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पाकिस्तान में सियासी जलजला !

पड़ोसी देश पाकिस्तान में एक बार फिर लोकतन्त्र को पटरी से उतारने की प्रक्रिया शुरू हो गई है मगर इस बार यह कानून का जामा ओढ़ कर बहुत ही

पड़ोसी देश पाकिस्तान में एक बार फिर लोकतन्त्र को पटरी से उतारने की प्रक्रिया शुरू हो गई है मगर इस बार यह कानून का जामा ओढ़ कर बहुत ही होशियारी के साथ इस प्रकार शुरू हुई है जिससे इस मुल्क की फौज पर सीधे अंगुली न उठाई जा सके। इस देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( एन) के नेता पूर्व प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार के आरोप में यहां के राष्ट्रीय जवाहदेही ब्यूरो की अदालत ने दस वर्ष की कैद की सजा सुनाई है। उनके साथ उनकी पुत्री मरियम शरीफ को भी सात वर्ष की सजा सुनाई गई है। पनामा पेपर्स में नवाज शरीफ का नाम आने के बाद उन्हें पाकिस्तानी उच्च अदालत ने संदेह के आरोप में अपने पद पर बने रहने के अयोग्य ठहरा दिया था और इसके बाद उन पर ब्यूरो की अदालत में मुकद्दमा चला था। श्री शरीफ पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ होने के साथ ही एक उद्योगपति भी हैं।

अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में उन्होंने कहा था कि विदेशों में उन्होंने जो भी सम्पत्ति बनाई है उसका पूरा हिसाब–किताब उनके पास है और उसमें भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं बनता है इसके बावजूद अदालत में चले मुकद्दमे में वह खुद को पाक–साफ दिखाने में नाकामयाब रहे थे। ब्यूरो की अदालत में उन पर लन्दन के ‘एवेनफील्ड हाऊस’ भवन में चार एशो-इशरत भरे अपार्टमैंट खरीदने का जुर्म है। ये अपार्टमैंट सरकारी धन का दुरुपयोग करके खरीदने का जुर्म ब्यूरो की अदालत में साबित होने के बाद उन्हें सजा सुनाई गई। मगर केवल नवाज शरीफ को ही इस मामले में मुजरिम नहीं बनाया गया बल्कि उनके पूरे परिवार को लपेट लिया गया। खासतौर पर उनकी पुत्री मरियम को भी भ्रष्टाचार में संलिप्त होने पर सात साल की सजा सुनाई गई।

इस मुकद्दमे का फैसला एक बार पहले अदालत ने टाल दिया था मगर इस देश में हो रहे राष्ट्रीय असैम्बली के चुनावों से केवल 19 दिन पहले फैसला सुना कर अदालत ने मरियम शरीफ को भी चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। आगामी 25 जुलाई को पाकिस्तान में राष्ट्रीय असैम्बली के चुनाव होने हैं और मरियम ने लाहौर चुनाव क्षेत्र से अपनी उम्मीदवारी दाखिल कर दी थी। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि मरियम अपने पिता के चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए जाने के बाद स्वयं अपनी पार्टी की मुख्य चुनाव प्रचारक बन कर उभर रही थी। स्व. बेनजीर भुट्टो के बाद वह पाकिस्तान की एेसी महिला नेता के रूप में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रही थीं जो पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी दहशतगर्दों से भरे मुल्क में ‘उदार इस्लामी लोकतन्त्र’ की ध्वज वाहक बनने की क्षमता रखती थीं।

