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सिमटता जल, फैलती आग

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जल ही जीवन, जल सा जीवन, जल्दी ही जल जाओगे,
अगर न बची जल की बूंदें, कैसे प्यास बुझाओगे।
नाती-पोते खड़े रहेंगे जल, राशन की कतारों में,
पानी पर बिछेगी लाशें, लाखों और हजारों में।
रिश्ते-नाते पीछे होंगे, जल की होगी मारामारी,
रुपयों में भी जल न मिलेगा, जल की होगी पहरेदारी।
किसी कवि की यह पंक्तियां भीषण जल संकट से उत्पन्न होने वाली भयावह स्थिति की ओर इशारा कर रही हैं। पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व के लिए पानी मूलभूत आवश्यकता है। मध्यकाल में शुरूआती समाजों ने पानी के महत्व और इसकी जरूरत को समझा और उन्होंने इसके आसपास जीवन की योजना बनाई। सभ्यताओं का जन्म हुआ और पानी को महत्व देना कम हो गया। हमारी जिन्दगी का मुख्य केन्द्रबिन्दु पानी है लेकिन हम अपनी योजनाओं में इस केन्द्रबिन्दु पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर रहे जबकि हम तेजी से शहरी समाज में विक​िसत हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश की राजधानी यानी पहाड़ों की रानी शिमला में पहली बार जबर्दस्त जल संकट पैदा हो गया है। 10 दिन से लोगों को पानी नहीं मिल रहा। कई जगह पर्यटकों से कमरे खाली करवाए जा रहे हैं। लोग लम्बी कतारों में घंटों खड़े होकर पानी ले रहे हैं। इतने सालों में पानी को लेकर शिमला में कभी हाहाकार नहीं मचा तो अचानक यह जल संकट क्यों खड़ा हो गया। हालात इतने बदतर हैं कि हिमाचल हाईकोर्ट को खुद संज्ञान लेना पड़ा आैर उसने शिमला में सभी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी है।

प्रधानमंत्री कार्यालय शिमला की स्थिति को लेकर चिन्तित है और उसने भी हिमाचल सरकार से रिपोर्ट मांगी है। देश का दुर्भाग्य ही है कि एक तरफ हम जल संकट से जूझ रहे हैं दूसरी तरफ उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में जंगल में लगी आग से लोग त्रस्त हैं। जंगलों की आग बुझाने के लिए कितना पानी इस्तेमाल किया गया, इसका अन्दाजा लगाना कठिन नहीं। शिमला में पानी की सप्लाई 1875 में शुरू की गई थी, तब केवल 15-16 हजार की आबादी के लिए पानी उपलब्ध था। अब शिमला की जनसंख्या 1 करोड़ 75 लाख के लगभग है आैर पानी के स्रोतों का विस्तार आबादी के हिसाब से नहीं हो पाया। शिमला में पानी की सप्लाई के 5 मुख्य स्रोत हैं। यहां गुम्मा, गिरी, अश्विनी खड्ड, चुर्ता आैर सियोग से पानी आता है। इन सभी के पानी की क्षमता 65 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) है जबकि शिमला में पानी की मांग 45 एमएलडी है। इसके बावजूद शिमला को केवल 35 एमएलडी पानी की सप्लाई हो रही है। इसमें से कई एमएलडी पानी पम्पिंग और वितरण के दौरान बर्बाद हो जाता है। इस समय गिरी आैर गुम्मा जल योजना में पानी सूख चुका है। कम बारिश और गर्मी की वजह से पानी नहीं है।

शिमला में पानी के संकट की एक बड़ी वजह मौसम का बदलना है। पहले सर्दियों में कभी-कभी बारिश भी हो जाती थी लेकिन अब तो बर्फ का गिरना भी बेहद कम हो चुका है। इस कारण जल स्रोत तेजी से सूखते जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात शहर का अनियोजित विकास है। पहाड़ों को काट-काटकर भव्य होटल बना दिए गए। हर वर्ष शिमला में 40 लाख पर्यटक आते हैं जिन्हें पानी और बाकी सुविधाएं मुहैया कराना बड़ी म​ुश्किल बनता जा रहा है तो शहर के लोगों को पानी कैसे मिलेगा। शिमला का जल संकट देश के अन्य शहरों के लिए भी चेतावनी है। शिमला इन विकट स्थितियों से बच सकता था अगर प्रशासन, राजनीतिज्ञ और यहां के नागरिक समय रहते चेत गए होते। बीते 3 वर्षों के दौरान गर्मियों में पानी की उपलब्धता घटकर 3 करोड़ लीटर प्रतिदिन तक आ चुकी है, जबकि इस बार यह आंकड़ा करीब 2 करोड़ लीटर प्रतिदिन है। तेजी से बढ़ती आबादी, शहर का बेतरतीब विकास आैर जलग्रहण क्षेत्रों में भारी अति​क्रमण इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। जल संकट भारत में कोई नई समस्या नहीं। दिल्ली और बेंगलुरु समेत देश के कई शहरों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है। बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद होता है, वहीं जंगलों का लगातार सफाया हो रहा है। भारत उन फसलों की उपज का बड़ा निर्यातक है, जिनमें भारी मात्रा में पानी की जरूरत है आैर भूमि से पानी का दोहन करते हैं इसलिए भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। भारत में पानी राज्य का विषय है, राज्य सरकारों को जल संग्रहण, पानी को रिसाइ​िकल करने और इसकी शुद्धता को जांचने की सुविधाएं खुद विकसित करनी चाहिएं। अगर राज्य सरकार, प्रशासन आैर लोग अब भी नहीं चेते तो कई शहरों को जल संकट झेलना पड़ सकता है। दूसरी तरफ हर वर्ष गर्मियों के दिनों में उत्तराखंड, हिमाचल आैर जम्मू-कश्मीर के जंगलों में आग लगती है, मौतें भी होती हैं, इस बार भी हुईं लेकिन राज्य सरकारों ने इसे एक नियति मान लिया है। लाखों हैक्टेयर भूमि में जंगल राख हो जाते हैं।

उत्तराखंड की आग ने तो इस बार रिहायशी क्षेत्रों को भी चपेट में ले लिया था। जंगलों की आग के फैलने से सबसे बड़ा खतरा पर्यावरण और ग्लेशियर को लेकर है। जंगलों की आग की तपिश पहाड़ों पर मौजूद ग्लेशियर तक जा पहुंची तो काफी बुरा असर पड़ सकता है। चीड़ के जंगलों में लगी आग बुझाना आसान नहीं। जंगलों का इस तरह दहकना अक्सर प्राकृतिक होता है लेकिन कई बार मानवीय भूल भी आग लगाती है। पहले आग लगती थी तो हजारों ग्रामीण दौड़े चले आते थे लेकिन अब गांव बचे ही नहीं। लोगों का गांवों से पलायन हो चुका है। ऐसे में कौन आग को देखेगा। कभी उत्तराखंड के जंगल में देवदार, ब्रांज, बुरांश आैर काफल जैसे पेड़ों की बहुतायत थी। इमारती लकड़ी के लिए इन पेड़ों का कटान किया गया और चीड़ का फैलाव होता गया। लोग पहले जंगलों के करीब थे, अब उनसे यानी प्रकृति से दूर हो चुके हैं। आग की वजह से अधिकांश वनस्पति नष्ट हो रही है। राज्य सरकारें प्रकृति की ओर ध्यान दें अन्यथा प्रकृति तबाही मचा सकती है। पानी और आग दोनों को नजरंदाज करना काफी घातक सिद्ध हो सकता है।

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