लगता है कांग्रेस का जहाज अब ऐसे तूफान में फंस गया है जिससे बाहर निकलने के चक्कर में वह घूम-फिर कर वापस उसी भंवर में फंस जाता है जो तूफान से ही निर्मित होता है। भारत को अंग्रेजी दासता से आजादी दिलाने वाली पार्टी का अस्तित्व यदि एक ही परिवार की आभा और प्रतिष्ठा पर निर्भर हो जाता है तो समझना चाहिए कि वह बदलते वक्त के साथ कदम-ताल नहीं कर पा रही है क्योंकि लोकतन्त्र में किसी भी राजनैतिक दल के मजबूत रहने की पहली शर्त समयानुकूल नेतृत्व पैदा करने की होती है और जिसे किसी सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता। बेशक राजनैतिक परिवारों या व्यक्तित्वों का लोकतन्त्र में अपना महत्व और प्रतिष्ठा होती है परन्तु बदलते समय के अनुरूप इन्हें भी अपने स्वरूप और संरचना में परिवर्तन करना पड़ता है जिससे उनके आशीर्वाद से चलने वाले राजनैतिक दल में जीवन्तता बनी रहे।
श्रीमती सोनिया गांधी ने निःसन्देह कांग्रेस पार्टी के प्रभाव काल को सुनहरे समय में तब्दील करने में सफलता प्राप्त तब की थी जबकि इस पार्टी के समक्ष भाजपा की चुनौती मुंह बाये खड़ी हो गई थी। उन्होंने उस समय बहुत ही शालीनता के साथ अपने पुरखों की पार्टी को जोड़े रखने और उसे विपक्ष से सत्ता पक्ष में बैठाने में सफलता हासिल की थी किन्तु यह भी सत्य है कि उनकी ही जिद पर उनके युवा पुत्र राहुल गांधी को कांग्रेस के पूरे दस साल के केन्द्रीय शासन के दौरान राजनीति में स्थापित करने के सभी राजकीय प्रयास किये गये और अन्ततः कांग्रेस संगठन में उनके रहते ही उन्हें उपाध्यक्ष से अध्यक्ष के आसन तक पहुंचाया गया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बड़े राजनीतिक कद के सामने कांग्रेस अपनी राजनीतिक चमक खोती गई किन्तु अंग्रेजी में एक कहावत है कि कलाकार पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते। यदि ऐसा होता तो प्रख्यात उद्योगपति घराने में जन्में ‘विनय भरतराम’ आज देश के प्रख्यात शास्त्रीय गायक होते। उन्हें संगीत राग कला सिखाने के लिए एक से एक बड़े शास्त्रीय गायक मौजूद थे और इसमें उनके समक्ष किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं थी। मैं श्री विनय भरतराम की शान में कोई गुस्ताखी नहीं कर रहा हूं बल्कि केवल इतना निवेदन कर रहा हूं कि ‘नाद ब्रह्म’ की वैज्ञानिकता की सारी सुविधाएं मिलने के बावजूद वह उस स्तर तक नहीं ले जा पाये जिसकी एक शास्त्रीय गायक से सम्पूर्णता में अपेक्षा होती है। वैसे उनकी संगीत साधना प्रशंसनीय है जिसके लिए वह समूचे उद्योग जगत में डीसीएम लिमिटेड के चेयरमैन होने के बावजूद विशिष्ट स्थान रखते हैं।
इसी प्रकार राजनीति भी एक अद्भुत कला की श्रेणी में आती है जो व्यक्ति के मस्तिक और हृदय के तारों को जोड़ते हुए आम जनता के स्वरों का गायन करती है। इसमें वैज्ञानिकता का पुट भी होता है जिससे वह आने वाले ‘कल’ की परिकल्पना अपने ‘आज’ में आसानी से कर लेती है। बिना शक इसमें मस्तिष्क की भूमिका केन्द्र में होती है जिससे सामाजिक विकास के ढांचे को कोई भी राजनीतिज्ञ विचारों के तारों में पिरोकर झंकृत करता है और आम जनता का मन मोह लेता है। यह गुण सिखाने से प्राप्त नहीं होता बल्कि राजनीतिज्ञ के रगों में खून बनकर दौड़ता है। भारत में शिखर तक पहुंचे राजनीतिज्ञों में यह गुण किशोरावस्था से ही पाया गया। उन्हें राजनीति सिखाने के लिए गुरुओं की नियुक्तियां नहीं की गईं।
इन सभी राजनीतिज्ञों ने हर चूक को स्वर्ण अवसर में बदलने में महारथ स्वयं ही हासिल की और आम जनता के भारी समर्थन के साथ की परन्तु कांग्रेस के साथ दिक्कत यह पैदा हो चुकी थी कि इसकी आदत बिना सड़कों पर संघर्ष किये ही सत्ता में मौजूद विरोधी पार्टी के कामों से आजिज आ चुकी जनता द्वारा उसे ही पुनः सत्ता सौंपने के विकल्प (बाई डिफाल्ट) से बिगड़ चुकी थी जिसका तोड़ बहुत चालाकी के साथ भाजपा ने सत्ता पक्ष में लहर (प्रो इन्कम्बेंसी) से निकाला। जाहिर है इसका तोड़ निकालना श्री राहुल गांधी के बस की बात साबित नहीं हुई और 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में अच्छी जीत प्राप्त करने के बावजूद उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी रसातल में पहुंच गई। चुनावी विमर्श बदलने में राजनीतिज्ञ कबूतर और बाज का खेल खेलते हैं अथवा ऐसा विमर्श खड़ा कर देते हैं जिसके समक्ष खींची गई हर लकीर स्वतः ही छोटी पड़ती चली जाये।
लोकतन्त्र की यही कला जनता में व्यक्तित्व की स्थापना करती है। अतः राहुल गांधी ने स्वयं को इस कला में अपूर्ण मानते हुए अपना इस्तीफा दिया है तो उसका प्रत्येक कांग्रेसी को सम्मान करना चाहिए परन्तु श्रीमती सोनिया गांधी को नये अध्यक्ष पद का चुनाव होने तक अंतरिम अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस की कमान सौंप दी गई है लेकिन अब वह पुराना समय नहीं रहा। कांग्रेस के लिए यह बहुत ही संकटपूर्ण समय है जिसमें श्रीमती प्रियंका गांधी एक सम्बल बनकर उभर सकती हैं मगर इसके लिये विलम्ब क्यों किया जा रहा है? कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम की पैरवी कर चुके हैं।