नवाज शरीफ के दोनों पुत्रों हसन और हुसैन को अदालतें पहले ही भगौड़ा घोषित कर चुकी हैं और उनके दामाद रिटा. कैप्टन सफदर को भी इसी श्रेणी में डाल दिया गया है। एेसे में केवल मरियम ही बची थीं जो पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज) की आवाज बन कर चुनावी माहौल में गरज रही थीं और इस बात पर जोर दे रही थीं कि पाकिस्तान में भी ‘वोट’ की इज्जत वही होनी चाहिए जो दूसरे लोकतान्त्रिक देशों में होती है। लोगों के वोट से बने हुए प्रधानमन्त्री और उसकी सरकार का रुतबा और इकबाल सबसे ऊपर होना चाहिए। दरअसल वह पाकिस्तान में फौज की हुक्मबरदारी के खिलाफ लोगों में चेतना भरने का काम जन अभियान के रूप में कर रही थीं। लगातार उनकी मकबूलियत जिस रफ्तार के साथ बढ़ रही थी उससे उनकी पार्टी के चुनावी भविष्य की तस्वीर भी उजली बनती दिखाई दे रही थी लेकिन अब उनके चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाने पर चुनावों में फौज की शह पर बनाए गए राजनीतिक दलों को पाकिस्तान में कट्टरपंथी और उग्रवादी राजनीति के फैलाने में मदद जरूर मिलेगी और एेसे दलों के प्रत्याशी खुल कर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की राजनीति को नुकसान पहुंचाएंगे।

यह ध्यान में रखना होगा कि पाकिस्तान में हो रहे चुनावों में लश्कर-ए-तैयबा और लश्कर-ए-झांगवी जैसे दहशतगर्द संगठनों ने कोई न कोई सियासी तंजीम बना कर पाकिस्तानी चुनाव आयोग में खुद को पंजीकृत करा रखा है और ये लोग भेष बदल कर चुनावों में खड़े हो रहे हैं। पाकिस्तान की दूसरी प्रमुख पार्टी ‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’ को पहले ही इस देश में कमजोर कर दिया गया है। इसके नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे और अन्त में जब जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी फौजी हुकूमत खत्म करके 2007 में पाकिस्तान में लोकतंत्र पुनः काबिज करने के लिए चुनावी प्रक्रिया की शुरूआत की थी तो दिसम्बर 2007 में एक जनसभा में जाते समय पीपुल्स पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी। दुनिया जानती है कि 1978 मेें बेनजीर के पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को तत्कालीन फौसी शासक जनरल जियाउल-हक ने किस तरह फांसी पर लटकवाया था।

यह भी कम हैरतजदा हकीकत नहीं है कि नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री की गद्दी से उन्हीं के जनरल परवेज मुशर्रफ ने तब उतारा था जब भारत और पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें आपसी विवाद खत्म करना चाहती थीं। ताजा हालात यह हैं कि नवाज शरीफ ने 2008 नवम्बर में मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में पाकिस्तान की भूमिका को कबूल किया था और उन्होंने खुद भी उस समय यह तसदीक की थी कि वह हमलावर पाकिस्तान का ही रहने वाला था जिसे मुम्बई में जिन्दा पकड़ कर बाद में फांसी पर लटकाया गया था। इस बात के लिए नवाज शरीफ को पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने देशद्रोही तक कह डाला था। मगर जो अद्वलियत है वह यह है कि पाकिस्तान में फौज किसी भी कीमत पर एेसी चुनी हुई हुकूमत नहीं चाहती है जो भारत के साथ स्वतन्त्र रूप से दोस्ती के ताल्लुकात बनाने की वकालत करे और इस तरफ कोशिश भी करे। अब पाकिस्तान में एक जमाने के क्रिकेटर इमरान खान जैसे सियासत दां की ‘तहरीक-ए-इंसाफ’ पार्टी है और दहशतगर्द तंजीमों के भेष बदल–बदल कर खड़े किए गए उम्मीदावर हैं जो इस मुल्क की मिट्टी में दहशतगर्द की खेती को लहलहाना चाहते हैं। इमरान खान को भी पाकिस्तानी फौज का भीतर से समर्थन बताया जाता है। 25 जुलाई को इस मुल्क के लोग जो भी फैसला करेंगे उससे बनी हुकूमत के साथ ही भारत को निपटना होगा मगर मरियम शरीफ जैसी नेता के चुनावी माहौल में न रहने से पाकिस्तान को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा यह तो वक्त ही बताएगा।

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