लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष श्री सोमानाथ चटर्जी के निधन से देश एेसे रत्न से खाली हो गया है जिसने राजनीति में नैतिकता, सिद्धान्तवादिता और राष्ट्रीयता को सर्वोपरि रखकर देशवासियों के सामने संसद की गरिमा को सर्वोच्च मानते हुए इसमें आम आदमी की आवाज को उठाने में कभी भी गलती नहीं की। लोकसभा में दिए गए उनके पांच सौ से ज्यादा भाषण इस बात के गवाह रहेंगे कि उन्होंने पं. नेहरू के दौर की उस परंपरा को कसकर पकड़े रखा जिसमें वैचारिक बुलंदियों की धारा से सामान्य भारतीय के दुःख-दर्द की भाषा फूटती थी और सरकारों को हिला जाती थी। 1971 से 2009 तक (केवल 1984 से 89 तक को छोड़कर) वह लोकसभा के सदस्य रहे और इस दौरान संसद में उन्होंने हर अवसर पर सिद्ध किया कि भारत दुनिया का वह विलक्षण देश है जो सदियों से विभिन्न क्षेत्रीय व आंचलिक संस्कृतियों के समागम से आन्तरिक रूप से मजबूत होकर एक इकाई के रूप में विकसित होता रहा है।
पेशे से माने हुए सफल वकील स्व. चटर्जी भारत के लोकतन्त्र की पारदर्शिता के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। यही वजह रही कि उन्होंने 2004 में लोकसभा का अध्यक्ष बनने पर संसद की कार्रवाई सीधे आम जनता तक पहुंचाने के िलए लोकसभा टी.वी. का शुभारम्भ किया और निश्चय किया कि संसद में जो भी नजारा इसके सदस्य पेश करते हैं वह सीधे जनता तक जाए। लोकसभा अध्यक्ष को संसद की कार्रवाई चलाने का अधिकार होता है मगर इसके प्रसारण में कांट-छांट करने का वैध अधिकार उसके पास नहीं है क्योंकि वह सदन की कार्यवाही का हिस्सा होता है। एेसा स्वयं श्री चटर्जी ने लोकसभा कार्यकाल पूरा होने के बाद बांग्ला पत्रकारों से कहा था। सदन में नारेबाजी या शोर-शराबा करते सांसदों को देखने का अधिकार जनता को है क्योंकि वही उन्हें चुन कर संसद में भेजते हैं और लोगों का यह अधिकार है कि वे स्वयं देखें कि उनका सांसद संसद में क्या कर रहा है। यही वजह थी कि 2004 से 09 तक जब भी लोकसभा में हंगामा या शोर-शराबा होता था तो आसन पर बैठे हुए श्री चटर्जी कहा करते थे कि ‘दिस इज पार्लियामेंट आफ इंडिया लेट दि पीपुल डिसाइड।’
लोकसभा अध्यक्ष रहते उन्होंने इस सदन की कार्यवाही जिस निष्पक्षता आैर दलगत भावना से ऊपर उठकर चलाई उसकी मिसालें आने वाली पीढि़यां देती रहेंगी और बताएंगी कि किस तरह उन्होंने टी.वी. चैनलों पर कुछ सांसदों द्वारा प्रश्न पूछने के लिए धन लेने की वारदातों का स्वयं संज्ञान लेकर उनकी सदस्यता निरस्त करने की संसदीय कार्रवाई को आगे बढ़ाया। इसके साथ ही अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे को लेकर जब जुलाई 2008 में लोकसभा का दो दिवसीय अधिवेशन बुलाया गया और तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इस करार पर अपने प्रति विश्वास मत लेने का प्रस्ताव रखा तो कुछ विपक्षी भाजपा के सांसदों ने लोकसभा के पटल पर नोटों से भरे बंडल पटक कर खुद को खरीदने का आरोप लगाते हुए पूरी दुनिया को चौंका दिया तो अध्यक्ष के आसन पर बैठे सोमनाथ चटर्जी ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संसद की गरिमा से समझौता नहीं होने दिया और तुरन्त सदन को स्थगित करके आरोप लगाने वाले सांसदों की शिकायत का संज्ञान लेते हुए संसद के माध्यम से पुलिस कार्रवाई की शुरूआत की और सदन में विश्वास मत पर मतदान भी कराया।
