यूं ही होता है सदा हर चुनर के संग,
पंछी बनकर धूप में उड़ जाता है रंग।
कहने का अभिप्राय यह है कि जब भी चुनाव आते हैं, दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की मांग उठती है और हर चुनाव के बाद यह मांग भी ठंडी पड़ जाती है। अदालतें राजनीति के अपराधीकरण पर बहुत कुछ कह चुकी हैं। बुद्धिजीवी बहुत बहस कर चुके लेकिन हुआ कुछ नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सजायाफ्ता राजनीतिज्ञों पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध जरूर लगाया, कुछ नेता इस फैसले का शिकार भी हुए लेकिन वह जेल में बैठकर भी सियासत कर रहे हैं। कभी प्रबन्धन गुरु माने गए लालू यादव जेल में बैठकर भी उम्मीदवारों की टिकटें फाइनल कर रहे हैं। संसद ने राजनीति से दागियों को बाहर करने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की।
यह संसद पर निर्भर करता है कि वह चाहे तो अपराधियों को गले लगाए या उनसे मोहभंग करने के लिए कानून बनाए। यानी अगर देश की संसद सर्वसम्मति से यह महसूस करती है कि संदिग्ध चरित्र वाले लोगों को संसद सदस्य नहीं होना चाहिए तो दोनों सदनों को यानी लोकसभा और राज्यसभा को मिलकर एक बिल पारित करना चाहिए था लेकिन मिलियन डॉलर का प्रश्न है कि क्या हमारे देश की सभी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिज्ञ चाहते हैं कि ऐसा हो? यह काम तो संसद स्वयं कर सकती है तो फिर लोग बार-बार अदालत का द्वार क्यों खटखटाते हैं।
पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि वह चार्जशीटेड राजनीतिज्ञों को अन्तिम फैसला आने तक चुनाव लड़ने से तो रोक नहीं सकते लेकिन उसने साफ कहा था कि सभी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से पहले निर्वाचन आयोग के समक्ष अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि की घोषणा करनी होगी। राजनीतिक दलों को भी अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में प्रिंट, इलैक्ट्रोनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से व्यापक प्रचार करने को कहा गया था ताकि मतदाताओं को उनके बारे में जानकारी मिल सके। चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित कराना था कि सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार इसका पालन करें।
चुनाव आयोग ने फार्म-26 में संशोधन कर अधिसूचना भी जारी की थी और राजनीतिक दलों आैर उम्मीदवारों को कहा था कि वे अपने आपराधिक मामलों के बारे में मीडिया के जरिये लोगों को जानकारी दें लेकिन अब तक इस पर अमल होता दिखाई नहीं दे रहा। चुनाव आयोग भी उदासीन बना हुआ है। अब मामला फिर न्यायालय में आया। दायर याचिका में कहा गया है कि चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह, 1968 में आचार संहिता में संशोधन नहीं किया और इस वजह से फार्म-26 में संशोधन की अधिसूचना का कनून की नजर में कोई महत्व ही नहीं रह गया है।
आयोग ने उन प्रमुख अखबारों और समाचार पत्रों की सूची भी प्रकाशित नहीं की है जिसमें उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि के बारे में बताने की अनिवार्यता हो। अब उम्मीदवार अपने बारे में कम लोकप्रिय समाचार पत्रों में इन्हें प्रकाशित करा रहे हैं और कम महत्वपूर्ण समय के दौरान चैनलों पर प्रसारण करा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि प्रबुद्ध जनता इस बारे में अनभिज्ञ है, वह तो बहुत कुछ ढूंढ निकालती है लेकिन आम लोगों को पता लगना ही चाहिए कि उनका उम्मीदवार दागी है या नहीं। क्या उस पर गम्भीर प्रवृत्ति के आपराधिक मामले दर्ज हैं या नहीं। सवाल यह भी है कि इस देश की जनता का विधायिका में विश्वास पहले से ही करीब-करीब उठ चुका है। यदि ऐसा ही होता रहा तो विश्वास पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। क्या आपराधिक प्रवृत्ति के लोग कानून में संशोधन के पक्षधर होंगे? आम नागरिक को संविधान अपने अनुच्छेद 51-ए में यह उपदेश देता हैः-
‘‘आपको हर हाल में देश की एकता, अखंडता, अस्मिता, प्रभुसत्ता की रक्षा करनी होगी। आपको सतत् जागृत रहकर मूल्यों की रक्षा करनी होगी। यह आपका कर्त्तव्य है। आप पर यह निर्भर है कि आप भारत को यह स्वरूप देंगे।’’
जब आम आदमी वोट डालता है तो वह सोचता नहीं कि कौन उम्मीदवार भला है और कौन दागी। मतदान केन्द्र से बाहर आकर यही कहता है कि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इसका अर्थ यही है कि आम आदमी अपना दायित्व नहीं निभा रहा। क्या फिर एक जनक्रांति होनी चाहिए? जो लोग अपराधियों को वोट देते हैं या दायित्व से भागें, उनके चेहरे भी पहचाने जाने चाहिएं। लोगों को खुद ऐसे उम्मीदवारों के सड़ांध मारते चरित्र को उजागर करने के लिए आगे आना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते तो समझ लीजिये कि उन्हें ‘दाग अच्छे लगते हैं’ और राजनीतिक दलों को ‘दागी अच्छे लगते हैं।’