कांग्रेस नेता व पूर्व केन्द्रीय मन्त्री शशि थरूर को अपने गरूर को छोड़कर वास्तविकता का सामना करना चाहिए और अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर की मृत्यु से जुड़े रहस्य के पर्दे को उठाने के लिए सभी प्रकार की सूचनाओं का स्वागत करना चाहिए। भारत में अपराध का पर्दाफाश करने की विश्वसनीय पत्रकारिता का लम्बा इतिहास रहा है। यह इतिहास वस्तुनिष्ठ सबूतों के आधार पर पुलिस व जांच एजेंसियों को बिना किसी दबाव या लोभ के अपना कत्र्तव्य निष्पक्षता के साथ निभाने की प्रेरणा देता रहा है। देश में कई अपराधों की तह तक जाकर असली अपराधियों की निशानदेही करने में पत्रकारों ने केन्द्रीय भूमिका तक निभाई है। सबसे ताजा मामला ऊंचे रसूख रखने वाले पीटर मुखर्जी व इन्द्राणी मुखर्जी का है जिन्होंने अपनी ही बेटी की हत्या पर रहस्य का पर्दा इस तरह डाला कि वे बेदाग दिखाई दें मगर मीडिया में जिस तरह इस मामले की परतें खुलीं उसने पीटर मुखर्जी के ऊंचे रसूख को तार-तार करते हुए अपराध के सच को उजागर करने में उत्प्रेरक का रोल अदा किया। सुनंदा पुष्कर की मृत्यु विगत 17 जनवरी, 2014 को हुई और उसे अप्राकृतिक मृत्यु कहा गया। जाहिर है कि इस प्रकार की मृत्यु से कई प्रकार के सवाल उठने थे जो उस समय उठे क्योंकि शशि थरूर तब सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के बाअसर नेता थे।
अपने पति के साथ असामान्य सम्बन्धों की जानकारी स्वयं सुनन्दा पुष्कर ही कुछ अपने करीब के लोगों को दे रही थीं। यह घरेलू सम्बन्धों में अपराध के प्रवेश करने का एक सन्देहास्पद कारण आपराधिक जांच के नजरिये से जरूर बनता था मगर दीगर सवाल यह है कि क्या थरूर को अपनी पत्नी की मृत्यु की जानकारी इसकी बाकायदा घोषणा होने से पूर्व ही हो गई थी क्योंकि यह तथ्य निकल कर सामने आया है कि वह उस होटल में सुनंदा की मृत्यु होने के बाद गये थे और इस बीच सुनंदा का होटल का कमरा भी बदला गया था तथा उनके कपड़े भी बदले गये थे। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि ऐसे समय ही होटल का आन्तरिक कैमरा बन्द रहा जिस समय थरूर के बीच में होटल जाने की बात की जा रही है मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि थरूर का इस कथित कांड में हाथ हो सकता है बल्कि यह है कि उन्होंने एक महत्वपूर्ण सूचना पुलिस से क्यों छुपाई? दूसरी तरफ यह भी एक सच है कि सुनंदा पुष्कर का मोबाइल फोन पुलिस ने एक सप्ताह बाद अपने कब्जे में लिया और उनके खाने-पीने के सामान को एक साल बाद। सामान्य पुलिस जांच में भी यह कार्य तब नहीं होता है जबकि मृत्यु रहस्य के घेरे में न हो। यह आरोप भी लगता रहा कि सुनंदा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट तैयार करने वाले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्साधिकारी पर कथित राजनीतिक दबाव डाला गया और सबसे ऊपर स्वयं दिल्ली पुलिस के आला अफसरों ने इस घटना की जांच में दोष पाया और पुन: विशेष जांच दल गठित करने की जरूरत बताई मगर थरूर इन सब रहस्यों का तार जोडऩे वाले राष्ट्रीय न्यूज चैनल रिपब्लिक को धमकी दे रहे हैं कि वह नई सूचनाओं का प्रसारण करना बन्द करे वरना वह अदालत में जायेंगे।
बेशक थरूर अदालत में जा सकते हैं मगर पत्रकारों को उनका कार्य करने से नहीं रोक सकते क्योंकि पत्रकारिता के लिए सबसे ऊपर जनहित रहता है। इससे पहले भी कुछ सन्देहास्पद व्यक्तियों ने संकल्पित अपराध से जुड़ी सूचनाओं को बाहर न आने देने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने की कोशिश की थी मगर उन्हें वहां से भी टका सा जवाब ही मिला था। राडिया टेप कांड इसका उदाहरण है। थरूर को सोचना चाहिए कि भारत के प्रजातन्त्र को चोखम्भा राज मुगालते में ही नहीं कहा जाता है। इसका ठोस कारण है और वह यह है कि किसी भी नागरिक को जब इस प्रजातन्त्र के तीनों खम्भों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से न्याय नहीं मिल पाता है तो वह चौथे खम्भे प्रेस या मीडिया का रुख करता है और अपना पक्ष खुलकर रखने की कोशिश करता है। इसका मतलब इतना ही है कि न्याय की व्याख्या में कभी वह पक्ष छुप सकता है जिसके दस्तावेज करीने से किसी भी वजह से इन तीनों खम्भों के सामने पेश नहीं जा किए जा सके। अत: थरूर को गरूर छोड़कर अपनी पत्नी की मृत्यु के सच को जानने की उत्सुकता दिखानी चाहिए और उन पत्रकारों का शुक्रगुजार होना चाहिए जो इसकी तह में जाना चाहते हैं। पत्रकारिता अगर धमकियों से डरने लगती तो कोई भी घोटाला देश के सामने ही नहीं आ पाता। स्वतन्त्र पत्रकारिता को भारतीय लोकतन्त्र में अपना धर्म निभाने से नहीं रोका जा सकता है।