अब इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि लोकसभा चुनावों का दौर शुरू हो चुका है लेकिन जिस तरह सत्ता पक्ष से लेकर विपक्षी दलों में बदहवासी नजर आ रही है और चुनावी मुद्दों की रद्दोबदल हो रही है उससे आसार ऐसे बनते जा रहे हैं कि देश की सरकार की इस लड़ाई में क्षेत्रीय व समुदाय गत मुद्दे भी अपना असर डालेंगे। यह दुखद इसलिए है क्योंकि विभिन्न राजनैतिक दल उन राष्ट्रीय मुद्दों से भागते नजर आ रहे हैं जो आने वाले भविष्य के लिए बहुत निर्णायक होंगे। चुनाव से पहले ऐसा अजीब नजारा बन रहा है कि उत्तर प्रदेश में चुनावी मुद्दे कुछ और होंगे और प. बंगाल में कुछ और नये प्रस्तावित नागरिकता कानून से सबसे ज्यादा उत्तर पूर्वी राज्य और प. बंगाल प्रभावित होंगे। अतः इस मुद्दे को इन राज्यों मंे उछाला जा रहा है। अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के मुद्दे से उत्तरी राज्य प्रभावित होंगे। अतः यह मामला इन राज्यों में जमकर उछल रहा है। दक्षिण में एक नया बवाल केरल के अयप्पा मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर खड़ा हुआ है। अतः यहां यह मुद्दा मुखर हो रहा है लेकिन इन सभी मुद्दों के बीच राष्ट्र के मुद्दे कहां हैं ? जाहिर है कि देश के चुनाव म्युनिसपलिटी की तर्ज पर नहीं लड़े जा सकते। लोकसभा चुनावों का सम्बन्ध सकल देश के विकास और समग्र नीतियों से होता है।
उत्तर से लेकर दक्षिण तक के प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में मूल मुद्दा राष्ट्र काे आगे बढ़ाने को लेकर ही हो सकता है। बेशक भारत राज्यों का संघ है मगर संविधान में उल्लिखित इस शर्त का पालन भारत के मतदाता इस प्रकार करते हैं, अपने सूबे की समस्याओं के निपटारे के लिए हर पांच वर्ष बाद अपनी मनपसन्द राज्य सरकार भी चुनते हैं और इससे भी नीचे नगर पालिका से लेकर ग्राम पंचायतों को चुनकर अपनी स्थानीय समस्याओं का हल खोजते हैं। यही वजह कि केन्द्र की राष्ट्रीय सरकार जो भी कानून बनाती है वह हर राज्य ( केवल जम्मू-कश्मीर को छोड़कर ) के लिए दिशा निदेशक का काम करती है। अतः राष्ट्रीय चुनावी मुद्दों के बारे में हम टुकड़ों में बंटकर नहीं सोच सकते। मगर राजनीतिक लाभ के लिए सियासी पार्टियां एेसा करने से नहीं चूकतीं क्योंकि उन्हें लोकसभा में अधिक से अधिक सीटें चाहिए जिसकी ताकत पर वे अपनी सरकार बना सकें। इस सन्दर्भ में कुछ राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश व प. बंगाल के चुनावी माहौल का जायजा लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है।
दो साल पहले विधानसभा चुनावों में इसे रिकार्ड बहुमत मिला। चुनावी लड़ाई समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार की सदारत में लड़ी गई थी। इन विधानसभा चुनावों में मुख्य मुद्दा राज्य की कानून व्यवस्था के तेवरों का साम्प्रदायिक होना था जिसकी वजह से मतदाताओं का इस तरह ध्रुवीकरण हुआ कि जातिगत समीकरणों का पूरी तरह धुआं उड़ गया। इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने अन्तिम समय में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का हाथ पकड़ कर पांच साल से चलने वाली अखिलेश सरकार के सारे पापों में अपनी हिस्सेदारी बेवजह ही बना डाली थी, जिसकी वजह से गेहूं के साथ घुन भी पिस गया। मगर लोकसभा चुनावों में इस राज्य में प्रमुख मुद्दा राम मन्दिर निर्माण को बनाने के प्रयास हो रहे हैं। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी के समान दूसरी प्रमुख क्षेत्रीय जातिवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के नेताओं को भ्रष्टाचार में फंसे होने के सबूत जुटाये जा रहे हैं परन्तु राजनीति इतनी सरल भी नहीं है कि सामने से किये गये वारों से ही इसकी असलियत का पता चल जाये। वास्तव में इन दोनों पार्टियों पर हमले इसीलिए हो रहे हैं जिससे इनके समर्थक मतदाताओं की सहानुभूति उनके साथ हो जाये और लोकसभा के चुनाव के मुद्दे इन पर सिमट कर रह जायें और राष्ट्रीय स्तर की विपक्षी पार्टी कांग्रेस मतदाताओं को राष्ट्रीय मुद्दों पर खींचने मंे विफल रहे क्योंकि कांग्रेस द्वारा बेरोजगारी से लेकर भ्रष्टाचार व शिक्षा से लेकर कृषि की बदतर हालत के मुद्दे किसी एक जाति या सम्प्रदाय अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं। ये मुद्दे एक समान रूप से देश के हर राज्य के लोगों को प्रभावित करते हैं।
