इसमें कहीं कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि किसान आन्दोलन भारत की अन्दरूनी समस्या है और इसका सम्बन्ध सरकार की कृषि नीति से है न कि किसी मानवीय समस्या से। यह कृषि नीति बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के नियामकों के अनुरूप बनाई गई है जिसका कड़े से कड़ा विरोध करने का लोकतान्त्रिक अधिकार किसानों का है मगर किसी भी नजरिये से किसानों के आंदोलन का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने का प्रयास अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चे पर भारत की साख गिराने का प्रयास ही किया जायेगा। इस आन्दोलन का मानवीय पक्ष केवल इतना है कि धरती का भगवान कहा जाने वाला अन्नदाता आज सड़कों पर बैठा हुआ है और सरकार से उन तीन नीतिगत कानूनों को वापस लेने के लिए कह रहा है जो उसने पिछले दिनों संसद में बनाये। इस समस्या का हल केवल वार्ता के द्वारा ही संभव है जो कि लोकतन्त्र में सामान्य प्रक्रिया होती है परन्तु जिस तरह कुछ अन्तर्राष्ट्रीय कलाकारों, संस्थाओं और नामी-गिरामी हस्तियों के माध्यम से इस आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनाने की कोशिशें की जा रही हैं उनसे कोई भी भारतीय नागरिक सहमत नहीं हो सकता। अमेरिका की पाप स्टार रिहाना व पर्यावरण प्रेमी ग्रेटा थनबर्ग तथा अमेरिका की उपराष्ट्रपति श्रीमती कमला हैरिस की भान्जी मीना हैरिस ने ट्वीट करके किसान आदोलन को समर्थन दिया उसे भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करके ही देखा जायेगा परन्तु ऐसे कृत्यों से यह अन्देशा जरूर पैदा हो रहा है कि इस सबके पीछे कोई संगठित तरीके से अभियान चलाया जा रहा है जिसमें ऐसी हस्तियों को जोड़ा जा रहा है जिनकी देश की सीमाएं तोड़ते हुए लोकप्रियता है और जिन्हें लोग (खास कर शहरी) नाम से जानते भी हैं। इन हस्तियों का अपने-अपने क्षेत्र में योगदान हो सकता है मगर कृषि व किसानों की समस्याओं और उनकी कार्यप्रणाली के बारे में ये कितना जानते हैं? इस बारे में कोई भी साधारण व्यक्ति आसानी से अन्दाजा लगा सकता है।
लोकतन्त्र में नागरिक विभिन्न मुद्दों पर प्रदर्शन व धरने करते रहते हैं जिससे उनकी आवाज सरकार तक पहुंच सके। भारत में कोई भी आन्दोलन अहिंसक तरीके से ही करने की छूट है अतः किसानों ने भी अपना आन्दोलन गांधीवादी तरीके से ही शुरू किया परन्तु गणतन्त्र दिवस के दिन जिस तरह लालकिले पर हिंसा का प्रदर्शन करते हुए वहां धार्मिक ध्वज (निशान सािहब) फहराया गया उसने पूरे आंदोलन की पवित्रता को ही न केवल नष्ट किया बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत की प्रतिष्ठा को गिराया। निश्चित रूप से यह राष्ट्रविरोधी कृत्य था जिसके अपराधियों को पकड़ कर सजा देना सरकार का संवैधानिक अधिकार है। जो लोग ऐसे राष्ट्रविरोधी कृत्य को नजरअन्दाज करके भारत की प्रतिष्ठा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गिराने का प्रयास कर रहे हैं वे स्वाभाविक रूप से ऐसे किसी षड्यन्त्र का हिस्सा हो सकते हैं जिसका उद्देश्य भारत के बढ़ते कद को छांटना हो।
अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारत की प्रतिष्ठा उसी दिन से बहुत ऊंचे पायदान पर पहुंच गई थी जिस दिन आजाद हुआ था क्योंकि यह मुल्क एक ऐसे फकीर नुमा महामानव के नेतृत्व में अपने सकल विकास का संकल्प कर बैठा था जो एक धोती लपेट कर दुनिया के सभी वंचितों और मजलूमों को आत्म निर्णय के अधिकार से लैस करना चाहता था। बेशक उस महामानव का नाम महात्मा गांधी ही था और उसी का संकल्प था कि भारत ऐसे लोकतन्त्र के रास्ते पर चलेगा जिसमें एक मन्त्री और सन्तरी को बराबर के अधिकार हो।
हमने जो कुछ भी पिछले 73 वर्षों में हासिल किया है वह गांधी के रास्ते पर चल कर ही किया है अतः दुनिया की कोई भी हस्ती भारतीयों को उनके अधिकारों व कर्त्तव्यों के बारे में उपदेश देने की कूव्वत नहीं रखती है। बेहतर होता अगर मीना हैरिस या रिहाना ने अमेरिका में ही कुछ दिनों पहले महात्मा गांधी की प्रतिमा को खंडित किये जाने के मुद्दे पर ट्वीट करके चिन्ता जताई होती कि उनके ही देश में विश्व के शान्ति के मसीहा को अपमानित करने की कार्रवाई क्यों हुई ? मगर हमें इसके साथ ही यह भी विचार करना पड़ेगा कि आज की दुनिया में सोशल मीडिया सूचना व वैचारिक आदान-प्रदान का शक्तिशाली माध्यम होता जा रहा है और किसान आन्दोलन पर भारत को घेरने के लिए इसी मीडिया का इस्तेमाल किया गया है। इसके साथ ही ट्वीटर संस्था की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह हर उस देश के राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखे जहां-जहां उसकी पहुंच है।
भारत के विदेश मन्त्रालय ने इसी सोशल मीडिया का माकूल जवाब देने की रणनीति पर जब चलना शुरू किया तो भारत के ही कुछ कथित बुद्धिजीवी लोगों ने इसका विरोध किया। यह सरासर देश हित के विरुद्ध है क्योंकि विदेश मन्त्रालय भारत के खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार को सहन नहीं कर सकता है। उसका कर्त्तव्य बनता है कि विदेशों से एेसे जो भी प्रयास किये जायें उन्हें ठंडा किया जाये। बेशक विदेश मन्त्रालय सरकार का ही अंग होता है मगर भारत की किसी भी पार्टी की सरकार विदेशों में कांग्रेस या भाजपा की सरकार नहीं होती बल्कि वह ‘भारत की सरकार’ होती है। इसीलिए हमारे महान लोकतन्त्र में यह परम्परा आजादी के बाद पं. नेहरू की बनी पहली सरकार से ही रही है कि जब भी किसी विपक्षी दल का नेता विदेश की धरती पर जायेगा तो वह सरकार की आलोचना नहीं करेगा। मगर क्या हवा चली है कि विदेशी लोगों द्वारा किसान समर्थन की आड़ में भारत की आलोचना करने पर कुछ लोग ताली बजा रहे हैं।