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विनाश की राह पर महाशक्तियां

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पिछली सदी के मध्य यानी सन् 1947 से 1991 तक दुनिया के राष्ट्र दो गुटों में विभाजित रहे। एक तरफ अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी लोकतांत्रिक देशों का गुट था तो दूसरी तरफ सोवियत संघ और उसके सहयोगी साम्यवादी देशों का गुट था। यह शीतयुद्ध का काल माना जाता है क्योंकि इन गुटों में कभी आमने-सामने की लड़ाई नहीं हुई किन्तु परोक्ष रूप से कई युद्धों में गुट विरोधी पक्षों को समर्थन देते रहे। इस काल में विश्व के युद्ध दो गुटों में बंटकर एक-दूसरे के सामने भृकुटियां ताने खड़े थे और कई राष्ट्र दो महाशक्तियों की आपसी जोर-आजमाईश में मोहरा बने बैठे थे। परमाणु अस्त्र बनाने की होड़ मची थी और इनके अम्बार खड़े कर लिए थे। उसी काल में भारत, मिस्र, इंडोनेशिया आदि देशों ने गुटनिरपेक्ष देशों का एक संगठन खड़ा करने की कोशिश तो की किन्तु यह संगठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष प्रभावी नहीं हो पाया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का एक संस्थापक सदस्य होने के बावजूद भारत का झुकाव सोवियत संघ की तरफ रहा। इसका कारण यह था कि सोवियत संघ ने हमेशा हमारा साथ दिया जबकि अमेरिका ने हमेशा भारत विरोधी रुख अपनाकर पाकिस्तान की हर सम्भव मदद की।

विश्व शांति की जितनी बातें अमेरिका ने कीं उतनी बातें आज तक ​किसी दूसरे देश ने नहीं कीं। सारी दुनिया में आवाजें उठने लगीं कि एटम बम के आविष्कार के बाद कोई समस्या जंग से हल नहीं हो सकती। हिरोशिमा, नागासाकी पर परमाणु बम के हमले के बाद परमाणु हथियारों को विश्व मानवता के प्रति सबसे बड़े षड्यंत्र के रूप में परिभाषित किया गया। 12 जून, 1968 को सर्वप्रथम न्यूक्लियर नान प्रोटिक्रेशन ट्रीटी पर विचार-विमर्श के लिए बैठक हुई और विश्व के संयुक्त राष्ट्र संघ के 95 देशों ने वोट डालकर इस संंधि का समर्थन किया और 5 देशों ने विरोध किया। 21 देश अनुपस्थित रहे। यह सब संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में हुआ। 1 जुलाई, 1972 को एंटी मिसाइल बैन ट्रीटी पर हस्ताक्षर हुए। इसके तहत यह तय किया गया कि न तो अमेरिका और न ही सोवियत संघ भविष्य में आईसीवीएम की संख्या बढ़ाने के लिए और उपक्रम करेंगे। एक तरफ परमाणु ऊर्जा बढ़ती चली गई। दूसरी तरफ संधियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। सांप और सीढ़ी का खेल तब भी चल रहा था और यह आज भी चल रहा है।

11-12 अक्तूबर, 1988 को अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत नेता रोक्कयाविक की बैठक हुई। वहां भी करीब-करीब समझौता हो जाता परन्तु अमेरिका ने कुछ अपरिहार्य कारणों से स्टारवार के क्षेत्र में शोध करने को बन्द करने से इन्कार कर दिया। यहां मैं ​दिल्ली घोषणा पत्र की बात न करूं तो बात अधूरी ही रह जाएगी। 27 नवम्बर, 1988 के दिन सोवियत संघ के नेता मिखाइल गोर्वाच्योब आैर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव भांधी ने निरस्त्रीकरण के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई। राजीव गांधी ने तब अपने भाषण में कहा थाः-

‘‘आज सारी विश्व मानवता इतिहास के उस चौराहे पर खड़ी है, जहां वह उपलब्धियां, जो मानव ने सदियों की मेहनत से प्राप्त की हैं केवल वह ही परमाणु विनाश से समाप्त नहीं हो जाएंगी अपितु सारी मानवता का भविष्य आज खतरे में पड़ गया है और मनुष्य मात्र के भी चिन्तित होने की संभावनाएं भी काफी बढ़ गई हैं। इस परमाणु युग में सारी मानवता को यह मिलकर फैसला करना होगा कि उसे भविष्य में क्या करना है। वक्त आ गया है कि विश्व स्तर पर पूरी गम्भीरता से विचार हो कि हम आने वाली नस्लों को एक शांतिपूर्ण दुनिया दे सकेंगे कि नहीं।’’ परमाणु मुक्त विश्व की कल्पना को साकार करने के लिए कई घोषणाएं की गईं।

तब से लेकर आज तक हुआ यही कि महाशक्तियों के रक्षा बजट बढ़ते गए। सोवियत संघ बिखर गया फिर रूस आज भी बहुत बड़ी शक्ति है। अब रूस अपने पुराने वैभव में लौट चुका है। अब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शीतयुद्ध के समय की महत्वपूर्ण मिसाइल संधि से अलग होने की घोषणा कर दी तो रूस ने भी इस संधि में अपनी भागीदारी को स्थगित कर दिया। रूस ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह अब निरस्त्रीकरण पर अमेरिका के साथ बातचीत की पहल नहीं करेगा। अमेरिका ने आरोप लगाया कि रूस मिसाइल संधि का उल्लंघन कर प्रतिबंधित परमाणु मिसाइल विकसित कर रहा है और उसने मध्यम दूरी की मिसाइल प्रणाली से संधि को तोड़ा है। रूसी राष्ट्रपति पहले ही कह चुके हैं कि संधि तोड़ने के बाद अमेरिका यूरोप में अधिक मिसाइलें तैनात करता है तो रूस भी उसी तरह से जवाब देगा। यूरोप का कोई देश अपने यहां अमेरिकी मिसाइलें लगाने की सहमति देता है तो उस पर रूसी हमले का खतरा मंडराएगा।

अमेरिका और रूस में तनातनी बढ़ चुकी है। दुनिया के कई देश अमेरिका और रूस का अखाड़ा बन चुके हैं। अगर आप किसी पहलवान को रिंग से बाहर करने की कोशिश करेंगे तो वह पूरी शक्ति से प्रति आक्रमण करेगा। अगर अमेरिका रूस पर अधिक दबाव डालता है तो डर इस बात का है कि रूस भी सहनशक्ति खोकर उलटवार कर सकता है। यदि ऐसा होता है तो दुनिया का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। संधि के चलते परमाणु हथियार सम्पन्न मिसाइलें दागने पर रोक थी लेकिन अब 310 से लेकर 3100 मील की दूरी तक ही मिसाइलों का रास्ता खुल गया है। अब यूरोप में परमाणु हथियारों की होड़ बढ़ेगी। चीन जैसे देश तो पहले से ही रक्षा तैयारियों में काफी आगे बढ़ चुके हैं। महाशक्तियां फिर विनाश की राह पर चल पड़ी हैं।

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