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कोई तो खबर लेता बियाबानों की!

ऐसे दंगाइयों को अगर भारत के संविधान के मुताबिक देश का गद्दार कहा जाये तो बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। ऐसी हरकतें धर्म से भी गद्दारी होती हैं क्योंकि चाहे हिन्दू धर्म हो या इस्लाम, दोनों में ही सिर्फ मुहब्बत को ईमान का दर्जा हासिल है।

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के यमुनापार इलाके की कुछ बस्तियों को मजहब के नशे में डूबे सितमगर खूंखार  भेड़ियों  ने आदमी के भेस में जिस तरह बर्बाद किया है उसे देख कर तो हैवानियत भी शरमाये बिना नहीं रह सकती क्योंकि बलवाइयों ने शिवपुरी में स्थित एक मकतब (स्कूल)  को ही मकतल (श्मशान घाट) में तब्दील करने की तदबीर इसलिए भिड़ा दी थी कि इस निजी विद्यालय का मालिक एक मुसलमान शहरी था। लानत है उन धर्म के नाम पर बाजियां बिछा कर वोटों की तिजारत करने वाले सियासी सूरमाओं पर जिन्होंने आदमी के खून को ‘गन्दे नालों’ में बहने वाले दूषित जल से भी बदतर बना कर इनमें लाशों के ढेर जमा कर डाले।
ऐसे दंगाइयों को अगर भारत के संविधान के मुताबिक देश का गद्दार  कहा जाये तो बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। ऐसी हरकतें धर्म से भी गद्दारी होती हैं क्योंकि चाहे हिन्दू धर्म हो या इस्लाम, दोनों में ही सिर्फ मुहब्बत को ईमान का दर्जा हासिल है। क्या कहा जाये उस पुलिस की दयानतदारी को, जिसे लोकतन्त्र में जनता की पुलिस कहलाने का शरफ संविधान देता है, लगातार दो दिन तक स्कूल में आग लगाये जाने और वहां पर भारी संख्या में लोगों को हिरासत मे रखने की खबरें मिलने के बावजूद दरोगा का डंडा तक न हिले और आग बदस्तूर जलती रहे और अपने आप ही बुझ जाये।
 इंसानों की होली जलाने की यह साजिश शायद ईश्वर को मंजूर नहीं थी इसलिए उसने लोगों को स्कूल की खिड़कियां तोड़ कर बाहर जाने की सलाइयत बख्श दी और आग को मद्धिम कर बुझा डाला। पक्के तौर पर इसमें खुदावन्द-दो-आलम और सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी भगवान श्रीराम का वरदहस्त हिरासत में कैद लोगों के सर पर था मगर उन मासूम लोगों का क्या कसूर था जिन्हें जख्मी कर नालों में डाला गया और तमंचों की गोलियां का निशाना बनाया गया अथवा घरों में घुस कर मौत के घाट उतारा गया?
राजनीतिज्ञ गलेबाजी के जौहर दिखा रहे हैं और कह रहे हैं कि दंगा करने वाले हिन्दू भी गलत हैं और मुसलमान भी गलत, मगर यह नहीं बता रहे कि हालात इस दर्जा क्यों बिगड़े  कि चन्द गुंडों ने बेखौफ खुले घूम कर इंसानों के रक्त से ‘फाग’ खेला। अब तक 42 लाशें मिल चुकी हैं और पाठकों के हाथों में ये पंक्तियां जाने तक इनमें और इजाफा हो चुका होगा। जाने कितने इरफान और सुनील अपने घरवालों को रोता-बिलखता छोड़ कर जा चुके हैं मगर सबसे ज्यादा दुखदायी यह है कि इनकी लाशें लेने तक के लिए उनके घर वाले पिछले दो दिनों से एक थाने से दूसरे थाने और एक अस्पताल के मुर्दाघर से दूसरे अस्पताल के मुर्दाघर के चक्कर काट रहे हैं। जरा दिल पर हाथ रख कर सोचिये कि लाशें मिल किनकी रही हैं? 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग मरे वे ही हैं जो जिन्दगी चलाने के लिए रोज खून-पसीना बहाते थे।
