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दक्षिण भारत और भाजपा

भारतीय जनता पार्टी ( जनसंघ) की राजनीतिक यात्रा में दक्षिण भारत साठ के दशक तक बेशक ‘दूर का सुहावना फूल’ रहा हो मगर अब 21वीं सदी के शुरू से ही इस फूल की महक को उसने तब करीब से महसूस करना शुरू कर दिया था

भारतीय जनता पार्टी ( जनसंघ) की राजनीतिक यात्रा में दक्षिण भारत साठ के दशक तक बेशक ‘दूर का सुहावना फूल’  रहा हो मगर अब 21वीं सदी के शुरू से ही इस फूल की महक को उसने तब करीब से महसूस करना शुरू कर दिया था जब कर्नाटक में उसने 2004 के राज्य विधानसभा चुनावों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी और 2006 में कांग्रेस पार्टी की ‘धर्म सिंह सरकार’ को गिरा कर जनता दल (स) के एचडी कुमार स्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार गठित की थी। हालांकि यह सरकार बामुश्किल घिसट-घिसट कर चली मगर राज्य में समय से एक वर्ष पूर्व चुनाव होने पर भाजपा अपने बूते पर सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर बहुमत के आंकड़े के करीब पहुंची और पूरे पांच साल तक इसकी सरकार चली। बेशक इस दौरान इसने तीन मुख्यमन्त्री दिये। मगर दक्षिण की राजनीति में यह बहुत बड़ा बदलाव था क्योंकि उत्तर भारत की समझी जाने वाली भाजपा ने दक्षिण की गैर हिन्दी भाषी जमीन पर अपना ‘कमल’ का फूल खिला दिया था। यदि स्वतन्त्र भारत के चुनावी व राजनीतिक सन्दर्भों में इस घटना का विश्लेषण किया जाये तो लिखा जा सकता है कि 1967 में केरल के समुद्र तट के नगर कालीकट में स्व. दीनदयाल उपाध्याय ने जो सपना देखा था उसकी ‘ताबीर’ बननी शुरू हो चुकी थी। 
1967 में भारतीय जनसंघ ने अपना राष्ट्रीय अधिवेशन कालीकट में किया था और इसमें पं. दीनदयाल उपाध्याय अध्यक्ष चुने गये थे। दीनदयाल जी का सपना था कि जनसंघ वास्तव में एक राष्ट्रीय दल बने और कांग्रेस पार्टी का ठोस विकल्प बन कर उभरे। इसके लिए पार्टी की स्वीकार्यता का दायरा भी भारत की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप बढ़ाया जाना जरूरी था और इसी प्रयास को सफल करने हेतु दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन सुदूर दक्षिण के कालीकट में करना जरूरी समझा था परन्तु अब 2021 चल रहा है और आगामी दो महीने बाद केरल, तमिलनाडु,पुड्डुचेरी व असम में प. बंगाल के साथ ही चुनाव होने हैं। इन चुनावों में जोर आजमाइश की तैयारी भाजपा ने इस प्रकार की है कि उसे अन्य दक्षिण भारतीय छोटे या बड़े दलों का सहयोग भी प्राप्त हो सके। पुड्डुचेरी एक छोटा सा केन्द्र शासित अर्ध राज्य है और यहां के अधिसंख्य लोग तमिल भाषी ही हैं। इसके साथ लगे हुए तमिलनाडु राज्य को दक्षिण भारत का मुकुट भी कहा जा सकता है जहां द्रविड़ संस्कृति अपनी भव्य पौराणिक पहचान के साथ राजनीति के सौपान चढ़ती रही है। 1967 के बाद से ही इस राज्य में कांग्रेस पार्टी का पतन होना शुरू हुआ और केन्द्र में वे द्रविड़ पार्टियां ही रहीं जिनका मूल उद्गम स्व. रामास्वामी नायकर की पार्टी ‘द्रविड़ कषगम’ से हुआ था। इससे पहले द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम निकली और बाद में द्रमुक से ही अन्ना द्रमुक निकली। तब से तमिलनाडु की बागडोर इन दोनों पार्टियों में से किसी एक के हाथ में ही रही है।
 भाजपा ने आसन्न चुनावों में अन्ना द्रमुक के साथ गठजोड़ करके चुनावों में जो फैसला किया है उससे इस पार्टी को राज्य विधानसभा में प्रवेश करने का मौका मिल सकता है, वैसे कन्याकुमारी लोकसभा क्षेत्र से भाजपा का सांसद संसद में मौजूद है। इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि भाजपा कर्नाटक की दीवार से आगे तमिलनाडु की तरफ बढ़ रही है। ठीक इसी प्रकार केरल की भी हालत है जहां कुछ महीने पहले हुए स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफलता प्राप्त की थी और इससे पहले पार्टी राज्य की राजधानी तिरुवनन्तपुरम् में अपना वजूद कायम कर चुकी थी।
 2019 के चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी शशि थरूर इस सीट से  बहुत कम अन्तर से ही अपनी जीत दर्ज करा पाये थे परन्तु यह राज्य वामपंथियों का गढ़ भी कहा जाता है और यह मार्क्सवादी पार्टी के महाविचारक स्व. ई.एम.एस. नम्बूदिरिपाद की कर्मभूमि भी रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि इस राज्य की राजनीति शेष भारत की राजनीति से हट कर इस प्रकार रही है कि इसे भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला का दर्जा भी एक समय में प्राप्त था परन्तु पिछले दो दशकों के दौरान इस राज्य में भी जिस प्रकार आम लोगों का ध्यान भाजपा की राष्ट्रवादी राजनीति की तरफ गया है, उसे उल्लेखनीय तो अवश्य ही कहा जा सकता है। इसका मुजाहिरा पिछले वर्ष एक हिन्दू धर्म स्थान में महिलाओं के प्रवेश को लेकर जिस तरह गरमाया उससे वामपंथी कहे जाने वाले इस राज्य में परपंराओं से छेड़छाड़ न करने की बयार चलती सी नजर आयी और भाजपा इसका ध्वज संभाले खड़े मिली। यह सब अचानक भी नहीं हुआ था क्योंकि साठ के दशक से ही भाजपा अपने पूर्ववर्ती जनसंघ स्वरूप में लोगों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना भरने में मशक्कत से लगी हुई थी। यह तो अब माना ही जा सकता है कि केरल राज्य में भी वामपंथी मोर्चा व कांग्रेस नीत प्रगतिशील मोर्चे के युद्ध में भाजपा तीसरी शक्ति के रूप में प्रकट हो चुकी है।
 केरल की राजनीति में यही सबसे बड़ा परिवर्तन है। आगामी  समय में चुनावी प्रचार के लिए भाजपा की रणनीति इसी बात पर निर्भर करेगी कि वह इन तीन चुनावी राज्यों को कौन सा ऐसा नया सपना दे सकती है जिसमें इन राज्यों को लोगों की अपनी पहचान सकल भारतीयता की पहचान में विशिष्टता प्रदान करती लगे।

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