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सिद्धू और बाबा जी का ठुल्लू

राजनीति सम्भावनाओं का खेल है, राजनीति महत्वाकांक्षाओं का खेल भी है लेकिन इच्छाएं अतिमहत्वाकांक्षाओं में बदल जाएं तो लोग उन्हें पूरा करने के लिए मर्यादाएं भी भूल जाते हैं।

राजनीति सम्भावनाओं का खेल है, राजनीति महत्वाकांक्षाओं का खेल भी है लेकिन इच्छाएं अतिमहत्वाकांक्षाओं में बदल जाएं तो लोग उन्हें पूरा करने के लिए मर्यादाएं भी भूल जाते हैं। राजनीति में महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं। जो लोग राजनीति में सक्रिय हैं उनकी इच्छा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद की या फिर कोई मंत्री पद पा लेने की रहती है लेकिन इसके लिए रास्तों को निष्कंटक बनाना जरूरी होता है। 
यदि कोई व्यक्ति संगठन से इत्तर खुद को सबसे बड़ा मानने का भ्रम पाल ले तो फिर झटके ही लगते हैं। यही कुछ क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने नवजोत सिंह सिद्धू के साथ हो रहा है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ने उनसे दो विभाग छीनकर उन्हें नया मंत्रालय देकर झटका दे दिया है। नवजाेत सिंह सिद्धू का पालन-पोषण भाजपा में हुआ। अपनी मुहावरों से भरी लच्छेदार वाणी से वह सबको आकर्षित करते रहे हैं। कभी वह भाजपा के लिए बैटिंग करते थे, जमकर कांग्रेस को कोसते थे, देशवासियों को याद तो होगा ही। वह मंचों पर कहते रहे हैं-

