कर्नाटक के मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया अजीब मुसीबत में फंस गये हैं। उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार के आऱोप लगा दिये गये हैं। ये आरोप राज्यपाल श्री थावर चन्द गहलौत के पास तीन निजी लोगों ने लगाये हैं जिनके आधार पर श्री गहलौत ने श्री सिद्धारमैया के खिलाफ जांच करने की इजाजत दे दी है। कर्नाटक सरकार का पूरा मन्त्रिमंडल इस आदेश को असंवैधानिक बता रहा है औऱ कह रहा है कि राज्यपाल किसी निजी शिकायत के आधार पर जांच के आदेश तब तक नहीं दे सकते जब तक कि कोई अाधिकारिक जांच एजेंसी सम्बन्धित मामले में आरोपों की सत्यता की जांच न कर ले। इस मामले को लेकर कर्नाटक में काफी राजनैतिक रस्साकशी हो गई है।
प्रथम दृष्टया इतना ही कहा जा सकता है कि श्री सिद्धारमैया पर जमीन हथियाने सम्बन्धी जो आरोप लगाये गये हैं उनकी बाकायदा जांच किसी जांच एजेंसी द्वारा की जानी चाहिए थी और फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए था। सबसे गजब की बात यह है कि उन पर 2021 में मैसूरू में विकसित हो रही विजय नगर कालोनी में 14 आवासीय भूखंड आवंटित कराने के आऱोप हैं। ये भूखंड उनकी पत्नी के नाम आवंटित हुए हैं। मगर मैसूरू विकास निगम की शर्तों के अनुसार उन्हें ये भूखंड तब आवंटित किये गये जब विकसित होने वाली धरती पर उनकी पत्नी ने आवंटित भूखंडों की कुल जमीन के बदले दुगनी अविकसित जमीन निगम या प्राधिकरण को दे दी। सबसे मजेदार तथ्य यह है कि 14 भूखंड कर्नाटक के मैसूरू में 2021 में तब आवंटित किये गये जब राज्य में भाजपा की सरकार थी। श्री सिद्धारमैया की पत्नी ने कुल 3.16 एकड़ भूमि विकास निगम को दी थी। मगर इस जमीन के बारे में कहा जा रहा है कि मूल रूप से यह जमीन श्री सिद्धारमैया की पत्नी के भाई ने किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति से 2004 में खरीदी थी, बाद में इसे उन्होंने अपनी बहन (सिद्धारमैया की पत्नी) को भेंट में दे दी।
अतः मामला बहुत उलझा हुआ है। इस पर एक और गजब का संयोग यह है कि 2021 में जमीन के बदले जमीन स्कीम भाजपा सरकार ने शुरू की थी मगर 2023 में जब राज्य में कांग्रेस सरकार आयी तो उसने यह स्कीम रद्द कर दी। संशय पैदा होना स्वाभाविक है कि यदि स्कीम अच्छी थी तो इसे बन्द क्यों किया गया? और जब भाजपा सरकार ने यह स्कीम शुरू की थी तो इसका लाभ कितने ग्रामवासियों को हुआ। इस बारे में भी पड़ताल की जानी चाहिए कि क्या इस स्कीम के शुरू होने पर शहरों के धन्ना सेठों ने कहीं ग्रामीणों की जमीन को कौडि़यों के दाम तो नहीं खऱीदा। जहां तक राज्यपाल का सवाल है तो उन्हें केवल संवैधानिक प्रावधानों व परंपराओं का ध्यान ही रखना चाहिए और स्वयं को राजनैतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर रखना चाहिए। राज्यपाल यदि राजनीति में फंसते हैं तो वह स्थिति लोकतन्त्र के लिए बहुत घातक होती है। अतः कर्नाटक कांग्रेस संसदीय दल का एक मत से कहना कि राज्यपाल का दफ्तर चिट्ठियां डालने का 'पोस्ट बाक्स' नहीं हो सकता, विचारणीय है। यदि राज्यपाल प्राइवेट (निजी शिकायतों) के आधार पर जांच के आदेश देने लगेंगे तो इससे संवैधानिक संकट भी खड़ा हो सकता है। जिन तीन लोगों टी.जे. अब्राहम, स्नेहमई कृष्णा व प्रदीप कुमार ने राज्यपाल से शिकायत की है वे तीनों ही सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं।
इन तीनों ने विगत जुलाई महीने में राज्यपाल से शिकायत की थी कि 3.16 एकड़ जमीन अधिग्रहित करने में धांधली हुई है। यह जमीन श्री सिद्धारमैया के साले श्री बी.एम. मल्कार्जुन ने 2004 में अधिग्रहित की थी और 2010 में इसे अपनी बहन (सिद्धारमैया की पत्नी ) को भेंट कर दी। इसी जमीन के बदले विजयनगर में श्री सिद्धारमैया की पत्नी को 14 भूखंड आवंटित हुए। अब प्रश्न यह है कि सबसे पहले जांच इसी बात की होनी चाहिए कि 3.16 एकड़ जमीन किन्हीं अनुसूचित जाति के लोगों की थी। यह प्रश्न वास्तव में गंभीर है क्योंकि कई राज्यों में एेसे कानून हैं कि अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन को सामान्य वर्ग या किसी दूसरे वर्ग के लोगों द्वारा खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। अनुसूचित जाति के व्यक्ति की जमीन केवल अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही खरीद सकता है। एेसे कानून इस वर्ग के लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए ही बनाये गये हैं। अब यह भी कहा जा रहा है कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार राज्यपाल के जांच के आदेश को न्यायालय में चुनौती देगी परन्तु जब तक इस बारे में न्यायालय का कोई अन्तिम फैसला आयेगा तब तक इस मुद्दे पर राजनीति तो गर्म रहेगी ही और सिद्धारमैया भंवर में फंसे रहेंगे। मगर इस मुद्दे पर उनका इस्तीफा मांगना जल्दबाजी होगी क्योंकि कांग्रेस की सरकार पूरे मामले को न्यायालय में लेकर जाने पर अड़ी हुई है।