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संस्कृत और संस्कारों पर प्रहार

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संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण ने दुनियाभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है। इतिहास गवाह है कि जब भी किसी देश की जाति, संस्कृतिख, धर्म और इतिहास को नष्ट किया गया तो उसकी भाषा को सबसे पहले नष्ट किया गया। हजारों वर्ष पूर्व तक भारत में संस्कृत बोली जाती थी तभी तो ईसा से 500 वर्ष पूर्व पाणिणी ने दुनिया का पहला व्याकरण संस्कृत में लिखा था। इसका नाम अष्टाध्यायी है।

1100 ईस्वी तक संस्कृत भारत की राजभाषा के रूप में लोगों को जोड़ने की प्रमुख कड़ी थी। अरबों और अंग्रेजों ने सबसे पहले इसी भाषा को खत्म किया। भारत पर अरबी और रोमन लिपि और भाषा को लादा गया। भारत की कई भाषाओं की लिपि देवनागरी थी लेकिन उसे बदलकर अरबी कर दिया गया, तो कुछ को नष्ट ही कर दिया गया। यदि संस्कृत व्यापक स्तर पर बोली नहीं जाती तो व्याकरण लिखने की जरूरत ही नहीं होती। धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है, चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी। ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़ कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।नासा के पास संस्कृत में ताड़पत्रों पर लिखी 60 हजार पांडुलिपियां हैं जिन पर वह रिसर्च कर रहा है।

दुनिया में विज्ञान की तरक्की की बात की जाती है। उस विज्ञान की तरक्की संस्कृत भाषा में निहित है। नासा के वैज्ञानिकों को भी 15 दिन संस्कृत भाषा का अध्ययन कराया जाता है लेकिन अफसोस कि संस्कृत उपयोगिता के अभाव में समाप्त हो गई। हमने संकीर्ण स्वार्थ के कारण उसे नष्ट कर दिया। महाभारत के बाद हमने वेदों को और संस्कृत को केवल जन्मजात ब्राह्मण लोगों की भाषा बनाकर पूरे समाज को शिक्षा और वेद अध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया। वर्तमान इतिहास अंग्रेज शासकों द्वारा विकृत कर दिया गया और इस्लामी पराधीनता में संस्कृत पठन-पाठन समाप्त कर दिया गया। ईसाई और मुस्लिम विद्यालयों ने इसे समाप्त कर दिया। राजनीति द्वारा इसे सांप्रदायिक और सवर्णों की भाषा बताकर व्यवस्था से बहिष्कृत कर दिया गया।

स्वतंत्र भारत में संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन के कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए। संस्कृत केवल शिक्षण संस्थानों में प्रार्थना और स्लोगनों तक सीमित हो गई। संस्कृत साहित्य की उपेक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी सम्पदा नष्ट हो चुकी है। भारत में कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर विवाद होते रहे हैं। भाषा को लेकर विवाद भी होते रहे हैं लेकिन अब देशभर में केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत में होने वाली प्रार्थना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई है। केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत में प्रार्थना हो या नहीं हो, इस पर फैसला संविधान पीठ करेगी। ज​मीयत उलेमा-ए-​हिन्द और एक अधिवक्ता ने याचिका दायर कर केन्द्रीय विद्यालय संगठन के संशोधित एजुकेशन कोड को चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में प्रार्थना लागू है। इस सिस्टम को नहीं मानने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को भी इसे मानना पड़ता है।

मुस्लिम बच्चों को हाथ जोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। याचिका में यह भी कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में सुबह गाए जाने वाली संस्कृत की प्रार्थना एक धर्म विशेष से जुड़े धार्मिक संदेश हैं। संविधान के अनुसार सरकार द्वारा संचालित कोई भी विद्यालय या संस्थान ​िकसी भी वि​शिष्ट धर्म का प्रचार नहीं कर सकते, इसलिए रोक लगाई जाए। केन्द्र सरकार की आेर से पेश सालिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में कहा कि केन्द्रीय विद्यालयों की प्रार्थना संस्कृत में होने मात्र से किसी धर्म से नहीं जुड़ जाती है। असतो मां सद्गमय धर्मनिरपेक्ष है। यह तो सार्वभौमिक सत्य के बोल हैं। सुप्रीम कोर्ट के हर कोर्ट रूम में लगे चिन्ह पर भी संस्कृत में लिखा है-‘यतो धर्मस्ततो जयः’ यह महाभारत से लिया गया। इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक है।

संस्कृत को किसी धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत की विडम्बना है कि कभी यहां स्कूलों में सरस्वती वंदना पर विवाद हो जाता है तो कभी वंदेमातरम् पर। भाषाओं का ज्ञान तो संस्कार पैदा करता है, सभ्यताओं का मिलन कराता है लेकिन भारत में बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं के विपरीत संस्कृति और संस्कारों पर प्रहार किए जाते हैं। संस्कृत और संस्कृति आज समाज में लुप्त हैं, यही कारण है कि समाज में अपराध और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। संस्कृत और संस्कृति ही भारत को फिर से विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। कट्टरपंथी ताकतें इन्हीं संस्कारों को खत्म करने में जुटी हैं। देखना है संविधान पीठ क्या फैसला लेती है।

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