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जीएसटी पर राज्यों का रुख

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री उद्धव ठाकरे के इस कथन को बहुत गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है कि वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) तंत्र में निहित खामियों का इलाज तुरन्त किया जाना चाहिए वरना सभी राज्यों को पुरानी वित्तीय व्यवस्था की ओर लौटने के बारे में विचार करना चाहिए।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री उद्धव ठाकरे के इस कथन को बहुत गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है कि वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) तंत्र में निहित खामियों का इलाज तुरन्त किया जाना चाहिए वरना सभी राज्यों को पुरानी वित्तीय व्यवस्था की ओर लौटने के बारे में विचार करना चाहिए।
मगर श्री ठाकरे को भी राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखकर यह विचार व्यक्त किया जाना चाहिए था। महाराष्ट्र देश का अव्वल नम्बर का औद्योगिक व व्यापारिक राज्य है और केन्द्रीय राजस्व में इसका हिस्सा सर्वाधिक 35 प्रतिशत के आस-पास है अतः मुम्बई से उठने वाली आवाज का संज्ञान सभी राज्यों द्वारा लाया जाना स्वाभाविक प्रकिया कही जा सकती है।
दरअसल जीएसटी शुल्क प्रणाली के स्थापित होने से यह उम्मीद जगी थी कि पूरे देश में विभिन्न उपभोक्ता व औद्योगिक वस्तुओं पर एक समान कर होने से भारत की समूची बाजार प्रणाली का एकीकरण होगा जिससे आर्थिक व्यवस्था का समन्वीकरण इस प्रकार होगा कि भारत के हर प्रदेश में किसी भी वस्तु का दाम एक समान रह सके इसके लिए राज्यों ने अपने वित्तीय अधिकार केन्द्र के पक्ष में करने में हिम्मत दिखाते हुए यह भरोसा जताया कि किसी राज्य के उत्पादक राज्य होने और किसी दूसरे के अविकसित या खपत राज्य होने का भेदभाव मिटेगा तथा औद्योगिक उत्पादन के लिए किसी एक विशेष राज्य को ही लाभप्रद स्थिति में नहीं देखा जायेगा।
इसका मन्तव्य यह निकाला जा सकता है कि पूरे देश में औद्योगिक समानता व बराबरी का वातावरण बनाने में मदद मिलेगी। परन्तु जाहिर तौर पर यह कार्य बहुत आसान नहीं था खास कर उत्पादक राज्यों का अधिक राजस्व पाने का मोह छूटना आसान काम नहीं था। इस कार्य को सरल व सुगम बनाने के लिए केन्द्र ने आगे बढ़कर यह जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ली कि वह इस प्रणाली के शुरू होने पर राज्यों को होने वाले नुकसान की भरपाई आगामी पांच वर्षों तक करेगा।
यह पांच वर्ष की अवधि इसलिए तय की गई थी कि इस दौरान जीएसटी तन्त्र राज्यों के बीच होने वाली वित्तीय ऊंच-नीच को संभाल लेगा  और तेजी से विकास करती भारतीय अर्थव्यवस्था इस खाई को पाटने में मदद करेगी। 2017 में यह उम्मीद जाहिर की गई थी कि 2022 तक भारत की अर्थव्यवस्था 10 प्रतिशत की वृद्धि दर से विकास करेगी जिससे बढ़ेे हुई जीएसटी राजस्व वसूली के चलते घाटा उठाने वाले राज्यों की भरपाई स्वतः होती चली जायेगी।
परन्तु यह अनुमान गलत निकला और 2017 के बाद भारत की आर्थिक विकास वृद्धि दर लगातार नीचे ही गिरती चली गई। 2016-17 में जहां यह 8.3 प्रतिशत थी वहां 2019-20 में यह 4.2 प्रतिशत रह गई। इसके बाद कोरोना महामारी ने कहर ढा दिया। अब चालू वित्त वर्ष में इसके नकारात्मक परिणाम जाकर 10 प्रतिशत तक गिरने की बात स्वयं रिजर्व बैंक ही स्वीकार कर रहा है जिसकी वजह से जीएसटी संकट आकर खड़ा हो गया है।
