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सिद्धारमैया की ही ताजपोशी

कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रचंड चुनावी विजय प्राप्त करने के बाद जिस तरह मुख्यमन्त्री के चयन को लेकर पिछले पांच दिनों से उलझन चल रही थी उसका निपटारा हो गया है और श्री सिद्धारमैया को इस पद के लिए पार्टी आलाकमान द्वारा चुन लिया गया है। इस पद के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्री डी.के. शिवकुमार भी अपना मजबूत दावा ठोक रहे थे जिसकी वजह से कांग्रेस ने नये चुने हुए विधायकों के बीच दोनों नेताओं में चुनाव भी कराया जिसमें श्री सिद्धारमैया का वजन बहुत ज्यादा निकला। हालांकि यह शुरू से ही माना जा रहा था कि मुख्यमन्त्री पद के लिए श्री सिद्धारमैया की कर्नाटक की आम जनता के बीच भारी लोकप्रियता को देखते हुए उनके ही नाम का चयन किया जाना पार्टी व जनता के हित में होगा परन्तु इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी ने अपना नेता चुनने की जिम्मेदारी पहले विधायकों पर छोड़ी और बाद में आलाकमान ने अपना फैसला सुनाया। बेशक ये खबरें भी फैलीं कि श्रीमती सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के बाद ही श्री डी.के. शिवकुमार ने अपना दावा छोड़ा और नई सरकार में उपमुख्यमन्त्री बनना स्वीकार किया। यह तथ्य भी स्वीकार योग्य है कि श्री शिवकुमार इस बार अपनी कनकपुरा विधानसभा सीट से पूरे प्रदेश में सर्वाधिक सवा लाख के करीब वोटों से जीते हैं जबकि श्री सिद्धारमैया 45 हजार के करीब मतों से वरुणा सीट से विजयी रहे हैं मगर यह उनकी योग्यता व लोकप्रियता मापने का पैमाना नहीं हो सकता क्योंकि चुनावी हार-जीत कई दूसरे मुद्दों पर निर्भर करती है। 

हकीकत यही रहेगी कि श्री सिद्धारमैया विधायकों के साथ आम जनता में भी काफी लोकप्रिय हैं। श्री शिवकुमार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं अतः यदि वह मन्त्रिमंडल में शामिल होने का फैसला करते हैं तो उन्हें यह पद छोड़ना पड़ेगा क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने उदयपुर में हुए अपने चिन्तन शिविर में तय किया था कि एक व्यक्ति को केवल एक ही पद मिलेगा। हालांकि आलाकमान का कहना है कि ​िशवकुमार अगले लोकसभा चुनाव तक कर्नाटक कांग्रेेस अध्यक्ष पद पर बने रहेंगे क्योंकि पिछले लम्बे अर्से से वह कर्नाटक में कांग्रेस की प्राणवायु की तरह काम करते रहे हैं और अखिल भारतीय स्तर पर इसके संकट मोचक भी बने रहे हैं परन्तु लोकतन्त्र में सबसे ऊपर जन हित होता है और उसके बाद निजी हित आता है जबकि राष्ट्र हित के आगे इन सभी हितों का कोई मूल्य नहीं होता। श्री शिवकुमार के सामने लक्ष्य यह था कि जिस तरह उन्होंने चुनाव में पूरी पार्टी की एकात्म सांगठनिक शक्ति को बरकरार रखते हुए सत्ताधारी भाजपा को परास्त किया है उसी एकता का परिचय वह अपनी पार्टी की सरकार चलाने में भी दें। अतः 20 मई को कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार शपथ ले लेगी। 

वैसे लोकतन्त्र में किसी राजनैतिक दल के भीतर नेतृत्व के लिए प्रतियोगिता होना कोई गलत बात नहीं होती। इससे स्पष्ट होता है कि पार्टी में नेतृत्व संभालने के लिए योग्य नेताओं की कमी नहीं है। कांग्रेस पार्टी में इस मामले में बहुत लम्बी स्वस्थ परंपरा है। कर्नाटक में तो मुख्यमन्त्री का ही मसला था। इस पार्टी में तो प्रधानमन्त्री  तक के पद को लेकर स्वस्थ प्रतियोगिता होती रही है। आजादी से पहले के कई उदाहरणों का यदि हम जिक्र न भी करें तो 1966 जनवरी में श्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद नये प्रधानमन्त्री को लेकर पेंच फंस गया था क्योंकि  इस पार्टी के सबसे अनुभवी व वरिष्ठ नेता स्व. मोरारजी देसाई अड़ गये थे कि उनका इस पद पर दावा बनता है। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष स्व. कामराज नाडार थे। पार्टी अध्यक्ष होने की वजह से उन्हें लगता था कि नया प्रधानमन्त्री पं. नेहरू की बेटी इंदिरा  गांधी को होना चाहिए मगर संसदीय दल में किसी नाम पर भी सर्वसम्मति नहीं हो पा रही थी क्योंकि सांसदों का एक गुट श्री देसाई के पक्ष में था। अतः उन्होंने संसदीय दल में दोनों उम्मीदवारों पर गुप्त मतदान कराया । जब पर्चियां खुली तो श्रीमती गांधी के पक्ष में भारी बहुमत आया और श्री कामराज ने इंदिरा जी को प्रधानमन्त्री पद का सफल दावेदार घोषित कर दिया। चुंकि यह चुनाव पार्टी के आन्तरिक लोकतन्त्र के तहत कराया गया था अतः श्री देसाई से कहा गया कि वह उप प्रधानमन्त्री का पद स्वीकार करें और वित्त मन्त्रालय संभालें। इस प्रकार यह विवाद लोकतान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा सुलझाया गया। 

 यदि श्री शिवकुमार आलाकमान का फैसला स्वीकार न करते तो यह पूरी तरह विद्रोह की श्रेणी में आता जिसके बारे में श्री शिवकुमार सोच भी नहीं सकते हैं क्योंकि वह शुरू से ही पार्टी के प्रति समर्पित रहे हैं और जानते हैं कि श्री सिद्धारमैया का आम जनता की नजरों में कितना ऊंचा रुतबा है। श्री शिवकुमार भी जनता के बीच में काम करते हुए ही यहां तक पहुंचे हैं अतः वह गफलत में नहीं रह सकते और समझते हैं कि श्री सिद्धारमैया किस दर्जे के ‘जन-नेता’ हैं। अतः उन्हें सारे गिले-शिकवे भुलाकर कांग्रेस की विजय का जश्न मनाना चाहिए और जनता से किये वादों को पूरा करने की फिक्र करनी चाहिए।