अयोध्या श्रीराम की है लेकिन श्रीराम तो रहीम के भी हैं, पीर पैगम्बरों के भी हैं। सदियों पहले से रामकथा का प्रसार भारत से बाहर कई दूर देशों तक हो चुका है। वह केवल एक कथा या काव्य नहीं है, बल्कि मानवीय अनुभव है, जिसे संस्कृति के रूप में पहचाना गया।
राम चरित मानस की जीवंतता के कई स्तर और पहलु हैं, जिन कारणों से ही वह भारतीय संस्कृति का आधार बन गई। उसी जीवंतता के कारण वह दूर देशों तक फैली और वहां के जनजीवन में भी गहरी पैठ सकी। इसलिए राम केवल भारतवासियों या केवल हिन्दुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, बल्कि बहुत से देशों, जातियों के भी मर्यादा पुरुष हैं जो भारतीय नहीं।
रामायण में जो मानवीय मूल्य दृष्टि सामने आई, वह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठ गई। वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रहकर लोक मानस का अंग बन गई। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में नागरिक रामलीला का मंचन करते हैं तो क्या वे अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं? इस मुस्लिम देश में रामलीलाओं का मंचन भारत से कहीं बेहतर और शास्त्रीय कलात्मकता के साथ किया जाता है।
इसका कारण सिर्फ यही है कि इस देश के नागरिक अपनी मूल संस्कृति को अपनी धरोहर मानते हैं। इसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले भारत के मुगल बादशाहों ने अपने रक्त का संबंध इस देश की माटी से जोड़ा था। यदि ऐसा न होता तो अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने दिल्ली में रामलीला का मंचन शुरू न कराया होता। यहां मैं उन्हीं फकीरों का उल्लेख इस संदर्भ में करना चाहूंगा, जो सदियों पूर्व अयोध्या की पावन भूमि पर पधारे और आज भी प्रत्यक्ष या परोक्ष उनकी अनुभूतियां भक्तों को होती हैं और लोग उनसे प्रेरणा पाते हैं। इस संदर्भ में पहला नाम मैं लिखना चाहूंगा कलंदर शाह का। वह 16वीं सदी के प्रसिद्ध सूफी संत थे।
वह जानकी बाग में रहते थे। मूलतः अरब से आए थे। कहते हैं उन्हें यहां माता सीता के साक्षात दर्शन हुए और यहीं रह गए। दूसरा नाम है हनुमान भक्त ‘शीश’ का। वह भी अरब से ही आए थे। अयोध्या आकर इन्होंने लम्बा अर्सा भजन बंदगी की। वह रोज गणेशकुंड में स्नान करते थे, जहां प्रतिदिन इन्हें पवन पुत्र हनुमान के दर्शन होते थे। उनके दर्शनों ने उन्हें आध्यात्मिक मस्ती में ला दिया था।
सदा हनुमानवृत्ति में ही विचरण करते थे। बड़े मस्त औलिया भाव को प्राप्त कर गए थे। रामभक्त जिक्र शाह, 30 वर्ष की आयु में ईरान से अयोध्या आए। वह मात्र जौ ही खाते थे। दिन-रात राम-राम का जाप करते थे। भगवान ने प्रकट होकर दर्शन दिए। इन्हें एक दिन आकाशवाणी हुई : ‘‘अयोध्या पाक स्थान है। तुम यहां रहकर बंदगी करो।’’
जिक्र शाह आजीवन यहीं रहे। एक अन्य रामभक्त तौगजा पीर का आगमन 40 वर्ष की उम्र में अरब से हुआ था, इन्हें सदा जीवों पर दया करने का हुक्म हुआ। वह सदा श्रीराम का जाप करते थे। फिर बड़ी बुआ और संत जमील शाह की बात करें तो, अयोध्या में देवकली मंदिर के बाजू में इनकी मजार है। वह स्वामी रामानंद जी की शिष्या थीं और कबीर जी के सान्निध्य में इन्हें ‘रामनाम’ जपने का मंत्र मिला था। जमील शाह अरब के रहने वाले थे। कोई दैवी संकेत मिलने पर भारत आए थे। यहां उनकी मुलाकात स्वामी सुखांदाचार्य से हुई।
अयोध्या में उन्हें अजीब-सा आनंद मिला। उन्होंने अपनी कथाओं में इस बात का जिक्र किया है कि जब मैं गुरु की कृपा से दसवें द्वार पर पहुंचा तो मुझे पीरे मुर्शीद हबीबे खुदा और अशर्फुल अम्बीया ने दीदार दिया। मैं आज तक वह नूरानी शक्ल नहीं भूल पाया। तब से अयोध्या ही मेरा मक्का हो गया। न जाने कितने ही मुस्लिम फकीरों ने इस पवित्र स्थान पर भगवान राम को अपना खिराजे अकीदत पेश किया। बाद में लोगों की सोच संकीर्ण होती गई। हम तो बंटते ही चले गए। ‘‘मंदिर-मस्जिद के झगड़ों ने बांट दिया इंसान को धरती बांटी, सागर बांटे, मत बांट भगवान को।’’ यदि मुसलमानों की मजहबी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें एक देश दिया जा सकता था तो हिन्दुओं को उसी आधार पर राम मंदिर बनाने के लिए वर्षों अड़चनें क्यों डाली गईं।
चाहिए तो यह था कि मुस्लिम भाई स्वयं राम मंदिर निर्माण के लिए जमीन हिंदुओं को सौंप देते तो हिन्दू भाई मस्जिद की तामीर दूसरी जगह कर देते तो फिर विवाद खत्म हो जाता और इतिहास कभी खूनी नहीं बनता। वर्षों तक मुकदमा कोर्ट-कचहरी में चला। दरअसल इस विवाद की जड़ में धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों के दोहरे मापदंड रहे, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण हिन्दू-मुस्लिम समाज को दूर करते गए। राम जन्मभूमि राष्ट्रीय अस्मिता व स्वाभिमान का विषय है। स्वाभिमान जागरण से ही देश खड़ा होता है।
सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण अपवाद स्वरूप ही हुआ। गुजरात का यह मंदिर 1026 में 21 बार तोड़ा गया और वहां मस्जिद बनाई गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गुलामी के चिन्ह हटाने और स्वाभिमान जागरण के लिए तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया।
महात्मा गांधी ने उनका समर्थन किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल ने, जिसमें मौलाना आजाद भी एक मंत्री थे, सोमनाथ मंदिर निर्माण की अनुमति दी, तब संसद में प्रस्ताव पारित किया गया। उस समय प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के करकमलों से 11 मई, 1951 को सोमनाथ मंदिर में शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। उनके वहां जाने का विरोध भी कुछ धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने किया, लेकिन डा. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें नहीं माना। अब श्रीराम मंदिर निर्माण की घड़ी आ गई तो इससे स्पष्ट है कि श्रद्धा के प्रतीक का किसी ने विध्वंस किया तो भी श्रद्धा का स्फूर्ति स्रोत नष्ट नहीं होता।