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संकट का समाधान जरूरी

कोरोना नाम की महामारी ने हर किसी को प्रभावित किया। क्या आर्थिक और क्या सामाजिक, पूरी दुनिया हर मोर्चे पर प्रभावित हुई है।

कोरोना नाम की महामारी ने हर किसी को प्रभावित किया। क्या आर्थिक और क्या सामाजिक, पूरी दुनिया हर मोर्चे पर प्रभावित हुई है। जहां तक भारत की बात है तो हम इससे जूझ रहे हैं। यह बात अलग है कि हमारे लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए, अपनी अभिव्यक्ति के लिए हर कोई स्वतंत्र है। किसान आंदोलन को लेकर बड़ा कुछ उभर रहा है लेकिन सरकार की ओर से पीएम मोदी ने अपनी बात सहजता से रखी है। विपक्ष इसीलिए सहजता के भाव को देखकर आक्रामक होता रहा।  हाल ही में संसद का लघुकालिक सत्र समाप्त हुआ है जिसे लेकर संसदीय प्रणाली की शुचिता और पारदर्शिता से संबन्धित कई सवाल खड़े हो रहे हैं। सही मायनों में देखें तो भारत का लोकतन्त्र ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें सभी राजनीतिक दल अपने हिसाब से उसका गुणगान कर रहे हैं।
 भारत की संसदीय प्रणाली इतनी मजबूत बना कर हमारे पुरखे हमें सौंप कर गये हैं जिसमें संसद की सर्वोच्चता को संवैधानिक कसौटी पर कसते हुए निरापद माना जा सकता है। यह संसद ही है जिसके पास संविधान में संशोधन का अधिकार है जिसे  आम लोगों की जिन्दगी में परिवर्तन लाने का औजार भी कहा जाता है मगर संसदीय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू इसका द्विसदनीय होना है जिसमें राज्यसभा को उच्च सदन इसलिए कहा गया क्योंकि यह विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है और राज्यों में जो राजनीतिक समीकरण होते हैं उनका अक्स इस सदन में उभरता है।  इसे सतत् चलने वाला सदन भी इसीलिए बनाया गया जिससे ‘राज्यों के संघ’ भारत की लोकतान्त्रिक धारा सदैव प्रवाहित रहे। बेशक लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष ही होता है परन्तु इसके पीछे मकसद एेसी लोकप्रिय सरकार के गठन का है जिसे बहुमत प्राप्त हो। यह बहुमत समयानुरूप जनभावनाओं के आवेश का भी हो सकता है। अतः राज्यसभा को सतत् चलने वाला सदन बना कर हमारे पुरखों ने एेसा सन्तुलन कायम किया जिससे जनभावनाओं के आवेश की तार्किक समीक्षा की जा सके और यह सदन तथ्य परक दृष्टि अपना कर लोकसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक की वैज्ञानिक विवेचना कर सके (केवल वित्तीय विधेयकों को छोड़ कर ) अतः भारत की संसदीय प्रणाली का आधारभूत सिद्धान्त शुरू से ही एक पक्षीय नहीं रहा और इसमें असहमति या मत भिन्नता को इसका अन्तरंग हिस्सा माना गया, परन्तु हमने देखा है कि किस प्रकार संसद द्वारा बनाये गये कानून भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका ने कई बार अवैध या असंवैधानिक घोषित किये हैं।
1969 में 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद संविधान संशोधन करके इन्हें कानून बनाया गया और इसके लिए सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त तक किया गया,  परन्तु इसका सम्बन्ध सीधे  समाज में गैरबराबरी या आर्थिक विषमता समाप्त करने से था। न्यायपालिका और संसद के बीच सर्वोच्चता को लेकर भी तब एक सार्थक बहस छिड़ी थी जिसका परिणाम यही निकला था कि लोकतन्त्र में संविधान के आधारभूत ढांचे के दायरे मंे संसद ही सर्वोच्च है क्योंकि यह उन लोगों द्वारा चुनी जाती है जिन्होंने संविधान को स्वीकार किया है और इसकी सत्ता को भारतीय लोकतन्त्र का आधार माना है। यह संविधान ही संसद को वे अधिकार देता है जिनकी मार्फत यह संविधान में संशोधन कर सकती है मगर निर्दिष्ट संसदीय नियमावली के तहत ही वह ऐसा कर सकती है। इसी वजह से कृषि विधेयकों को कांग्रेस पार्टी के केरल से सांसद टीएन प्रथापन ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी है।
 कभी देश के केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त पद पर सर्वोच्च न्यायालय ने हुई नियुक्ति को असंवैधानिक करार दे दिया था। क्योंकि भ्रष्टाचार के आरोप इस मामले में लगे थे। आरोप कोई भी लगा सकता है लेकिन इससे  हकीकत पर कोई असर नहीं पड़ता। देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट की गरिमा का सम्मान हर किसी को करना चाहिए। इसीलिए संसद की आन्तरिक कार्यवाही की समीक्षा का अधिकार भारत के संविधान में न्यायपालिका को नहीं दिया गया है। केवल संसद में पारित कानून की वैधानिकता पर विचार करने का अधिकार दिया गया है। इसमें तकनीकि पहलू यह है कि राज्यसभा में कृषि विधेयकों को पारित करते समय जो प्रक्रिया अपनाई गई उसकी समीक्षा स्वयं राज्यसभा ही कर सकती है। इस सभा का प्रत्येक सदस्य संवैधानिक पद पर होता है जो संविधान की शपथ लेकर ही इसकी कार्यवाही में शामिल होने योग्य बनता है। अतः सबसे बड़ा सवाल सदन के प्रत्येक सदस्य की विश्वसनीयता का पैदा हो सकता है, जिसका तार जाकर संसदीय प्रणाली की विश्वसनीयता से जुड़ता है।  इस बारे में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के इस कथन की तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कृषि क्षेत्र को हम बदलते समय में पीछे नहीं छोड़ सकते । समय की चुनौतियों के अनुरूप बदलाव एक जरूरी होता है। सवाल बस इतना सा है कि बदलाव के हर पहलू को जमीन पर भी जरूर परखा जाना चाहिए। हमारी संसदीय प्रणाली हमें इस बात की इजाजत देती है कि हम अपने पिछले किये में ही और सुधार इस प्रकार कर सकें कि इसमें सकल जनभावनाओं की प्रतिध्वनि उजागर होती लगे। अतः देश की वर्तमान हालत के बारे में सभी राजनीतिक दलों को बैठ कर शान्ति के साथ विचार-विमर्श करके सर्वमान्य हल निकालना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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