बैंकों के एनपीए (नॉन परफोर्मिंग एसेट्स) यानी गैर-निष्पादित सम्पत्तियों का मसला काफी लम्बे अर्से से चला आ रहा है लेकिन अब यह मसला एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है और सरकार की चिन्ताएं काफी बढ़ चुकी हैं। वित्त मंत्रालय बार-बार कह रहा है कि एनपीए से निपटने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त अधिकार हैं, वहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर भी एनपीए समस्या से निपटने के लिए बार-बार आह्वान करते रहते हैं। वित्त मंत्रालय और आरबीआई दोनों ही बड़े चिन्तित हैं लेकिन इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकल रहा है। दरअसल या तो हम समस्या के वास्ताविक स्वरूप को ही नजरंदाज कर रहे हैं या फिर इस पर काबू पाने के लिए जिस राजनीतिक शक्ति की जरूरत है, उसे हम नहीं जुटा पा रहे।
अक्सर लोग मानकर चलते हैं कि एनपीए का बड़ा हिस्सा आम लोगों द्वारा लिए गए कर्ज का है, यह धारणा पूरी तरह गलत है जबकि वास्तविकता तो यह है कि एनपीए का सबसे बड़ा हिस्सा कार्पोरेट कर्ज का है। औद्योगिक विकास के नाम पर कार्पोरेट जगत को विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। नया कम्पनी कानून 2013 में लाया गया था, जिसने 60 साल पुराने कानून की जगह ली थी। इस कानून के मुताबिक नई कम्पनी शुरू करने के लिए एक-दो दिन का समय लगना चाहिए। पहले यह समय 10 दिन का था, जिसे मौजूदा समय में कम करके 4-5 दिनों तक लाया गया है। बैंक भी कर्ज देने की समय-सीमा का पालन करते हैं। कम्पनियां भी जल्द से जल्द कर्ज स्वीकृत करने के लिए बैंक अधिकारियों पर दबाव डालती हैं। ऐसी स्थिति में कम्पनियों की वित्तीय सेहत का परीक्षण नहीं होता। कम्पनियां डूबती हैं तो कार्पोरेट कर्ज एनपीए में तब्दील हो जाता है।
राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप भी बढ़ते एनपीए के लिए जिम्मेदार है। अनेक मामलों में भ्रष्टाचार भी बड़ा कारण है। राजनीतिक दलों के नेताओं के हस्तक्षेप से बैंक गलत कम्पनियों को कर्ज देने को मजबूर होते हैं। विजय माल्या को कर्ज देने में इतना लचीला रुख अपनाया गया कि उसकी डूबती कम्पनियों को भी उदारता से कर्ज दिया गया। जब वह भाग गया तो अब वसूली की कार्रवाई की जा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने वित्त वर्ष 2017-18 में 1.20 लाख करोड़ मूल्य के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया है। यह राशि वित्त वर्ष में इन बैंकों को हुए कुल घाटे की तुलना में 140 फीसदी अधिक है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक दशक में पहली बार सार्वजनिक बैंकों को बड़ी मात्रा में राशि बट्टे खाते में डालनी पड़ी और भारी घाटा उठाया है। सार्वजनिक बैंकों ने 2016-17 तक संचयी मुनाफा कमाया था लेकिन 2017-18 में उन्हें 85,370 करोड़ रुपए का एकीकृत घाटा हुआ। वित्त वर्ष 2016-17 में सार्वजनिक बैंकों ने 81,683 करोड़ रुपए मूल्य की गैर-निष्पादित सम्पत्तियों को बट्टे खाते में डाला था। किसी राशि को बट्टे खाते में डालने का मतलब होता है कि बैंक उसके बदले में अपनी आय से प्रावधान कर देता है। इसी तरह वह एनपीए बैलेंस शीट का हिस्सा नहीं रह जाता। आरबीआई के एक पूर्व डिप्टी गवर्नर के.सी. चक्रवर्ती और कुछ अन्य वित्त विशेषज्ञ बैंक लोन को बट्टे खाते में डालने की प्रक्रिया को घोटाला करार देते हैं। उनका कहना है कि टेक्नीकल राईट ऑफ जैसी कोई चीज नहीं होती। यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसे बिना किसी नीति के अन्जाम दिया जाता है। दरअसल एनपीए के अधिकांश मामलों में समाज के प्रतिष्ठित वर्ग, जिनमें राजनीतिज्ञ या उनके परिवार शामिल हैं, लिप्त हैं।
बड़े लोग बैंक लोन तो लेते हैं लेकिन चुकाते नहीं। बैंक उन पर प्रभावी कार्रवाई भी नहीं कर पाते। बैंक ऋण न चुकाने वालों में नामी-गिरामी कम्पनियां भी शामिल हैं। बैंकों के फंसे कर्ज को बट्टे खाते में डालने से क्रेडिट रिस्क मैनेजमेंट का पूरा ताना-बाना ही तबाह हो जाता है। बैंक जनता के पैसे को बट्टे खाते में डालते हैं तो यह अपने आप में घोटाला ही है। अब तो देश का सबसे बड़ा बैंक एसबीआई कर्ज को ठण्डे बस्ते में डालने वाले बैंकों की सूची में सबसे ऊपर पहुंच गया है। एनपीए का खामियाजा अब हर ग्राहक को ही भुगतना पड़ता है। एनपीए न सिर्फ बैंकों के लिए बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए नुक्सानदेह है। इसके चलते बैंकों के पास कारोबारी पूंजी कम हो जाती है, जिससे कई अच्छे प्रस्तावों के लिए भी कर्ज देने को उनके पास पर्याप्त धन नहीं होता। यही नहीं डूबी हुई रकम की भरपाई के लिए वे नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ाते हैं, िजसका बोझ आम आदमी पर पड़ता है। इससे समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी परियोजनाएं लागू करने में धन की कमी आड़े आती है। बैंक चरमरा रहे हैं, बैंकों के विलय का रास्ता निकाला जा रहा है। अर्थव्यवस्था में संकुचन आता है तो निवेश का रिटर्न कम हो जाता है। कम्पनियां लोन नहीं चुका पातीं। कम्पनियों के पास पैसे नहीं रहेंगे तो निवेश कहां से करेंगे। कर्ज डूब रहा है, बैंक बदहाल हैं। पता नहीं यह स्थिति कैसे और कब सुधरेगी?