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तमिलनाडु की सियासत के मजबूत क्षत्रप

तमिलनाडु में जयललिता अम्मा और एम. करुणानिधि के निधन के बाद हुए लोकसभा चुनावों में कौन सा क्षत्रप बाजी मारता है, इस पर लोगों की नजरें लगी हुई थीं।

तमिलनाडु में जयललिता अम्मा और एम. करुणानिधि के निधन के बाद हुए लोकसभा चुनावों में कौन सा क्षत्रप बाजी मारता है, इस पर लोगों की नजरें लगी हुई थीं। जयललिता के निधन और उसके बाद हुए नाटकीय घटनाक्रमों के बीच उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक जबर्दस्त फूट का शिकार हो गई जिससे लोगों की उम्मीदें टूट गईं। अम्मा की अंतरंग सहेली शशिकला की नजरें राज्य की सत्ता पर थीं लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा जिसके बाद खींचतान और भी बढ़ गई। इस खींचतान से पार्टी का कैडर हताश हो गया था। पूर्व हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्षिण, हर जगह मोदी सुनामी ने विरोधी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया। कई क्षत्रपों को कमजोर कर दिया लेकिन तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व वाले गठबंधन ने मजबूती से अपने पांव जमाए रखे। तमिलनाडु की जनता ने द्रमुक, कांग्रेस, वीसीके, भाकपा, माकपा आर अन्य छोटी पार्टियों वाले गठबंधन के हक में फैसला सुनाया। एनडीए ने उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन और बिहार में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को धूल चटा दी लेकिन तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक, भाजपा और अन्य पार्टियों के गठबंधन की दाल नहीं गली। 
तमिलनाडु की 29 सीटों में द्रमुक ने 23, कांग्रेस ने 8 सीटें जीत लीं, अन्य 5 सीटें गठबंधन में शामिल छोटे दलों को मिलीं। भाजपा ने 5 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे लेकिन कोई भी जीत नहीं पाया। तमिलनाडु में टी.टी. दिनाकरण का फैक्टर पूरी तरह से नाकाम हो गया। अन्नाद्रमुक से बगावत करने वाले इस नेता को मतदाताओं ने कोई अहमियत नहीं दी। अधिकतर लोकसभा सीटों पर दिनाकरण की पार्टी के उम्मीदवार जमानत बचाने में भी नाकाम रहे हैं। द्रमुक गठबंधन की सफलता के पीछे पलानीसामी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी रुझान की अहम भूमिका रही। जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक के पास कोई करिश्माई नेता नहीं बचा। इससे विपक्षी गठबंधन की राह आसान हो गई और द्रमुक के सुप्रीमो एम.के. स्टालिन में लोगों को मजबूत नेता की छवि दिखाई दी। स्टालिन के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि के निधन के बाद दक्षिण भारत की राजनीति में वह शून्य पैदा हो गया था जिसे भर पाना आज के दौर के किसी राजनीतिज्ञ के लिए सम्भव दिखाई नहीं देता था। 
करुणानिधि केवल राजनीतिज्ञ ही नहीं थे बल्कि वह एक समाज सुधारक, चिन्तक और तमिल अस्मिता और उपराष्ट्रीयता के एक ऐसे विचारशील प्रणेता थे जिन्होंने भारतीय संघ की एकता को कायम रखते हुए क्षेत्रीय सम्मान और शालीन पहचान देने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। दक्षिण भारत में हिन्दी थोपने के विरुद्ध आंदोलन में हिस्सा लेकर उन्होंने केवल 14 वर्ष की आयु में सिद्ध कर दिया था कि त​मिल संस्कृति की गहरी जड़ों का विस्तार भारत की एकता में कहीं बाधक नहीं है। उन्होंने तमिल भाषा को संस्कृत के बराबर शास्त्रीय दर्जा ही नहीं दिलाया बल्कि यह भी सिद्ध कर दिया कि द्रविड़ संस्कृति भारत की वसुधैव कुटुम्बकम मान्यता का ही जीता-जागता स्वरूप रही है। उन्होंने दलितों, पिछड़ों को अपने शासनकाल में वह स्थान दिलाने में कड़ी मेहनत की जिसकी परिकल्पना कभी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने की थी। उन्होंने ही राज्य में सामाजिक न्याय की अलख जगाई थी और दलितों, पिछड़ों को 69 प्रतिशत आरक्षण दिया था। तमिलनाडु ने भारतीय सियासत में यह संदेश दिया कि किस प्रकार राज्यों के सशक्त होने से देश मजबूत होता है। इस राज्य की सियासत यही है कि जो सामाजिक न्याय के ध्वज को ऊंचा करके रखेगा, उसे ही जनता सम्मान देगी। 
एम.के. स्टालिन की जीत बताती है कि लोगों ने उन्हें करुणानिधि की विरासत का असली उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया है। दूसरी तरफ द्रमुक अवसरवादी नेताओं का जमावड़ा बन चुकी है। जिन दलों से उसने गठबंधन किया, उनके वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर ही नहीं हुए। जीत के बाद एम.के. स्टालिन ने कहा है कि अब वे दिन गए जब हिन्दी पट्टी के लोग देश की दशा और दिशा तय करते थे। अब केन्द्र सरकार को देश के समग्र विकास पर ध्यान देना होगा। हमने जो रणनीति अपनाई है वही अन्य राज्यों को भी अपनानी होगी। अब यह रचनात्मक राजनीति का समय है। द्रमुक ने 22 विधानसभा उपचुनावों में  13 सीटों पर विजय हासिल की है जिसके बाद तमिलनाडु विधानसभा में पार्टी सदस्यों की संख्या 101 हो गई है। तमिलनाडु में फिल्मी सितारों के प्रति आकर्षण उनके न्याय के लिए लड़ने के किरदारों से ही पैदा होता आया है। फिलहाल द्रमुक एक मजबूत क्षत्रप बनकर उभरी है। देखना है कि स्टालिन अपने पिता की तरह राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका किस तरह निभाते हैं।

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