अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष अंकित बसोया को फर्जी डिग्री मामले में घिरने के बाद सभी पदोेें से निकाल दिया। इसके बाद अंकित बसोया को छात्र संघ अध्यक्ष पद भी छोड़ना पड़ा। इस पूरे प्रकरण से एबीवीपी की जमकर किरकिरी हुई है। अंकित बसोया पर कांग्रेस की छात्र इकाई नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन आफ इंडिया ने आरोप लगाया था कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिये फर्जी डिग्री का सहारा लिया है। इसकी जांच की गई तो तिरुवेल्लुवर यूनिवर्सिटी ने इस बात की पुष्टि कर दी कि अंकित की डिग्री फर्जी है और उसने ऐसे किसी नाम के छात्र को दाखिला देने की बात से इनकार किया और कहा कि उस सीरियल नम्बर की मार्क शीट उनके रिकार्ड में ही नहीं है। इस प्रकरण से अंकित का करियर तो चौपट हुआ ही बल्कि छात्र राजनीति में खुद को चमका कर किसी बड़े सियासती पद पर पहुंचने की उम्मीदें भी धराशायी हो गईं।
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ को सियासत में पर्दापण करने की नर्सरी माना जाता है। इतिहास को देखें तो आज अनेक शीर्ष राजनीितज्ञ ऐसे हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से ही आये हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में सियासत गर्म है। आरोप-प्रत्यारोपांे का सिलसिला जारी है। विश्वविद्यालय प्रशासन पर जांच में देरी पर सवाल उठाये जा रहे हैं। फर्जी डिग्री के आधार पर दाखिला लेना या नौकरी हासिल कर लेने की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं क्योंकि फर्जी डिग्रियों के कई मामले सामने आ चुके हैं। भारतीय राजनीति के इतिहास और राजनीतिज्ञों पर अध्ययन के लिये यह कोई नया अध्याय नहीं है। पहले भी इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। सवाल किसी एक राजनीितक पार्टी या संगठन का नहीं, जब भी सत्ता में शीर्ष पदों पर पहंुचने की महत्वाकांक्षायें पालने वाले लोग अनैतिक हथकंडों का सहारा लेंगे तब-तब ऐसे परिणाम सामने आयेंगे ही। दिल्ली वाले पहले भी देख चुके हैं कि कैसे एक आम युवा किसी नेता के साथ वर्षों काम करते-करते खुद को नेता बना लेता है। चुनाव भी जीत जाता है, कानून मंत्री भी बन जाता है और एक दिन कानून की फर्जी डिग्री के चलते उसे पुलिस हिरासत में ले लिया जाता है। उसे कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता है।
सवाल राजनीति की शुचिता और पवित्रता का भी है। अब सियासत में नैतिकता तो बची नहीं, फिर भी अब नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों का ढिंढोरा पीट रहे हैं। सवाल केवल अंकित बसोया की फर्जी डिग्री तक सीमित नहीं हाेना चाहिए। चिंतन-मंथन इस बात पर होना चाहिए कि दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐसे कितने छात्र हैं जिन्होंने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर दाखिला लिया है जबकि योग्य और प्रतिभा सम्पन्न छात्रों को दाखिला ही नहीं मिला होगा। चिंतन इस बात पर भी होना चाहिए कि फर्जी डिग्रियां कैसे लाइसेंसी बन जाती हैं? कैसे इन डिग्रियों काे मान्यता मिल जाती है? मानव संसाधन मंत्रालय समय-समय पर एडवाइजरी जारी करता रहता है कि भारत में फर्जी डिग्रियों को बनाने का बड़ा नेटवर्क काम कर रहा है।
यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन भी फर्जी संस्थानों के बारे में सूची जारी करता रहता है। इसके बावजूद आज भी प्राइवेट संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों में काम करने वाले 50 फीसदी लोगों की डिग्री फर्जी होने का अनुमान है। चाहे अनुभव प्रमाण पत्र हो, जाति प्रमाण पत्र हो या कोई अन्य प्रमाण पत्र, अिधकतर फर्जी बनाये गये होते हैं। एमबीए की डिग्री हो या पीएचडी की डिग्री सब पैसे लेकर बांटी जा रही हैं। कुछ संस्थान तो ऐसे हैं जो घर बैठे युवाओं को इंजीनियर बना देते हैं। तय फीस चुकाओ और इंजीनियर होने को प्रमाण पत्र प्राप्त करो। आखिर ऐसी नौबत क्यों आई। देश भर में कालेजों आैर विश्वविद्यालयों का जाल बिछा हुआ है। यह सब माया जाल है। शिक्षा के व्यावसायीकरण के चलते ऐसा नेटवर्क स्थापित हो गया है जो केवल फर्जी डिग्रियां बेचता है। उत्तर प्रदेश, बिहार हो या दक्षिणी राज्य, सब जगह ऐसे गिरोह सक्रिय हैं।
मानव संसाधन मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग केवल फर्जी संस्थानों की सूची तो जारी कर देता है लेकिन आज तक उसने इन संस्थानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। जरूरत है ऐसी व्यवस्था बनाने की जिसमें फर्जीवाड़े के लिये कोई जगह ही नहीं बचे। अगर बहुराष्ट्रीय कंपनियाें और बैंकिंग सैक्टर में फर्जीवाड़ा नहीं हो सकता तो ऐसा शिक्षा के क्षेत्र में भी होना चाहिए। फर्जी डिग्री लेने वाले ‘मुन्नाभाइयों’ की योग्यता क्या होगी? फर्जी डिग्री के आधार पर दाखिला या नौकरी लेना केवल विश्वसनीयता के हनन का मामला नहीं है बल्कि यह एक गंभीर मामला है। अयोग्य व्यक्तियों की जिम्मेदार पद पर नियुक्ति के परिणाम काफी घातक हो सकते हैं। राजनीति में जिनकी शुरूआत ही भ्रष्ट आचरण से हो उनसे भविष्य के लिय क्या उम्मीद की जा सकती है। सियासत में ‘मुन्नाभाई’ आखिर राष्ट्र कब तक सहन करेगा। जरूरत इस बात की है कि कोई ऐसा तंत्र स्थापित किया जाये ताकि विश्वविद्यालय स्तर पर ही फर्जी डिग्री का पता चल जाये।