इन्हें हल करने के लिए केन्द्रीय स्तर पर ही समग्र नीति बनाने की जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा पं बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने पिछला विधानसभा चुनाव मां, माटी और मानुष के मुद्दे पर जीत कर रिकार्ड बहुमत प्राप्त किया था। प. बंगाल की संस्कृति में हिन्दू -मुसलमान भेद के लिए कहीं कोई स्थान ही नहीं है। जो भी बांग्लाभाषी हैं वह बंगाली हैं और मन्दिर या मस्जिद जाना उसका निजी मामला है। मगर इस राज्य में ‘मथुआ’ समुदाय के लाखों लोग एेसे हैं जो बांग्लादेश से इधर आये हैं और उन्हें अभी तक नागरिकता प्राप्त नहीं हुई है। ये सभी हिन्दू दलित हैं। संसद में लम्बित पड़ा हुआ नागरिकता विधेयक बांग्लादेश से आने वाले हिन्दू शर्णार्थियों को ही भारतीय नागरिकता प्रदान करता है जबकि 1935 तक भारत का ही हिस्सा रहे म्यामांर के रोहिंग्या मुस्लिम नागरिकों को शरणार्थी का ही दर्जा देता है। जबकि दोनों ही अपने-अपने देशों में जुल्म होने की वजह से अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर हुए हैं।
भारत का संविधान भी स्पष्ट रूप से आदेश देता है कि कोई भी सरकार धर्म के आधार पर देश या विदेश तक के किसी भी नागरिक के साथ दोहरा व्यवहार नहीं कर सकती है लेकिन बांग्लादेश का मामला इसलिए संजीदा है कि इस देश में आज भी 11 प्रतिशत हिन्दू व तीन प्रतिशत बौद्ध आबादी है जिसे वहां के अन्य मुस्लिम नागरिकों के बराबर ही पूरे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। यहां के किसी भी नागरिक के साथ यदि किसी प्रकार का अन्याय होता है तो राष्ट्रसंग की मानवाधिकार पंचायत के रास्ते तक खुले हुए हैं और भारत के साथ उसके दोस्ताना ताल्लुकात को देखते हुए वहां की सरकार एेसा कोई भी खतरा नहीं मोल सकती जिससे भारत की दिक्कतें बढ़े। इसके साथ ही भारत भी ऐसा कोई खतरा नहीं मोल सकता जिससे पूर्वी सीमा पर हंसी-खुशी का माहौल न बना रहे। इसके लिए एक अकेला पाकिस्तान ही काफी है जो अपने नाजायजपन का सबूत देता रहता है और सीमा पर लगातार तनाव बनाये रखता है।
यह राष्ट्रीय मुद्दा है जिसे कुछ राज्यों के सन्दर्भ में देख कर राजनीति का खिलौना नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि इसके साथ हमारे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध जुड़े हुए हैं। अतः बहुत साफ है कि नागरिकता विधेयक के हक या विरोध में खड़ा होना सीधे हिन्दू या मुसलमान के हक या विरोध में खड़ा हुआ दिखाकर ममता बनर्जी के मां,माटी, मानुष सिद्धान्त को निशाने पर इस तरह लिया जा रहा है कि इससे वोटों का भी बंटवारा हो जाये। मगर लोकतन्त्र के चुनावी दौर में ऐसे मंजर आते रहते हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम अपनी सभाओं मंे ये नारे लगवाया करते थे कि ‘तिलक, तराजू और तलवार’ इनके मारो जूते चार’ मगर विचारणीय यह है कि एेसी विचारधारा से समाज ही टूटता है और इसके टूटने से देश ही कमजोर होता है क्योंकि मजबूत व समन्यवादी समाज ही मजबूत राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। इसीलिए लोकसभा चुनाव के मुद्दों का राष्ट्रीय धरातल पर अखिल भारतीय स्तर पर साझा होना जरूरी होता है और संकीर्ण सामुदायिक मुद्दे म्युनिसपलिटी चुनावों के लिए छोड़ दिये जाते हैं।