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सोशल मीडिया : झूठ को अलग करने की चुनौती

सोशल मीडिया की विश्वसनीयता दाव पर है। मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया ने हमारी जीवन शैली को बदल कर रख दिया है। आज हम सब तरफ से घिरे हुए हैं। सोशल साइट्स ने हमें एक तरह से अपने वश में कर लिया है।

सोशल मीडिया की विश्वसनीयता दाव पर है। मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया ने हमारी जीवन शैली को बदल कर रख दिया है। आज हम सब तरफ से घिरे हुए हैं। सोशल साइट्स ने हमें एक तरह से अपने वश में कर लिया है। फिल्म उद्योग की पुरानी कहावत है जो बिकता है वही दिखाया जाता है। सोशल मीडिया पर भी यही कहावत पूरी तरह फिट होती दिखाई दे रही है कि वही परोसा जाता है जिसे लोग पसंद करते हैं। युवा वर्ग के छात्र-छात्राएं तो 16-16 घंटे इन साइट्स पर आनलाइन रहते हैं। 
मोबाइल फोन, इंटरनेट और सोशल साइट्स ने एक अलग दुनिया सृजित करके रख दी है। एक ऐसे लोगों की दुनिया ​जिनसे  हम कभी मिले नहीं फिर भी दुनिया के किसी कौने में बैठा शख्स हमारा दोस्त बन जाता है, जबकि हमने अपनी वास्तविक ​दुनिया के बारे में कुछ खबर नहीं होती। हमारे पास इतना समय ही नहीं होता कि आसपास रहने वाले लोगों के सुख-दुःख में शरीक हों। युवा वर्ग में खुद को बिंदास और हाईप्रोफाइल दिखाने की होड़ मची हुई है तो दूसरी तरफ खास झुकाव वाली राजनीतिक सोच, उपभोक्ताओं को प्रभावित करने या बस यूं ही जनता के एक हिस्से को ट्रोल करना, फेक न्यूज आइटम कई उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बनाए जाते हैं। ऐसा हर कहीं है, हो सकता है कि आप भी इनमें से किसी  एक का शिकार हो चुके हों। 
वेब दुनिया के लोकतांत्रिक स्वरूप और खुलेपन तक हर ​किसी की पहुंच बना दी है। नाममात्र की सेंसरशिप के साथ जो कंटेंट साझा ​किया जा रहा है, उसने सामाजिक  मर्यादाओं और शालीनता की सीमाएं तोड़ दी हैं। आकलन बताते हैं कि 15 करोड़ भारतीय सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। 70 फीसदी से अधिक पत्रकार सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का इस्तेमाल खबरों के स्रोत के तौर पर करते हैं। सोशल मीडिया सभी के लिए सूचना हासिल करने और साझा करने का पसंदीदा स्थल बन चुका है। आभासी नागरिकों की इस विशाल  दुनिया के नेटवर्क का इस्तेमाल फेक न्यूज के लिए  भी किया  गया और दुष्प्रचार के लिए भी। 
तर्क और तथ्यों की बजाय भावनाओं को उभारने के लिए झूठ परोसा जा रहा है। सबसे अहम सवाल तो यह है कि सच से झूठ को अलग कैसे किया जाए या झूठ का मंथन कर सच कैसे निकाला जाए। समस्या बहुत गम्भीर हो चुकी है। सोशल मीडिया पूरी तरह से अनसोशल हो चका है। बच्चा चोरी की अफवाहें सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैलती है और लोग झूठ को सच मानकर तुरन्त प्रतिक्रिया कर देते हैं। इसके चलते देशभर में कई लोगों की हत्याएं हो चुकी हैं। मॉब लिंचिंग की घटनाएं तो लगातार बढ़ रही हैं। अब तो सोशल मीडिया पर सैक्स के लिए बुकिंग, नशीले पदार्थों की ​बिक्री और यहां तक कि हथियारों की ब्रिकी के स्रोत उपलब्ध हैं।
सोशल मीडिया के खतरनाक रूप का अहसास होने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को इसका गलत इस्तेमाल रोकने के ​लिए गाइड लाइन्स बनाने का आदेश दिया है। शीर्ष अदालत के जस्टिस दीपक कुमार ने बेरोकटोक ऑनलाइन कंटेंट पर आपत्ति जताते हुए कहा कि थाेड़ी सी मदद लेकर डार्क वेब पर महज 5 मिनट में एके 47 खरीदी जा सकती है। यह सब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। इससे आतंकवाद का विस्तार  हो सकता है। यह हकीकत है कि सोशल साइट्स पर हर चीज ग्रहण करने योग्य नहीं। आभासी संसार में लोगों का सामाजिक होना अच्छी बात है लेकिन खुद को इसका गुलाम बनाना मानवीय जीवन के लिए अच्छा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अब इस पर रोक लगाने का समय आ गया है। सवाल लोगों की निजता का भी है। 
आज सोशल मीडिया के मंच पर लोगों का ​चरित्र हनन किया जा रहा है। बलात्कार और हत्याओं तक के वीडियो लाइव सांझा किए जा रहे हैं। यद्यपि सोशल साइट्स सच का पता लगाने के लिए कुछ स्वतंत्र संस्थाओं की मदद ले रही हैं जैसे फैक्ट चेक, ओआरजी, एबीसी न्यूज पॉलिटीफैक्ट आदि लेकिन आज की दुनिया में तथ्यों की वास्तविकता का पता लगाने की फुर्सत कहां है। सोशल साइट्स ने जातिवाद को बढ़ावा भी दिया है। किसी धर्म​ विशेष से जुड़े प्लेटफार्म पर किसी दूसरे के प्रति ऐसे शब्द बोले जाते हैं कि स्थिति दंगों तक पहुंच जाती है। नैट से जुड़ी नई पीढ़ी अपनी उम्र से पहले परिपक्व हो चुकी है तो अभिभावकों की यह जिम्मेदारी है कि इस बात पर नजर रखें कि वे क्या पढ़ रहे हैं, क्या शेयर कर रहे हैं। खुद भी ऐसा कुछ नहीं करें जिससे सामाजिक ताना-बाना टूटे। समाज को समाज के प्रति कर्त्तव्य निभाना होगा और सोशल मीडिया में स्वच्छता की कवायद में योगदान देना होगा।

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