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श्रीलंका : सिंहासन खाली करो…

क्या सितम बरपा हो रहा है श्रीलंका में कि वहां का राष्ट्रपति गोटबोया राजपक्षे मुल्क से फरार हो चुका है और प्रधानमन्त्री रानिल विक्रम सिंघे बजाय इस्तीफा देने के कार्यवाहक राष्ट्रपति बना बैठा है।

क्या सितम बरपा हो रहा है श्रीलंका में कि वहां का राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे मुल्क से फरार हो चुका है और प्रधानमन्त्री रानिल विक्रम सिंघे बजाय इस्तीफा देने के कार्यवाहक राष्ट्रपति बना बैठा है और जनता सड़कों पर निकल कर राष्ट्रपति भवन और प्रधानमन्त्री कार्यालय पर कब्जा जमाये बैठी है और बुलन्द आवाज में मांग कर रही है कि उनके मुल्क को कंगाली की हालत में धकेलने वाले सियासत दां सबसे पहले अपने औहदे छोड़ कर मुल्क को नये रहनुमा देने का इस तरह इन्तजाम करें कि पूरा निजाम नई शक्ल में आ जाये।  सनद यह रहनी चाहिए कि पिछले सौ साल में श्रीलंका में आज से पहले ऐसा  कभी नहीं हुआ कि अवाम सड़कों पर निकल कर हुक्मरानों के खिलाफ इंकलाब पर उतारू हो जाये। इसकी सबसे बड़ी एक ही वजह है कि इस देश के लोगों ने एक ही परिवार की राजनीतिक पार्टी पर भरोसा करके उसके हाथ में सत्ता सौंपने की गलती की। यह परिवार राजपक्षे परिवार है जिसके भाई-भतीजे मिल कर ही इस मुल्क की सियासत को अपने निजी फायदे के लिहाज से चलाते रहे। मगर इसकी जड़ में श्रीलंका की वह संवैधानिक व्यवस्था है जिसमें संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली की जगह अधिशासी राष्ट्रपति प्रणाली को अपनाया गया था। 
भारत के निकटतम पड़ोसी देश में यह काम 1977 में हुआ था। इससे पहले इस देश में भारत जैसी ही संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली थी जिसमे प्रधानमन्त्री के पास अधिशासी अधिकार होते हैं। राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार अपना कर श्रीलंका ने जब पहली बार श्री जयवर्धने को अपना राष्ट्रपति चुना था तो लगा था कि इस छोटे से समुद्री तटवर्ती देश का विकास तेजी से होगा मगर समय बीतने के साथ ही इसकी संसद द्वारा राष्ट्रपति को बेतहाशा अधिकार दिये जाने से जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही घटती गई और राष्ट्रपति निरंकुश होकर फैसले करते रहे । इसकी परिणिती एक व्यक्ति द्वारा मनमर्जी के फैसले लेने में हुई और उसका परिणाम यह निकला कि 2022 के आते-आते श्रीलंका कंगाल हो गया। राष्ट्रपति ने अपनी मनमर्जी करके ऐसे -ऐसे  फैसले लिये कि इस देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जाती रही और गोटबोया के आदेश पर श्रीलंका का रिजर्व बैंक नई मुद्रा छाप-छाप कर आम लोगों को सब्जबाग दिखाने के काम में लगा रहा। गोटबोया ने जनता में अपनी लोकप्रियता कायम रखने की गरज से शुल्क की दरों में कमी की और चुनावों में राजनीतिक पार्टियों द्वारा मतदाताओं को मुप्त सौगात बांटने के कानून का ढीला बना दिया। 
