जम्मू-कश्मीर में ईद से पहले आतंक ने अपना फन फैलाया और अपहृत सैनिक औरंजगेब और श्रीनगर के वरिष्ठ पत्रकार और राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की आतंकवादियों ने गोलियां मारकर हत्या कर दी। एक सम्पादक की हत्या कश्मीर की विचारशील आवाजों को दबाने की कोशिश है। यह हत्या केवल एक पत्रकार की नहीं बल्कि कश्मीर में शुरू की गई शांति प्रक्रिया की हत्या है। शुजात बुखारी के शरीर में दागी गई गोलियां अमन और लोकतंत्र के समर्थकों पर भी चली है। शुजात बुखारी साहसी और निर्भीक पत्रकार थे और कश्मीर घाटी में शांति बहाल करने के प्रयासों में जुटे थे। तीन माह पहले ही राइजिंग कश्मीर के 10 वर्ष पूरे होने पर उन्होंने एक सम्पादकीय लिखा था। इसमें उन्होंने पत्रकारिता की चुनौतियों का जिक्र किया था और लिखा था ‘‘कश्मीर में किसी भी पत्रकारिता के लिए पहली चुनौती खुद को जिन्दा रखना और सुरक्षित रहना है। उन्होंने कश्मीर घाटी में शांति के लिए कई कॉन्फ्रैंस आयोजित की थीं। वह पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए ट्रैक-2 प्रक्रिया का हिस्सा भी थे। वह मानवाधिकारों के प्रबल समर्थक रहे। सत्य पथ पर चलना अग्निपथ पर चलने के समान होता है। पत्रकारिता बहुत जोखिमपूर्ण पेशा हो चुका है।
पत्रकारिता में वैचारिक मतभेद बहस का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं लेकिन शुजात बुखारी कश्मीर में अमन बहाल करने के लिए ही लड़ रहे थे। उन्होंने गर्व के साथ पत्रकारिता की। पत्रकारिता में कौन दुश्मन है आैर कौन दोस्त, इसका अनुमान लगाना कठिन है। मैं स्वयं इस पीड़ा को झेल चुका हूं इसलिए शुजात बुखारी की हत्या ने मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया है। मुझे याद आ रहे हैं परम पूज्य पितामाह लाला जगत नारायण जी आैर परम पूज्य पिताश्री रमेश चन्द्र जी जिन्होंने पंजाब में आतंकवाद से अपनी कलम से टक्कर ली। दोनों को ही राष्ट्रविरोधी ताकतों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। पंजाब में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ तो लालाजी अपनी लेखनी से आतंकवाद और पंजाब को तोड़ने की साजिशों के विरुद्ध लगातार लेखन कर रहे थे। इसी तरह परम पूज्य पिताश्री रमेश चन्द्र जी ने भी आतंकवाद के विरुद्ध लेखन किया। दोनों का ही कहना था ‘‘सत्य पथ पर चलने के रास्ते में कांटे चुभते ही हैं अतः वीर वही है जो न सत्मार्ग को छोड़े और न ही कभी मोहासिक्त हो, दूसरे तुम्हारा मूल्यांकन करते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण यह है कि तुम स्वयं को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं।’’ उन्होंने देश की एकता, अखंडता और पंजाब में भाईचारे को कायम रखने के लिए आतंकवादियों का प्रबल विरोध किया। धमकियों की परवाह न करते हुए उनकी कलम चलती रही, अन्ततः उनको अपना बलिदान देना पड़ा। दादाजी की हत्या के बाद पिताश्री को जान से मार डालने की धमकियां मिल रही थीं, पूरा परिवार स्थिति की गम्भीरता को जानता था। इस बात की आशंका पहले से ही थी कि आतंकवादी कभी उन पर हमला कर सकते हैं।