उनकी सदारत में भारतीय लोकतन्त्र में हुए सांसदों के इस निम्नतम प्रदर्शन के बावजूद संसद की गरिमा पर आंच नहीं आई, यह श्री चटर्जी का ही कमाल था कि उन्होंने कुछ सांसदों के एेसे आचरण को कानूनी दायरे में लाने का प्रावधान करके सच्चाई का पता लगाया। किन्तु इस अवसर पर उनकी स्वयं की साख भी दांव पर लगी हुई थी क्योंिक वह जिस मार्क्सवादी पार्टी के सांसद के रूप में चुनकर संसद में आते थे उसने ही उन्हें लोकसभा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने का निर्देश दे दिया था। उनकी पार्टी की वजह से ही मनमोहन सरकार को लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था क्योंिक उसने अपने समर्थक वामदलों के साथ मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। श्री चटर्जी ने यह हुक्म मानने से साफ इंकार कर दिया मगर श्री चटर्जी काे इितहास में इस वजह से नहीं जाना जाएगा बल्कि लाेकसभा में 2004 से पहले विपक्षी सांसद के रूप में दिए गए उनके भाषणों के कारण जाना जाएगा।
वाजपेई सरकार को लेकर जब अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण को लेकर संसद में अक्सर राजनीति गर्माई रहती थी और दूसरी तरफ वाजपेयी सरकार धड़ाधड़ सार्वजनिक कम्पनियों को कौडि़यों के भाव निजी उद्योगपतियों को बेच रही थी तो सोमनाथ दा ने लोकसभा में अपने ओजस्वी भाषण में कहा था कि ‘हिस्टरी विल थ्रो दिस गवर्नमैंट इन टू डस्टबिन्स हू हेव डिसाइडेड डिस्ट्रेस सेल आफ नेशन्स एसेट्स टू सम इंडिविजुअल्स अंडर दि कवर आफ रिलीजियस पैशन्स.. कमिंग जेनरेशन विल नवर फारगिव यू।’ क्रिकेट के जबर्दस्त प्रेमी श्री चटर्जी ने अपनी अध्यक्षता के दौरान लोकसभा में बैठे विपक्षी सांसदों को अपनी बात पुरजोर ढंग से उठाने के लिए इतने अवसर दिए कि मनमोहन सरकार हमेशा सफाई देने की मुद्रा में ही रहती थी। तो दूसरी तरफ सत्ता पक्ष भी अपनी बात पूरे विस्तार के साथ रख पाता था। इसके पीछे उनका अपना व्यक्तित्व भी कहीं न कहीं भूमिका निभाता नजर आता था। इसकी वजह यह थी कि वैचारिक भिन्नता उनके खून में घुली हुई थी। वह उन एन.सी. चटर्जी के पुत्र थे जो देश की आजादी के समय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे। उनके पिता भी नामी वकील थे और राजनीति में सक्रिय थे परन्तु युवा सोमनाथ के अपने पिता से गहरे सैद्धान्तिक मतभेद थे और उन्हें वामपंथी विचारधारा ज्यादा कारगर लगती थी परन्तु भाजपा के नेताओं से भी उनके आत्मीय सम्बन्ध थे। 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ है किन्तु उनका मन हमेशा आज के भारत के उस युवा के बारे में व्यथित रहता था जिसकी प्रतिभा का लाभ उठाने में देश आज असमर्थ हो रहा है। एेसे महापुरुष को श्रद्धांजलि।