भारत का लोकतंत्र सिर्फ शोर-शराबे का लोकतंत्र ही नहीं रहा है बल्कि यह धोखेबाजी और भेष बदल कर धन और सत्ता का ‘अमृत’ पीने का भी लोकतंत्र रहा है। इसका सबसे विद्रूप स्वरूप हमने जुलाई महीने में ही वर्ष 2008 में तब देखा था जब तत्कालीन मनमोहन सरकार ने अमरीका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर लोकसभा में विश्वासमत प्राप्त करने के लिए विपक्षी सांसदों को तोडऩे में सफलता हासिल की थी और सदन की मेज पर ही कुछ सांसदों ने नोटों से भरे बंडल रख दिए थे। जो विपक्षी सांसद इस खेल में अपनी बोली लगवा बैठे थे उन्हें अपनी सदस्यता जाने का डर नहीं था क्योंकि केवल नौ महीने बाद ही लोकसभा के पुन: चुनाव होने थे, तब विपक्ष में बैठी भाजपा ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया था।
यह दल-बदल विधेयक को दरकिनार करके डंके की चोट पर किया गया कार्य था। जाहिर है मनमोहन सरकार के बहुमत के पीछे धन की विशिष्ट भूमिका रही होगी। इस खरीद-फरोख्त पर एक वीडियो फिल्म भी बनी और कुछ चैनलों पर चली भी। इसकी जांच भी हुई मगर नतीजा सिफर निकला। जो जैसा था वैसा ही रहा। लोकतंत्र आगे बढ़ गया और हम शोर मचाते रहे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अब गुजरात में शतरंज की बाजी बिछी हुई है और कांग्रेस पार्टी के विधायक बड़े ही हिसाब से इस्तीफा दे रहे हैं। लक्ष्य 8 अगस्त को होने वाले राज्यसभा चुनाव हैं मगर नजरें आठ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी हैं। भाजपा ने रास्ता निकाला कि कांग्रेस के कुछ विधायक यदि इस्तीफा दे देते हैं तो गणित इस तरह का बन जाएगा कि उसके तीनों प्रत्याशी चुनाव में जीत कर राज्यसभा में पहुंच जाएंगे इसलिए इसके छह विधायक अभी तक इस्तीफा दे चुके हैं। इससे उन पर दल-बदल की तलवार भी नहीं लटकी रहेगी।
ये विधायक कह रहे हैं कि राज्य कांग्रेस में इतनी गुटबंदी है कि उनका विधायक के तौर पर तनख्वाह लेने का मन ही नहीं कर रहा है और वे इस्तीफा देना बेहतर समझ रहे हैं। कांग्रेस आरोप लगा रही है कि राज्य में भाजपा की सरकार है इसलिए उसके विधायकों को विभिन्न एजैंसियों की मार्फत धमकाया व डराया जा रहा है जिससे वे इस्तीफा दे रहे हैं मगर इस पार्टी के कैसे सिपाही हैं जो धमकियों से डरकर मैदान छोड़कर भाग रहे हैं? जो लोग कल तक आम जनता के अधिकारों के मुहाफिज बने हुए थे वे खुद ही अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं? उन्हें कौन सा डर या लालच सता रहा है? यह इस बात का सबूत है कि राजनीति में ऐसे सौदागर छाए हुए हैं जिन्होंने जनमत के तिजारत की दुकानें खोल रखी हैं। कांग्रेस आज अपने ही पुराने किए गए कार्यों से घबरा रही है क्योंकि उसके सामने वैसा ही मंजर खड़ा हो गया है जैसा 2008 जुलाई में उसने केन्द्र में भाजपा के सामने खड़ा किया था। इसी वजह से यह अपने शेष विधायकों की सुरक्षा में लग गई है और उन्हें बेंगलुरु ले गई है जिससे उनमें से कोई टूट कर उसके खेमे से बाहर न जा सके। इससे यह भी साबित हो रहा है कि राजनीतिक प्रबंधन में भाजपा भी कांग्रेस के समक्ष सवा सेर हो सकती है।
दोनों पार्टियां ही इस क्षेत्र में एक-दूसरे को मात देने की जुगाड़ में हैं मगर इसका रास्ता भी सबसे पहले कांग्रेस ने ही अब से करीब 12 साल पहले गोवा में तैयार किया था जब विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए इसने कुछ विपक्षी विधायकों को इस्तीफा देने के लिए मना लिया था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद सदस्यों से इस्तीफा दिलवा कर सदन की शक्ति को घटाकर बहुमत सिद्ध करने की कला का यह पहला नमूना था मगर गुजरात में मामला बहुमत का नहीं बल्कि राज्यसभा चुनावों का है और इसमें सबसे बड़ा मुद्दा कांग्रेस के प्रत्याशी श्री अहमद पटेल हैं जो श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव भी हैं और इस पार्टी के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक हैं। वर्तमान में वह गुजरात से ही राज्यसभा सदस्य हैं। उनका चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है और भाजपा ऐसा न होने देने की रणनीति बना कर बैठ गई है। दीगर बात यह है कि इस लड़ाई का जमीनी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है।
कांग्रेस से बागी हुए शंकर सिंह वाघेला गुजरात कांग्रेस की कमान अपने हाथ में न आने से बिफरे हुए हैं और ‘घर का भेदी लंका ढहाये’ की तर्ज पर तीर पर तीर चला रहे हैं। भारत के लोग सोच रहे हैं कि लोकतंत्र की ताकत केवल वही हैं क्योंकि उनके हाथ में एक वोट का सबसे बड़ा अधिकार है। यह अधिकार उन्हें गांधी बाबा ने दिलवाया था मगर यह नहीं जानते कि न कब जाने कब से राजनीतिज्ञों ने उनकी ‘लाठी’ ही अपने कब्जे में ले ली है जिसके सहारे वे लोकतंत्र को हांकने की फिराक में लगे हुए हैं। सब यही लाठी घुमाकर लोगों की भीड़ जमा कर रहे हैं और खुद को एक-दूसरे से ज्यादा साफपोश दिखा रहे हैं मगर लोग एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि
कोई है, कोई है, कोई है..
जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है
दूध किसी का धोबी नहीं है
हो तो भी नहीं है