 अर्थात गरीब तबके के लोग ही शिकार बने हैं। दंगे चाहे कहीं भी हों मरता गरीब आदमी ही है। उन्हीं के रक्त से धार्मिक दुश्मनी की रवायतें पूरी की जाती हैं। बेशक लपेटे में ऐसे ईमानदार पुलिस व सुरक्षाकर्मी भी आ जाते हैं जो अपने फर्ज को अंजाम दे रहे होते हैं। बड़े अफसरों का हुक्म मानना फर्ज में शामिल होता है अफसोसनाक यह है कि पुलिस बल का पिछले 25 सालों में राजनीतिकरण करने की कोशिशें इस तरह हुई हैं कि बड़े-बड़े आईपीएस अफसर हुकूमत में बैठे राजनीतिज्ञों  के दरबान बन गये हैं जबकि उन्हें संविधान और कानून का चौकीदार होना चाहिए। इसकी शुरुआत देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से ही पूरी बेशर्मी के साथ इस तरह हुई कि पुलिस अफसर सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के सार्वजनिक रूप से चरण स्पर्श करते हुए देखे गये मगर यह स्थिति राजनीति का पूरी तरह साम्प्रदायीकरण और जातिकरण करने के बाद सुविचारित ढंग से बनाई गई।
 अतः अब तक जितने भी पुलिस सुधार के लिए आयोग या उच्च समितियां बनी हैं, सभी ने पुलिस के बढ़ते राजनीतिकरण पर गहरी चिन्ता प्रकट की है और इससे उबरने के कई रास्ते सुझाये हैं मगर वोटों की खेती को उपजाऊ बनाने का जो तरीका कांग्रेस पार्टी ने 1984 में सिखों के खिलाफ हिंसा करा कर अपनाया था, उसे ही अन्य राजनैतिक दलों ने घुमा-फिरा कर लागू करना शुरू कर दिया। यह देश का सबसे बड़ा ‘दुर्भाग्य यन्त्र’ बन कर सामने आया जिसने पुलिस सुधार को राजनीतिज्ञों का ‘दुरास्वप्न’ बना डाला।
दंगे होने के बाद एक-दूसरे दल के खिलाफ बयानबाजी करके अपनी कमीज को ज्यादा सफेद बताने की कवायदों से तब तक कोई लाभ नहीं हो सकता जब तक कि पुलिस की जिम्मेदारी सिर्फ कानून के प्रति तय किये जाने के पुख्ता इंतजाम न बांधे जायें मगर क्या कयामत है कि सिर्फ एक दिन के भीतर ही एक न्यायाधीश के बदल जाने से न्यायालय का नजरिया भी इस तरह बदल गया कि इसने पुलिस को नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सोचने-समझने के लिए बजाय एक दिन का वक्त देने के पूरे एक महीने का समय दे डाला लेकिन जो लोग इसे न्यायालय के विरुद्ध प्रयोग करने की हिमाकत करेंगे वे कानून की नजाकत से नावाकिफ कहलायेंगे क्योंकि तुरत-फुरत आरोपियों को कानून की दफाओं में बांधने से साम्प्रदायिक माहौल में गर्मी पैदा करने की कुछ लोग कोशिश कर सकते हैं। अतः फैसले के दोनों पहलुओं पर गंभीरता के साथ ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है। जो जुर्म हो चुका है वह वक्त बीतने के बावजूद धुल नहीं सकता। 
इसलिए देर-सबेर कानून को अपना काम करना ही होगा। इतनी मोहलत हम अगर दिल्ली पुलिस को दे देते हैं तो कानून के खिलाफ वर्जी नहीं होगी क्योंकि पुलिस ने यह नहीं कहा है कि वह भड़काऊ बयान देने वाले ‘खुदआरा’ नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं करेगी परन्तु असली सवाल यही है कि संशोधित नागरिकता कानून का समर्थन और विरोध करने को लेकर राजधानी में ‘खून का प्यासा’ माहौल  क्यों कर बना; क्या देश की राजधानी दिल्ली में एक भी ऐसा नेता नहीं बचा है जो सीधे लोगों के बीच जाकर यह समझाने जाये कि इस कानून से न हिन्दुओं को भड़कने की जरूरत है और न मुसलमानों को हताश होने की जरूरत है क्योंकि अभी सर्वोच्च न्यायालय को इस पर अपना फैसला देना है अगर कोई इस कद का नेता होता तो वह जरूर दंगाइयों के बीच जाकर उन्हें चुनौती देता मगर आत्म विश्वास से भरे नेताओं की पुरानी पीढ़ी को हम कहां से पैदा करें? अभी तो नोआखाली और गांधी की याद करते ही कंपकंपी के साथ पसीने छूट पड़ते हैं।

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