महाराष्ट्र का वित्तीय क्षेत्र में हिस्सा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि जीएसटी खाते से केन्द्र सरकार को उसे 38 हजार करोड़ रु देने हैं। केन्द्र की राजस्व वसूली में कमी आने की वजह से सभी राज्यों की चालू देनदारियां कुल 67 हजार करोड़ रु से अधिक हैं। जबकि चालू वित्त वर्ष का कोरोना काल का हिसाब-किताब होना बाकी है। जीएसटी के बारे में एक तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है कि देश की दो प्रमुख राष्टीय पार्टियां भाजपा व कांग्रेस दोनों ही सैद्धांतिक रूप से इसके हक में इस प्रकार रही हैं कि एक दूसरे के केन्द्र में शासन होने के समय विभिन्न तकनीकी मुद्दों पर इसका विरोध करती रहीं।
जीएसटी का सबसे पहले विचार स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के दौरान रखा गया था जिसे बाद में आयी मनमोहन सरकार ने भी अपनाते हुए इस पर आगे कार्य करना शुरू किया। इस विचार को लागू करने की पहली शर्त थी कि संविधान में संशोधन करके राज्यों के वित्तीय अधिकार सीमित किये जायें। यह कार्य मोदी सरकार के दौरान किया गया। परन्तु ऐसा करने से पहले वह रूपरेखा तैयार कर ली गई थी कि शुल्क ढांचे में फेरबदल को संसद के अधिकार क्षेत्र से किस प्रकार बाहर किया जायेगा।
इसके लिए जीएसटी कौंसिल या परिषद का गठन किया गया था और इस शुल्क ढांचा तैयार करने के अधिकार दिये गये थे। यह कार्य स्व. प्रणव मुखर्जी से लेकर श्री पी. चिदम्बरम व स्व. अरुण जैतली ने वित्त मन्त्री रहते किया। इस परिषद की अध्यक्षता केन्द्रीय वित्तमन्त्री को दी गई और राज्यों के वित्त मंत्रियों को इसका सदस्य बनाया गया। क्योंकि इससे भारत के संघीय ढांचे की वह बुनियाद हिल जायेगी जिसके तहत राज्यों को अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने के अधिकार दिये गये हैं। तब इसका पुरजोर विरोध कांग्रेस पार्टी ने यह कहते हुए किया था कि जीएसटी परिषद मूल रूप से राज्यों की परिषद ही होगी और उनकी सहमति के बिना कोई भी फैसला इस परिषद में नहीं किया जा सकेगा। इससे राज्यों के अधिकार पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
जब भाजपा सत्ता में आयी तो संसद में विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने इसका विरोध पंचायती राज कानूनों की आड़ लेकर करने का प्रयास किया। मगर अब महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री श्री ठाकरे द्वारा इस तन्त्र से वापस पुराने तन्त्र की तरफ लौटने की बात को हल्के मेंे नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि अधिसंख्य राज्यों की वित्तीय हालत बहुत खस्ता है। इस बारे में जीएसटी परिषद की आपातकालीन बैठक बुला कर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है और जिससे जीएसटी तन्त्र बेरोक-टोक अपना काम कर सके।
हालांकि केन्द्रीय वित्तमन्त्री ने राज्यों का बकाया देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है और पहली किश्त छह हजार करोड़ की जारी भी कर दी है जीएसटी प्रणाली का सम्बन्ध भारत की रंग-बिरंगी राजनैतिक व्यवस्था के एकात्मता स्वरूप से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होती हैं और सभी ने मिल कर जीएसटी प्रणाली को स्वीकृति प्रदान की थी। 
-आदित्य नारायण चोपड़ा

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