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तबाही के कगार पर श्रीलंका

भारत के निटतम समुद्री पड़ोसी देश श्रीलंका में जो कोहराम मचा हुआ है और सर्वव्यापी अराजकता का माहौल है उसके लिए केवल और केवल वहां के सत्तारूढ़ दल व उसके नेताओं को ही जिम्मेदार कहा जायेगा।

भारत के निटतम समुद्री पड़ोसी देश श्रीलंका में जो कोहराम मचा हुआ है और सर्वव्यापी अराजकता का माहौल है उसके लिए केवल और केवल वहां के सत्तारूढ़ दल व उसके नेताओं को ही जिम्मेदार कहा जायेगा क्योंकि जिस तरह इस देश में राजनीतिक परिवार राजपक्षे के लोगों का कब्जा हुआ उसने श्रीलंका की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को किसी राजवंश की सत्ता में बदल कर रख दिया। इस परिवार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व वित्तमन्त्री पद पर जमे हुए लोगों ने अपने देश की जनता को भ्रम को रखते हुए जिस तरह इसकी वित्तीय स्वायत्तता को चीन के हाथों गिरवीं रखा उसी का परिणाम है कि आज इसकी राजधानी कोलम्बो से लेकर सर्वत्र सुदूर क्षेत्रों तक सड़कों पर निकल कर दैनिक जरूरतों की वस्तुओं के लिए लूट-मार मचाने को मजबूर हो रहे हैं। श्रीलंका के पिछले पांच सौ वर्षों  के इतिहास में ऐसा  कभी नहीं हुआ कि जनता ‘राजाप्रसादों’ में घुस कर भयंकर तबाही मचा रही हो और भोजन तक पर टूट रही हो। 18वीं सदी में हुई फ्रांस की क्रान्ति में ऐसे  दृश्य जरूर देखने मिले थे मगर उसके बाद विश्व में जो लोकतान्त्रिक बयार बही उसने पूरी दुनिया का नक्शा और राजनीति का चरित्र ही बदल कर रख दिया। श्रीलंका की यह घटना इस देश में किसी क्रान्तिकारी बदलाव का संकेत दे रही है और आर्थिक भूमंडलीकरण के फेर में पड़ी दुनिया को आगाह कर रही है कि किस प्रकार कोई आर्थिक रूप से समर्थ देश किसी विकासशील देश की आर्थिक क्षमताओं को चौपट कर सकता है। 
चीन के बेतहाशा ऋणों में दबी श्रीलंका की अर्थव्यवस्था केवल उसके कर्ज का ब्याज चुकाने के नाम पर ही दिवालिया हो चुकी है। यह इस बात का भी संकेत है कि अंधाधुंध विकास की ललक किस प्रकार बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के दौर में किसी छोटे व विकासशील देश की अपनी आन्तरिक क्षमताओं को निगल जाती है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को विकास पैमाना माने जाने लगा है परन्तु श्रीलंका का उदाहरण हमें बताता है कि कोई भी देश अपनी आर्थिक क्षमताओं की शक्ति के अनुरूप ही इस प्रणाली का लाभ उठाने में सक्षम हो सकता है। आवश्यकता से अधिक विदेशी निवेश पर निर्भरता उस देश की आर्थिक सामर्थ्य को ही निगल सकती है। दूसरे राजनीतिक स्तर पर किसी एक ही परिवार की सत्ता के भरोसे जब कोई देश हो जाता है तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था का कोई मतलब नहीं रहता क्योंकि ऐसी  शासन प्रणाली में सरकार की कमजोरियां और नीतिगत विफलताएं सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बन पाती और संसद से लेकर सड़क तक पूरी राजनीतिक व्यवस्था उस परिवार की बंधक बन जाती है। श्रीलंका में ठीक यही हुआ है क्योंकि राजपक्षे परिवार ने अपने देश को चीन के समक्ष बंधक रख दिया जिसका विरोध उसी समय लोकतान्त्रिक तरीके से नहीं हुआ। 
कोई भी देश अन्ततः अपनी आर्थिक शक्ति के बूते पर ही विकास कर सकता है। इसका उदाहरण भारतवर्ष है जहां पिछले 75 वर्षों के दौरान संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था काल से लेकर खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दौरान सन्तुलित विकास की नींव डाली गई। वैसे भी भारत के गांवों में यह कहावत प्रचलित है कि ‘घी खाय, पगड़ी रख’। इसका मतलब यही है कि किसी भी व्यक्ति को कर्ज उतना ही लेना चाहिए जितना उसके बूते में हो। यही सिद्धान्त किसी देश पर भी लागू होता है। मगर चीन तो अपने कपट जाल में अविकसित व विकाशील देशों को ऐसे  लपेट रहा है जैसे कोई बाजीगर बन्दर को नाच नचाता है। इसने श्रीलंका को कर्ज दे देकर उसकी हालत ऐसी  कर डाली कि इसे अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति को ही चीन के हवाले करने को मजबूर होना पड़ा। 
दुनिया के आर्थिक विशेषज्ञों का मत है कि अब अगला नम्बर पाकिस्तान का हो सकता है क्योंकि इस देश में भी चीन ने विकास का भ्रमजाल बनाया हुआ है। मगर श्रीलंका में तो कमाल यह हुआ कि इस देश के पास अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तक जाने की हिम्मत नहीं बची क्योंकि वह पहले से ही उससे लिए ऋणों का भुगतान करने के काबिल नहीं बचा था। परन्तु इसमें श्रीलंका के लोगों का कोई दोष नहीं है क्योंकि उन्होंने तो राजपक्षे परिवार के राजनीतिक दल पर भरोसा करते हुए उसे बहुमत दिया था। अतः इस देश का राष्ट्रपति अगर आज अपना आवास छोड़ कर नौसेना के शिविरों में शरण ले रहा है तो उसकी नियति यही होनी थी। लोगों के पास जब खाने-पीने की चीजों के अलावा ईंधन तक की किल्लत है तो वे किस दरवाजे पर मदद मांगने जायेंगे। मगर इस मामले में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि भारत ने पहले ही श्रीलंका को 100 लाख से अधिक डालर की मदद दी थी और जरूरी सामान की खरीद के लिए आवश्यक वित्तीय कर्ज सेवा भी उपलब्ध कराई थी मगर इससे श्रीलंका का संकट दूर होने वाला नहीं है। अतः भारत को कुछ नई मदद योजना के बारे में सोचना पड़ेगा और भारतीय उपमहाद्वीप के इस देश को तबाही से बचाना होगा।  भारत ने 1986 में इस देश की आतंकवादी ‘लिट्टे’ समस्या से उबरने के लिए भी अपनी शान्ति सेनाएं भेज कर अहम किरदार निभाया था। श्रीलंका से हमारा सांस्कृतिक व सामाजिक ताना-बाना रोटी-बेटी का रहा है। इसका बहुत बहा भूभाग दक्षिण के चोलवंशी राजाओं के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा है और 1919 तक यह ब्रिटिश भारत का ही हिस्सा था। अतः समय की मांग के अनुसार हमें अपनी भूमिका तय करनी पड़ेगी।    

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