17वीं लोकसभा के चुनावों के लिए जिस राजनैतिक माहौल का निर्माण किया गया है उसका सानी आजाद भारत के अब तक के चुनावी इतिहास में नहीं मिलता है। इस सन्दर्भ में 1977 के लोकसभा चुनावों का जिक्र किया जा सकता है जो देश में इमरजेंसी उठने के बाद हुए थे। उस समय स्व. इंदिरा गांधी के सामने विपक्ष का कोई एक नेता कहीं नहीं ठहरता था। कहने को मोरारजी देसाई से लेकर जगजीवन राम व चौधरी चरण सिंह, जार्ज फर्नांडीस, बीजू पटनायक व अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्षी खेमे में थे मगर सब में डर समाया हुआ था कि दो साल से अधिक इमरजेंसी की निरंकुश सत्ता में जीने आदी हुए लोगों को उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के प्रति सजग भी किया जा सकता है ?
उस समय स्वतन्त्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य रहे प्रख्यात समाजवादी नेता स्व. शिब्बन लाल सक्सेना जीवित थे और उत्तर प्रदेश में समाजवादी कांग्रेस पार्टी चलाते थे। वह अद्भुत प्रतिभा के मालिक थे और गणित व दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रहे थे मगर स्वतन्त्र भारत की राजनीति में उनकी पहचान ‘धरना नेता’ के तौर पर होती थी। वह गांधी जी के सत्याग्रही फौज के अग्रणी सेवादारों में रहे थे और अाजादी के आन्दोलन के दौरान 12 वर्ष तक जेल की यातनाएं सहते रहे थे। संभवतः वह उन चन्द कांग्रेसी नेताओं में से एक थे जिन्हें 1942 के अग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान अंग्रेज पुलिस की गोली लगी थी।
वह गंभीर रूप से जख्मी हो गये थे। वह आजीवन अविवाहित रहे। उनके कोई परिवार नहीं था जबकि वह एक ऐसे पिता की सन्तान थे जो अंग्रेजी शासन में आईसीएस अधिकारी थे। जब 1977 में देश में चुनाव घोषित हुए तो स्व. सक्सेना लोकसभा के सदस्य थे और कमोबेश उनकी पार्टी का इंदिरा जी की कांग्रेस में विलय हो चुका था। आधिकारिक तौर पर वह कांग्रेस के सदस्य ही माने जाते थे। मगर जब बाबू जगजीवन राम ने इंदिरा सरकार छोड़कर अपनी अलग कांग्रेस फार डेमोक्रेसी पार्टी बनाई तो वह स्व. हेमवती नन्दन लाल बहुगुणा व हरियाणा के भजन लाल के साथ इसमें शामिल हो गये। तब विपक्षी नेताओं को बड़ी दिक्कत हो रही थी कि वे किस तरह सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव प्रचार शुरू करें जिससे लोगों में जागृति आये।
उनका कार्य क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर व महाराजगंज आदि इलाका रहा था। स्व. सक्सेना ने तब गोरखपुर शहर में एक ऐसे आदमी को पकड़ा जिसकी इमरजेंसी में जबर्दस्ती नसबन्दी कर दी गई थी और उपहार में ‘डालडा’ घी का चार किलो का डिब्बा दिया गया था। स्व. सक्सेना ने अपनी जनसभा में उस व्यक्ति को मंच पर बैठाकर उसकी आपबीती कहानी आम जनता को सुनवाई और लोगों से ही पूछा कि क्या किसी स्वतन्त्र देश में कोई भी सरकार किसी नागरिक के साथ ऐसा सलूक कर सकती है? उनकी जनसभाएं जिस शहर में भी होती नसबन्दी के शिकार ऐसे लोगों की आपबीती सुनाई जाती। इसका असर दिल्ली तक में होने लगा। दिल्ली के तब के जनता पार्टी में विलीन जनसंघ के नेताओं को यह तकनीक इतनी भाई कि उन्होंने जमुना पार इलाके के कुछ नसबन्दी के शिकार लोगों को अपना स्थायी साथी बना लिया और वे उन्हें जनसभाओं में पेश करके उनकी आपबीती सुनवाने लगे।
धीरे-धीरे लोग लोकतन्त्र में अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सजग होते गये और बात यहां तक आ गई कि जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जमुनापार के ही भोलानाथ नगर इलाके में एक जनसभा को सम्बोधित करने गये तो लोगों ने उनसे ही यह सवाल पूछ लिया कि इमरजेंसी में आपकी ही पार्टी के नेता क्यों इंदिरा गांधी की तारीफ करने लगे थे तो चतुर अटल जी ने जो उत्तर दिया उसे सुनिये। उन्होंने कहा कि ‘‘मैं यहां कोई सफाई देने नहीं आया हूं बल्कि हमला करने आया हूं कि जब देश पर निरंकुश शासन लागू कर दिया गया और विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया तो कुछ लोग कहते हैं कि भारत में पत्ता भी नहीं हिला, ऐसी स्थिति क्यों आयी, हम सब अन्याय होते हुए क्यों देखते रहे? हमारा भी कर्तव्य बनता था कि हम अन्याय का विरोध करें मगर हम सब कुछ चुपचाप सहते रहे और यहां जो प्रेस वाले बैठ हुए हैं मैं उनसे पूछता हूं कि वे क्या कर रहे थे जब सरकार खुद सम्पादक बनी हुई थी ? क्या आजादी का मतलब यही होता है।
भारत का लोकतन्त्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। हर नागरिक लोकतन्त्र का सिपाही है’’ इसके बाद पूरी जनसभा अटल बिहारी वाजपेयी जिन्दाबाद के नारे लगाने लगी। लोकतन्त्र में नेता होने का मतलब लोगों की आवाज को अपनी आवाज देना होता है न कि अपनी आवाज को लोगों की आवाज बना देना किन्तु अजब वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें अपेक्षा की जा रही है कि नेता की आवाज को ही लोग अपनी आवाज समझें। कोई तो यह कह सके कि सबसे पहले उन लोगों की बात करो जिनकी नौकरियां पिछले पांच साल में खत्म हो चुकी हैं। नेताओं के मुंह से राष्ट्रहित की बात सुनना अब किसी छलावे से कम नहीं लगता है। ऐसे माहौल में शिब्बन लाल सक्सेना न आयें तो क्यों न आयें?