसी मुहिम है जिसका विरोध किसी भी मत या सिद्धांत पर चलने वाले राजनीतिक दल से नहीं हो सकता।

इस बात पर मतभेद हो सकता है कि श्री शरद यादव ने यह विषय अपने लोक अभियान के लिए क्यों चुना मगर विषय की सार्थकता से कोई विरोध नहीं हो सकता। इसके पीछे भी वजह वही है जो कभी लोकनायक जय प्रकाश नारायण को दिखाई दी थी। उस समय भी पूरे देश में पूर्ण बहुमत की सरकार काम कर रही थी मगर विरोधी दलों को लग रहा था कि संवैधानिक व लोकतान्त्रिक संस्थानों की गरिमा व प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है और सत्ता की अकड़ से पूरा लोकतन्त्र कहीं न कहीं निचुड़ रहा है। मगर श्री शरद यादव की मुहिम में बहुत बड़ा फर्क यह है कि वह सत्ता का विरोध तो कर ही रहे हैं मगर उन ​सिद्धांतों और राजनीतिक विमर्श का मूल रूप से पुरजोर विरोध कर रहे हैं जिनकी वजह से भारत की चेतना संकीर्ण दायरे में बंधती नजर आ रही है।

सम्राट अशोक के मगध साम्राज्य से लेकर शहंशाह अकबर के मुगल साम्राज्य तक भारत की बहुविस्तारित विविधता में गुणात्मक रूप से कोई अन्तर नहीं था। दोनों ही काल और समय में संस्कृतियों के समागम का कार्य हो रहा था। वर्तमान समय में हमें जिस अन्तर को दिखाया जा रहा है वह हमें अंग्रेजों ने विरासत में इस प्रकार सौंपा है कि हम इनके प्रतीकों को लेकर सदा झगड़ते रहें और कभी एक राष्ट्र की समन्वित और संघीभूत ताकत की ऊर्जा से पूर्णतः परिचित न हो सकें। यह काम अंग्रेजों ने 1947 में जिस तरह भारत को बांट कर किया उसकी छाया से आज का भारत भयभीत होकर नहीं चल सकता और उस अपनी साझा विरासत के बूते पर इतिहास के जख्मों को भी इस तरह भरना होगा कि भारत का प्रत्येक नागरिक स्वयं को संवैधानिक अधिकारों का सिपाही मानने लगे।

हम जब राज्यों का संघ बने थे तो उसी से तय हो गया था कि भारत ऐसी साझा विरासत का देश है जिसमें एक पंजाबी या बंगाली अथवा मद्रासी या मराठी का खानपान या पहनावा अलग हो सकता है और उसका धर्म भी अलग हो सकता है मगर उसकी विरासत अलग नहीं हो सकती और यह विरासत उस हिन्दोस्तान की है जिसे विभिन्न राजवंशों से लेकर मुगलों तक ने शासित किया मगर कभी उसकी पुरानी विरासत और परंपराओं से छेड़छाड़ नहीं की बल्कि हकीकत तो यह है कि एक राष्ट्र के रूप में सबसे पहले मुगलों खासकर शहंशाह अकबर ने ही राष्ट्रीय संप्रभुता की अवधारणा को जन्म दिया।

श्री शरद यादव का अभियान 21वीं सदी में उस ‘लोकसंप्रभुता’ को लेकर है जिसका दायरा संविधान में स्पष्ट रूप से खींचा गया है और प्रत्येक नागरिक को बराबर के अधिकार दिये गए हैं। एक तरफ जब लोकसभा चुनावों की आहट ने राजनीति को कसैला और छीनझपट का बनाना शुरू कर दिया है, उसी समय श्री यादव का यह अभियान हमें सजग कर रहा है कि राजनीति में लोगों को ही आपस में बांटने वाले दांव-पेंचों को भारत की समग्रता में रख कर परखने की क्यों आवश्यकता है।

इसकी वजह असम से लेकर उत्तर प्रदेश तक का चुनावी माहौल है जिसमें इन्ही राज्यों के लोग एक-दूसरे को संशय की नजरों से देख रहे हैं। केवल साझा विरासत ही इन्हें आपस में प्रेम से रहने और एक-दूसरे का सम्मान करने का वह रास्ता है जिसे गांधी बाबा से लेकर बाद में आचार्य नरेन्द्र देव व डा. राम मनोहर लोहिया व चौधरी चरण सिंह ने हमें दिखाया। साझा विरासत के इन पुरोधाओं की ही विरासत का यह जलाल है कि आज शरद यादव उन्हीं के छोड़े काम को पूरा कर रहे हैं।

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