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छोटी सरकार ने किया शर्मसार

दिल्ली की ‘‘छोटी सरकार’’ का मुखिया यानि महापौर और उपमहापौर चुने जाने से पहले हुए बवाल ने लोकतंत्र को शर्मसार करके रख दिया है।

दिल्ली की ‘‘छोटी सरकार’’ का मुखिया यानि महापौर और उपमहापौर चुने जाने से पहले हुए बवाल ने लोकतंत्र को शर्मसार करके रख दिया है। निर्वाचित​ पार्षदों के शपथ ग्रहण करने से पहले ही आप और भाजपा पार्षदों में हाथापाई, धक्का-मुक्की को पूरे देश ने देखा। किसी ने कुर्सी उठाई, किसी ने पर्दे फैंके, कुछ पार्षद आसन से गिर गए, एक-दूसरे को घसीटा गया। जो कुछ भी हुआ उससे सारी मर्यादाएं तार-तार हो गईं। सिविक सैंटर में यह सब करने वाले किसी गली या मोहल्ले में बात-बात पर बिगड़ने वाले तत्व नहीं थे, बल्कि मिनी भारत यानि दिल्ली में रहने वाली जनता के वोट से चुने गए पार्षद थे। दिल्ली नगर निगम के सदन में उनका पहला दिन था और पार्षदों ने जिस तरह से आचरण का परिचय दिया है उससे जनता यह सवाल उठाने को विवश हुई है कि जो लोग शांति से शपथ नहीं ले सकते वे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कैसे कर पाएंगे। दिल्ली नगर निगम एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक संस्था है। जिस पर दिल्ली की वे तमाम जिम्मेदारियां हैं जिनका सीधा संबंध जनता से है। वैसे तो देशवासी लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद में भी ऐसे दृश्य देख चुके हैं। लेकिन दिल्ली नगर निगम के इतिहास में शपथ ग्रहण के दिन ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया।
1958 में संसद में कानून के माध्यम से वीएनसी की तर्ज पर ​दिल्ली नगर​ निगम की स्थापना की गई थी। तब पुरानी दिल्ली के टाउन हाल में इसका मुख्यालय बनाया गया था। दिल्ली की पहली महापौर अरुणा आसिफ अली बनी थीं। तब दिल्ली नगर निगम में जनसेवा को समर्पित पार्षद मौजूद रहते थे। नगर निगम ने ही विजय कुमार मल्होत्रा, मदन लाल खुराना, केदारनाथ साहनी, जगप्रवेश चन्द्र और अन्य कई दिग्गज नेता इस राष्ट्र को ​दिए हैं। लेकिन 2023 तक आते-आते राजनीति में विकृतियां आती गईं। जनप्रतिनिधि न केवल लोगों के लिए बल्कि अन्य संस्थाओं के लिए आदर्श होने के नाते जनता को उनसे बहुत उम्मीदें होती हैं। जनप्रतिनिधियों को सदन के भीतर तथा बाहर शालीनता के साथ उच्चतम मापदंडों का पालन करना होता है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने के नाते उनका एक प्रतिष्ठित दर्जा होता है। इसलिए उन्हें अपने कार्यों में अनुशासन और लोकतंत्र के श्रेष्ठ प्रतिमानों को बनाए रखना चाहिए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हाल ही के वर्षों में जनप्रतिनिधियों के अशोभनीय व्यवहार की घटनाएं बढ़ी हैं। जिससे संस्थाओं की छवि धूमिल हुई है। आज जनप्रतिनिधि सदन में जनता की आवाज बनने की बजाए अपना ही ढिंढोरा पीटने में लग जाते हैं। 
सदन में वे संभ्रांत जनप्रतिनिधि न होकर बाहुबलियों का रूप  धारण कर लेते हैं। उनके व्यवहार के चलते सदन की तस्वीर ही बदरंग नजर आती है। दिल्ली नगर निगम में विवाद उपराज्यपाल द्वारा मनोनीत 10 पार्षदों को पहले शपथ दिलवाने पर शुरू हुआ। इस पर आम आदमी पार्टी के पार्षदों ने आपत्ति जताते हुए कहा कि पहले चुने हुए पार्षदों का शपथ ग्रहण शुरू होना चाहिए। इस तरह पहले तो सदन में नारेबाजी हुई, फिर हंगामा मारपीट में तब्दील हो गया। मनोनीत पार्षदों को पहले शपथ दिलवाने का मुद्दा कोई बड़ा नहीं था लेकिन इस पर शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त किया जा सकता था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। जहां तक मनोनीत पार्षदों के वोट डालने का सवाल है, यह एक तकनीकी मुद्दा है। आप पार्टी को मनोनीत पार्षदों के भाजपा के पक्ष में वोट डालने की आशंका है। इससे उसके राजनीतिक समीकरण बिगड़ सकते हैं। स्टैंडिंग कमेटी मेम्बर और जोन चेयरमैन के चुनाव में वोट डाल सकते हैं। जोनल इलेक्शन में भी इनका असर पड़ सकता है। जहां तक तकनीकी मुद्दों का सवाल है, कोई भी राजनीतिक दल अदालत जाने को स्वतंत्र है। अगर बहुमत की दृष्टि से देखा जाए तो महापौर आम आदमी पार्टी का बनना चाहिए। क्योंकि नगर निगम में दल-बदल कानून लागू नहीं होता। इसलिए क्रॉस वोटिंग का डर बना हुआ है। 
आम आदमी पार्टी ने पहले ही यह आरोप लगाना शुरू कर दिया था कि भाजपा उनका महापौर न बनने देने के लिए षड्यंत्र रच रही है। आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच दोनों ही पक्ष पूरी तैयारी के साथ आए थे। आज के दौर में दल-बदल, तोड़फोड़ होना आम बात है। जनप्रतिनिधियों का उद्देश्य जनसेवा नहीं बल्कि जीत हासिल कर विशुद्ध व्यवसाय करना है। सियासत आज पूरी तरह से धंधा बन चुकी है और इसलिए बाजार खुला हुआ है। घोड़ों की खरीद-फरोख्त के लिए व्यापारी बैठे हुए हैं। धन कमाने वाले महंगी कीमत पर बिकने को तैयार रहते हैं। राजनीति सिद्धांतविहीन हो चुकी है। इसलिए जनता के बीच जनप्रतिनिधियों की साख काफी घट चुकी है। सवाल यह नहीं कि महापौर और उपमहापौर कौन बनता है। हारती है तो सिर्फ जनता। दिल्ली नगर निगम के सदन में हंगामें के दृश्य देख जनता की उम्मीदें जमीन सूंघने लगी है और सवाल उठ रहे हैं कि कौन बनाएगा दिल्ली को पेरिस, कौन हटवाएगा कूड़े के ढेर। कौन स्थापित करेगा दिल्ली की बढ़ती आबादी को झेलने वाला बुनियादी ढांचा। प्रदूषित हो चुके सियासी वातावरण में कौन बनाएगा राजधानी को हरा-भरा।

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