इस देश के एकमात्र पर्यटन उद्योग में विदेशी निवेश के द्वार खोल दिये और चीन के सामने अपने आधारभूत ढांचा गत क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिए कर्ज लेने की बहार चला दी। एक तरफ कोरोना की मार और दूसरी तरफ विदेशी कर्जों का बोझ और तीसरी तरफ अपनी मुद्रा की बेतहाशा छपाई से महंगाई सातवें आसमान पर पहुंचती चली गई और सरकारी खजाने में राजस्व की लगातार कमी होने से यह देश तीन महीने पहले ही ‘अन्तर्राष्ट्रीय दिवालिया’ हो गया। इसका मतलब यह है कि चालीस वर्षों में इसकी जितनी देनदारी है उसे चुकाने की इसमें कूव्वत पूरी तरह खत्म हो चुकी है। जाहिर है जब कोई देश यह नीति अपनाये कि वह अपने सकल घाटे की पूर्ति नये नोट छाप कर करेगा तो उसके पास  जरूरी सामान आयात करने के लिए पैसे नहीं बचेंगे और घरेलू बाजार में आवश्यक उपभोक्ता सामग्री के दाम बढ़ते जायेंगे। मगर अक्ल तो देखिये जनाब गोटबोया और उनके तीन महीने पहले तक प्रधानमन्त्री रहे भाई महेन्द्र राजपक्षे की कि उन्होंने अपने देश में रासायनिक खाद से खेती करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया और किसानों से कहा कि वे केवल कार्बनिक (आर्गेनिक) खेती ही करें। इससे देश का कृषि उत्पादन कम होना ही था। इस वजह से श्रीलंका में खाद्य सामग्री का अकाल पड़ना शुरू हुआ और दूसरी तरफ खजाने में पर्याप्त विदेशी मुद्रा न होने से पैट्रोलियम  पदार्थों व गैस का आयात करना भी संभव नहीं था। 
इस साल के भीतर श्रीलंका को विदेशों से लिए गये कर्ज की दस अरब डालर से अधिक की किश्तें जमा करनी हैं जबकि इसके पास कुल जमा 2.3 अरब डालर हैं। ऐसे  में क्या खाक यह अपनी आवाम को गेहूं, चावल से लेकर मिट्टी का तेल, ईंधन, गैस या पैट्रोल सुलभ करायेगा। यही वजह है कि पिछले तीन महीने से श्रीलंका की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और एक गैस का सिलेंडर लेने के लिए मीलों लम्बी लाइन लगा रही है। भारत ने अपने पड़ोसी होने का धर्म निभाते हुए इसे अरबों डालर की मदद नकद व क्रेडिट लाइन (बाजार से माल उठाने की सुविधा की गारंटी) के तौर पर दी। मगर अब यह दौर समाप्त हो चुका है क्योंकि श्रीलंका की जनता सड़कों पर आकर शन्तिपूर्ण ढंग से सत्ता बदलने की मांग कर रही है औऱ प्रशासनिक ढाचे में आमूल-चूल परिवर्तन चाहती है। भारत की यह नीति आजादी के बाद से ही रही है कि वह किसी भी दूसरे देश मे कैसी प्रशासनिक व्यवस्था हो, इसका अधिकार वहां के लोगों का ही मानता है। ‘राजनीतिक दर्शन निर्यात’ करने के कारोबार में भारत कभी नहीं रहा। हमने 2007 के लगभग यह नेपाल में भी देखा था। यह देश दुनिया का एकमात्र घोषित ‘हिन्दू राष्ट्र’ था मगर जब यहां के लोगों ने राजशाही के खिलाफ विद्रोह किया तो भारत के तत्कालीन विदेशमन्त्री स्व. प्रणव मुखर्जी ने बेबाक तरीके से घोषणा की थी कि ‘भारत नेपाल में वही चाहता है जो वहां की जनता चाहती है’। हालांकि नेपाल नरेश से भारत के सम्बन्ध बहुत मधुर रहे थे। श्रीलंका के मामले में भी यही स्थिति आ चुकी है। जनता सड़कों पर है और राष्ट्रपति फरार होकर मालदीव में जा बैठा है। भारत तो लोकतन्त्र का अलम्बरदार देश है और श्रीलंका की जनता कह रही है कि,
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’

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