धमकियों की परवाह न करते हुए पिताश्री ने उस कार्यक्रम में शामिल होने का निर्णय किया जिसमें पंजाब में साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने की आवाज बुलन्द की थी। उसी कार्यक्रम से लौटते समय उन्हें जालन्धर में गोलियों से निशाना बना डाला गया। एक-एक दृश्य मुझे याद है। आतंकवाद का वह दौर, सीमापार की साजिशों, विफल होता प्रशासन, बिकती प्रतिबद्धताएं और लगातार मिलती धमकियों के बीच मेरे पिता ने शहादत का मार्ग स्वयं चुन लिया था। पितामाह लाला जगत नारायण जी ने 9 सितम्बर 1981 आैर पूज्य पिताश्री रमेश चन्द्र जी ने 12 मई 1984 को बलिदान दिया। दोनों की शहादत के समय प्रिय चाचा विजय कुमार बच्चों सहित मौजूद नहीं थे। उनका पिरवार के साथ बाहर जाना इत्तेफाक ही रहा। शायद उन्होंने आतंकी हमलों के भय से खुद को बचाने का मार्ग ढूंढ लिया था। बाद में हमारे परिवार के साथ जो कुछ हुआ उसकी पीड़ा मैं ही जानता हूं। भावनाओं की बयार में हमारे शेयर भी हमसे ले लिए गए और धीरे-धीरे हमसे बहुत कुछ छीना गया। मेरी मां और परिवार आज तक परिवार के भीतर का दंश झेल रहे हैं। मैं व्यक्तिगत पीड़ा का ज्यादा उल्लेख नहीं करना चाहता। देश की खातिर जान देने वालों के परिवारों की पीड़ा को उजागर करना ही मेरा मकसद है। काश मेरे पिताश्री की सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता होती तो शायद उनकी जान नहीं जाती।
पंजाब की ही तरह जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के चलते लगातार जवानों और प्रबुद्ध नागरिकों के साथ-साथ अनेक निर्दोष लोगों को शहादतें देनी पड़ी हैं। 14 सितम्बर 1989 के जम्मू-कश्मीर भाजपा के उपाध्यक्ष टिक्कूलाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ-साथ वीभत्स होता गया। श्री टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई, फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केन्द्र के निदेशक लासा कौल की हत्या के साथ आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था। फिर इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और निशाने पर आए कश्मीरी पंडित। देखते ही देखते घाटी कश्मीरी पंडिताें से खाली हो गई। आज फिर घाटी के हालात 80 आैर 90 के दशक से कहीं ज्यादा खतरनाक हो चुके हैं। आतंकियों को मार गिराने वाले जवानों को घरों में जाकर मारा जा रहा है। बम धमाकों की आवाजों से घाटी दहल चुकी है। शुजात बुखारी की हत्या ऐसे समय में हुई जब इस बात पर बहस चल रही थी कि रमजान के बाद संघर्षविराम की अवधि बढ़ाई जाए या नहीं। कश्मीर में भविष्य की राह कौन सी हो लेकिन अब राह तलाशना मुश्किल भरा हो गया है। संघर्षविराम बढ़ाने का कोई आैचित्य नजर नहीं आ रहा। एकमात्र समाधान सेना को कार्रवाई की खुली छूट दी जाए और आतंकवाद का सफाया किया जाए। सरकार और देशवासियों की जिम्मेदारी है कि वह शहीदों के परिवारों की हिफाजत का भी दायित्व सम्भालें। राष्ट्रवादी पत्रकारिता करने वाले लोगों और उनके परिवारों की सुरक्षा व्यवस्था भी पुख्ता होनी चाहिए। राष्ट्र को इस बात का इंतजार है कि जवानों की निर्मम हत्याएं और सम्पादक की हत्या करने वाले कब दंडित किए जाएंगे। हमें कश्मीर बचाने की शपथ लेनी होगी। पंजाब केसरी शुजात बुखारी को श्रद्धांजलि अर्पित करता है और हमारी संवेदनाएं शोक संतप्त पिरवार के साथ हैं।