गुजरात विधानसभा में मतदान पूरा हो गया है जिसके नतीजे 18 दिसम्बर को घोषित होंगे लेकिन इन चुनावों ने देश की राजनीति को इस कदर प्रभावित किया कि दूसरे राज्य हिमाचल प्रदेश में भी हुए चुनावों की आवाज का कहीं पता ही नहीं चला। इस छोटे से पर्वतीय राज्य की महान जनता के साथ यह अन्याय भी कहा जा सकता है और उसे लग सकता है कि समग्र भारतीय परिदृश्य में उसका क्या स्थान है? लेकिन यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिमाचल की शान्तिप्रिय जनता का स्वभाव शिकायत करने वाला नहीं है और इसके लोग थोड़े में ही गुजारा करना जानते हैं। जहां तक गुजरात का प्रश्न है यह भारत की अर्थव्यवस्था को शुरू से ही आक्सीजन देने वाला राज्य रहा है और राजनीति में भी इसने देश को नेतृत्व देने का कार्य स्वतन्त्रता से पहले से ही किया है। अतः इस राज्य के नतीजों से पूरे देश की राजनीति का प्रभावित होना स्वाभाविक है।
देश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा व कांग्रेस के बीच भी यहां प्रतिष्ठा दांव लगी हुई है। हालांकि हिमाचल में भी मुख्य लड़ाई इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच है मगर फर्क यह है कि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार है और गुजरात में भाजपा की। बेशक हिमाचल में भी प्रतिष्ठा की लड़ाई है क्योंकि यहां कांग्रेसी मुख्यमन्त्री श्री वीरभद्र सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है जिनके विरोध में पूरी भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने मोर्चा खोला था। राज्य के भाजपा नेता व पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल की धूमिल छवि की वजह से ही चुनावी प्रचार के अन्तिम दौर में भाजपा ने उन्हें अपना मुख्यमन्त्री पद के दावेदार के रूप में पेश करना उचित समझा था जबकि श्री वीरभद्र सिंह पर आय से अधिक सम्पत्ति रखने के मामले की जांच चल रही है लेकिन हिमाचल और गुजरात में एक समानता यह रही कि जहां वीरभद्र सिंह हिमाचली अस्मिता के प्रतीक रहे वहीं गुजरात में स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गुजराती अस्मिता को अपना अस्त्र बनाया। यह भी कम रोचक तथ्य नहीं है कि गुजरात के चुनावों में भारत में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार चुनाव आयोग ही स्वयं पक्षपात करने के आरोपों के घेरे में घिर गया। जिस तरह चुनाव आचार संहिता के उल्लंंघन को लेकर भाजपा व कांग्रेस दोनों अपने-अपने नेताओं क्रमशः नरेन्द्र मोदी व राहुल गांधी के आचरण पर आपस में उलझे उससे लोकतन्त्र ही जख्मी हुआ है। सबसे बड़ी चिन्ता की बात यही है जिस पर बहुत गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है। यह भी कम रोचक नहीं है कि देश में इलैक्ट्राेनिक मीडिया के उदय के बाद से चुनाव बाद ‘एक्जिट पोल’ चलन बहुत तेजी से चला है और इस तरह चला है कि राजनीतिक दल भी इनके लोभ से नहीं उभर पाते।
संसदीय प्रणाली की चुनाव प्रणाली में एग्जिट पोल अक्सर गलत निकलते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भारतीय मतदाताओं के मन को समझना चुनाव नतीजों के विश्लेषकों के लिए प्रायः मुश्किल होता है। इसकेे साथ ही एग्जिट पोल करने वाली संस्थाएं किसी न किसी राजनीतिक दल के प्रभाव में करती हैं, जिससे वे निष्पक्ष नहीं रह पाती हैं और थोड़ा सा भी पूर्वाग्रह उनके नतीजों को प्रभावित कर जाता है। बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के दौर में राजनीति भी उसके प्रभाव से अलग नहीं रह सकती है अतः इसका प्रभाव भी रहता है। भारत में पहला एग्जिट पोल 1971 के लोकसभा चुनावों के दौरान किया गया था। उन चुनावाें में देश का पूंजीपति वर्ग एकतरफा तरीके से विपक्षी दलों के उस चौगुटे के साथ था जो स्व. इदिरा गांधी की नई कांग्रेस का विरोध कर रहा था। एग्जिट पोल में चौगुटे को पूर्ण बहुमत देने की घोषणाएं जमकर हुईं। उस समय चुनावों के चलते भी पिरणामों का कयास लगाने पर प्रतिबन्ध नहीं था। अतः चौगुटे के जीतने के बीच-बीच में सर्वेक्षण खूब अखबारों में छपते रहते थे किन्तु जब चुनावों के परिणाम आए तो बाजी उलटी निकली।
नई कांग्रेस के प्रत्याशी रिकार्ड मतों से जीते। अतः जब भारत में पुनः इस प्रकार के चुनावी सर्वेक्षणों की बहार आई तो चुनाव परिणामों की घोषणा करने वालों की एक नई जमात पैदा हो गई और वह मतदान समाप्त होते ही विभिन्न टी.वी. चैनलों पर बैठकर परिणामों की घोषणा करने लगी मगर हकीकत यह है कि उनकी घोषणाएं सिवाय अटकलबाजी के दूसरी सिद्ध नहीं होतीं। गौर से देखा जाए तो वैज्ञानिक युग में यह अंधेरे में लकड़ी घुमाने से ज्यादा कुछ नहीं है। यही वजह है कि पिछले लगभग आठ चुनावों में सभी प्रसिद्ध एग्जिट पोल गलत साबित हुए। इसकी वजह यही है कि नतीजे निकालने का कोई विज्ञान नहीं है और हर संस्था अपना-अपना फार्मूला लगाकर नतीजे बता देती है। उत्तर प्रदेश व पंजाब विधानसभा चुनावाें में यही हुआ इसलिए एग्जिट पोल के नतीजों पर यदि कोई भी राजनीतिक दल कूदता है तो उसकी यह खुशी क्षणिक ही होती है, 2004 में एग्जिट पोल कह रहे थे एनडीए को बहुमत मिलने जा रहा है मगर लोगों ने यूपीए को ज्यादा सीटें दीं। इसी प्रकार 2014 के चुनावों में कोई भी श्री नरेन्द्र मोदी की भाजपा को 220 से ऊपर सीटें देने को तैयार नहीं था मगर वह 280 सीटें ले गए। मेरा कहने का आशय केवल इतना सा है कि असली नतीजों का कोई विकल्प नहीं हो सकता और भारत में यह इसलिए सत्य है कि यहां हर चुनाव क्षेत्र में गणित बदल जाता है और जब नहीं बदलता है तो खुद को महान चुनावी विश्लेषक बताने वाले लोग उस हवा का अन्दाजा लगाने में नाकामयाब हो जाते हैं जो चुनावी मैदान में बह रही होती है। अतः अटकलबाजी में जीने का सुख केवल चार दिनों का है क्योंकि उसके बाद असली नतीजे सामने आ जाएंगे और दीवार पर जनता उस इबारत को लिख देगी जो वह मतदान केन्द्रों में लिख कर आई है।