‘‘कांग्रेसी जो 60 साल आपसे विश्वासघात करते रहे, उनका विश्वास कैसे करोगे। कांग्रेस मुन्नी से ज्यादा बदनाम है, अब तो खुद मुन्नी भी इन पर शर्मिंदा है।’’
वह नरेन्द्र मोदी का गुणगान करते रहे हैं।
कांग्रेस पर से विश्वास उठ गया है
कांग्रेस के 60 साल, मोदी साहब के 10 साल
चम्पा के 10 फूल, चमेली की एक कली
मूर्ख की सारी रात, चतुर की एक कड़ी।
यह सही है कि पंजाब में भ्रष्टाचार को लेकर उन्होंने बादल परिवार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था लेकिन शिरोमणि अकाली दल बादल एनडीए का पुराना सहयोगी है इसलिए नवजाेत सिंह सिद्धू की दाल नहीं गल रही थी। वर्ष 2014 में अमृतसर सीट से वित्तमंत्री रहे अरुण जेतली को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नवजाेत सिंह सिद्धू ने भाजपा छोड़ दी थी। पंजाब विधानसभा चुनावों से पहले उनका दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविन्द केजरीवाल के साथ भी सम्पर्क रहा। सिद्धू चाहते थे कि आप पार्टी उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करें। सिद्धू और केजरीवाल दोनों ही एक-दूसरे को तोलते रहे लेकिन बात नहीं बनी। अन्ततः नवजोत सिंह सिद्धू ने कांग्रेस पार्टी का दामन थामा था।
राजनीति में लोग दलबदल करते रहते हैं तो उनकी वाणी भी बदल जाती है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा का गुणगान करने वाले सिद्धू की वाणी भी बदल गई है। सिद्धू पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भाजपा में रहते कोसा करते थे-‘‘मजबूर आदमी ईमानदार नहीं हो सकता, मजबूर प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं हो सकता, मुझे तो शक है कि सरदार भी है या नहीं। वहीं सिद्धू कांग्रेस में शामिल होकर मनमोहन सिंह, राहुल गांधी की प्रशंसा में बोलने लगे। मनमोहन सिंह उन्हें सरदार भी लगने लगे और असरदार भी। सियासत कितनी सिद्धांतहीन हो चुकी है उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है नवजोत सिंह सिद्धू। राजनीतिज्ञ गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं, यह बात कोई नई नहीं है। 
अब उनकी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह से पटरी नहीं बैठ रही। भीतर का टकराव सामने आ चुका है। वैसे तो राजनीति में प्यार कब सिपहसालार आैर बादशाह बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन सिद्धू ने कैप्टन अमरिन्द्र सिंह की राह में ही कांटे बिछाने शुरू कर दिए। करतारपुर कॉरिडोर मामले में उन्होंने अपनी काफी जगहंसाई कराई और इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में उनका पाक सेना अध्यक्ष कमर बाजवा से गले मिलना भी लोगों को रास नहीं आया। जो लोग हमारी सेना के जवानों का खून बहाए उनसे गले मिलना राष्ट्र कैसे स्वीकार कर सकता था। करतारपुर कॉरिडोर शिलान्यास समारोह में पाकिस्तान जाकर उन्होंने इमरान खान के कसीदे पढ़े। 
ऐसा लगा जैसे खुद को भारत का प्रतिनिधि नहीं बल्कि उससे कहीं अधिक ऊपर एक चमत्कारिक व्यक्तित्व है। हालांकि उन्होंने और पंजाब सरकार ने उनके दौरे को निजी करार दिया था। सिद्धू ने भारत की जनभावनाओं से लगातार खिलवाड़ किया। पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद उनकी प्रतिक्रिया से हर कोई हैरान था। सिद्धू के बयान पर उनकी सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग इतनी जबर्दस्त हुई कि सोनी टीम को कपिल शर्मा शो से गैस्ट के तौर पर आ रहे सिद्धू को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा था। कैप्टन अमरिन्द्र सिंह नवजोत सिंह सिद्धू को अतिमहत्वाकांक्षी बताते रहे हैं।
पंजाब की सियासत में कैप्टन का रुतबा काफी ऊंचा है। अगर पंजाब के विधानसभा चुनावों में और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई है तो यह पार्टी की नहीं बल्कि कैप्टन अमरिन्द्र सिंह की जीत है। सिद्धू अपनी पत्नी के लिए चंडीगढ़ से​ टिकट मांग रहे थे। जब उनकी पत्नी को टिकट नहीं मिला तो उनके तेवर तलख हो गए। उन्होंने अपने विभागों में कामकाज पर ध्यान नहीं दिया और कैप्टन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। जो बातें उन्हें पार्टी हाईकमान के साथ उठानी चाहिए थीं वह उन्होंने मीडिया के सामने सार्वजनिक कर दीं। चुनाव प्रचार में उन्हें अलग-थलग रखा गया। आखिर कैप्टन ने उनका विभाग बदलकर उन्हें झटका तो दिया लेकिन उनके सीनियर नेता होने के रुतबे को कायम रखा है। 
उन्होंने सिद्धू को सम्भलने का मौका दिया है। दरअसल सिद्धू राहुल के करीबी माने जाते हैं। सिद्धू जानते हैं कि कैप्टन हाईकमान की इजाजत के बिना कोई कदम नहीं उठाएंगे। बिजली विभाग में रहकर सिद्धू कैसे आम लोगों से जुड़ते हैं, यह देखना होगा। कैप्टन ने सीधा संकेत दे दिया है कि सिद्धू की मनमर्जियां नहीं चलेंगी। सिद्धू ने कांग्रेस पार्टी के लिए बार-बार मुश्किलें खड़ी की हैं। हाईकमान को उस पर अंकुश लगाना ही चाहिए। कांग्रेस हाईकमान सिद्धू का मूल्यांकन कैसे करेगी, यह उस पर निर्भर करता है। सिद्धू नहीं सम्भले तो अन्ततः उन्हें बाबा जी का ठुल्लू ही ​मिलेगा।

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