देश की शीर्ष अदालत इन दिनों समलैंगिकता, व्यभिचार या विवाह में बेवफाई जैसे मुद्दों पर विचार कर रही है। कोर्ट रूम में तर्क युद्ध हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि समलैंगिकता अपराध है या नहीं और उसे यह भी तय करना है कि व्यभिचार के दायरे में महिलाओं को भी लाया जाए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट के आने वाले फैसले काफी ऐतिहासिक होंगे। आईपीसी का गठन 1860 में हुआ था तब से लेकर आज तक समाज में अनगिनत परिवर्तन आ चुके हैं। अपराधों की शैली में बहुत परिवर्तन आ चुका है वहीं सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है। सामाजिक सम्बन्ध भी व्यक्ति प्रधान हो गए हैं। महिलाएं पहले से कहीं अधिक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हो गई हैं। वैवाहिक जोड़ों की परम्परागत भूमिकाओं में भी बदलाव आया है। विवाह संस्था की बजाय सम्बन्ध बन गए हैं इसलिए न तो लिव इन रिलेशनशिप पर किसी को आपत्ति है और न ही तलाक या तलाक के बाद फिर से शादी पर। वक्त और आवश्यकता के अनुसार कानूनों में संशोधन, समीक्षा और पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें निरस्त करने की गुंजाइश भी होनी ही चाहिए। इन सब मामलों के बीच समाज की सबसे बड़ी कुरीति दहेज प्रथा का भी मुद्दा उठा। भारत में दहेज कानूनों का जमकर दुरुपयोग हुआ और हो भी रहा है। अदालतों में दहेज और घरेलू हिंसा के लाखों मामले लम्बित पड़े हैं। यह बात सर्वेक्षणों में कई बार सामने भी आ चुकी है कि दहेज के जितने मुकद्दमे दर्ज कराए जाते हैं उनमें 5 से 10 फीसदी को छोड़कर सभी फर्जी होते हैं।
दहेज की सामाजिक कुरीति को खत्म करने के लिए अभियान भी चलाए गए लेकिन रूढ़िवादी संस्कारों और परम्पराओं के चलते यह समस्या बहुत बड़ा स्वरूप ले चुकी है। लाखों के पंडाल, करोड़ों की शादियां। बड़े वाणिज्यिक घरानों के परिवारों के सदस्यों की शादियों की चमक-दमक ने ऐसा ग्लैमर पैदा कर दिया है कि हर कोई ऐसी शादियों की लालसा रखने लगा है। शादी का बजट भले ही कम हो लेकिन अनुकरण भव्य शादियों का ही किया जाता है। लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए शादियों पर बेतहाशा खर्च करने लगे हैं। कुछ समाज ऐसे भी हैं जो साधारण ढंग से शादियां कर अनुकरणीय उदाहरण स्थापित कर रहे हैं लेकिन ऐसे समाज काफी कम हैं। दहेज कानून की धारा 498-ए का बहुत दुरुपयोग हुआ। झूठी शिकायतों के नतीजे काफी खतरनाक निकले। इस धारा के तहत पति के उन रिश्तेदारों को भी जेल की हवा खानी पड़ी, जिनका उनके रिश्ते में कोई हस्तक्षेप ही नहीं था। कई मिसालें मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे मामलों में कभी-कभी तो ट्रायल खत्म होने पर भी सच को जान पाना कठिन हो जाता है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498-ए को नरम किया और दहेज कानून में किसी की भी तुरन्त गिरफ्तारी से रोका गया। दरअसल दहेज विरोधी कानून उस दौर की उपज थी जब बहुओं को ससुराल में स्टोव से जिन्दा जलाने की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई थी। उस समय यही पुकार थी कि ऐसे सख्त कानून बनाए जाएं कि बहुओं को जिन्दा जलाने का सिलसिला रोका जा सके। जल्दबाजी में बनाए गए कानून का हश्र जो होता था वह हुआ।
सुप्रीम कोर्ट ने अब केन्द्र सरकार से कहा है कि वह शादी में होने वाले खर्च को बताना अनिवार्य बनाने के बारे में सोचे। लड़की और लड़के वालों को शादी के खर्च को घोषित करने की अनिवार्यता पर विचार करने को कहा गया है। शीर्ष अदालत का कहना है कि केन्द्र सरकार कानून का परीक्षण करे और जरूरी बदलाव के बारे में विचार करे। इसके तहत दोनों परिवारों के लिए यह जरूरी किया जाना चाहिए कि वह शादी के खर्च के बारे में विवाह अधिकारी के सामने घोषणा करें। कोर्ट का कहना है कि इस तरह की पहल से दहेज की मांग को लेकर जुड़े फर्जी मामलों में कमी आएगी। कोर्ट ने कहा है कि शादी के खर्च का कुछ हिस्सा महिला के बैंक अकाउंट में रखा जा सकता है ताकि उसकी भविष्य की जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसे मामलों की संख्या काफी है जिसमें लड़की वालों की तरफ से पति और उसके परिवार पर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए जाते हैं और वह पक्ष उनके आरोपों को निराधार बताता है। फिलहाल कोर्ट ने मुकद्दमों का बोझ कम करने के लिए केन्द्र को यह परामर्श दिया है। शीर्ष अदालत का सुझाव अच्छा है।
शादियों पर जितना धन आजकल खर्च हो रहा है उसे धन और अन्न की बर्बादी ही माना जाना चाहिए। आज शिक्षित और मध्यमवर्गीय परिवार भी ऐसा ही करने लगे हैं। भारत युवाओं का देश है फिर भी वे दहेज लेकर शादियां करते हैं। वैवाहिक सम्बन्धों की पवित्रता तभी कायम रह सकेगी जब वह लालच और लोभ से मुक्त हों, इसके लिए समाज को बदलना बहुत जरूरी है। मैं युवाओं को आवाज दे रहा हूं कि वे जीवन में पश्चिम का अनुकरण तो करते हैं लेकिन उसकी अच्छी बातों को ग्रहण नहीं कर रहे। युवाओं को दहेज मुक्त शादियों का अनुकरण करना चाहिए।
‘‘कभी न तुमको मिलेगी मंजिल,
सदा अंधेरों में रहोगे।
अगर तुम बचाना चाहते हो मुल्क,
तो सारे रस्मो-रिवाज बदलो।
निजामे-नौ से हर इक सतह पर,
समाज बदलो-समाज बदलो।’’