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सर्वोच्च न्यायालय का सिंहनाद

12 जनवरी का दिन भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में ‘खेत-खलिहान दिवस’ के रूप में याद रखा जायेगा क्योंकि इस दिन देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए उन तीन कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जिन्हें लेकर पूरे देश के किसानों में भयंकर बेचैनी का आलम था और वे पिछले लगभग 50 दिनों से प्रदर्शन कर रहे थे।

12 जनवरी का दिन भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में ‘खेत-खलिहान दिवस’ के रूप में याद रखा जायेगा क्योंकि इस दिन देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए उन तीन कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जिन्हें लेकर पूरे देश के किसानों में भयंकर बेचैनी का आलम था और वे पिछले लगभग 50 दिनों से प्रदर्शन कर रहे थे। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह किसानों का अभी तक का सबसे लम्बा आंदोलन है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए.बाेबडे के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यीय पीठ ने इन कानूनों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर निर्णय देते हुए स्पष्ट कर दिया कि किसानों की मांगों के प्रति सरकार की संवेदनशीलता जरूरी है। अपने फैसले में तीनों न्यायमूर्तियों ने साफ कहा है कि अगले आदेश तक ये कानून पूरे भारत में किसी भी राज्य में लागू नहीं होंगे। इसके साथ ही न्यायालय ने एक कृषि विशेषज्ञ समिति गठित करने का भी फैसला किया जो सर्वोच्च न्यायालय को तीनों कानूनों की व्यावहारिकता आदि के बारे में अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट देगी जिससे उसे अपना अंतिम फैसला देने में सुविधा हो सके परन्तु आगामी 26 जनवरी को आन्दोलकारी किसानों द्वारा दिल्ली में ‘ट्रैक्टर रैली’  निकाले जाने के मामले को भी गंभीरता से लिया है और इस बाबत सम्बन्धित पक्षों को नोटिस जारी किया है। आन्दोलकारियों में पंजाब के किसानों की संख्या ज्यादा होने की वजह से ये आरोप भी लगाये जा रहे थे कि आन्दोलन में कुछ खालिस्तान समर्थक तत्व घुस आये हैं। इस बारे में भी एक याचिका न्यायालय के विचाराधीन थी जिसके जवाब में सर्वोच्च अदालत ने  केन्द्र सरकार को नोटिस देकर कहा है कि वह इस बारे में उसके समक्ष शपथ पत्र दाखिल करे। न्यायिक इतिहास में यह कोई छोटी घटना नहीं है क्योंकि विद्वान न्यायाधीशों ने कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने से पहले इन पर रोक लगाने का फैसला किया है। किसानों के बारे में बने कानूनों का सीधा सम्बन्ध इस देश की उस साठ प्रतिशत जनता से है जिसकी आजीविका खेती पर ही निर्भर करती है।
 देश की साठ प्रतिशत आबादी की बेचैनी का संज्ञान यदि इस देश की न्याय व्यवस्था नहीं लेगी तो फिर कौन लेगा ? वह भी तब जब नये कानून बनाने वाली सरकार यह समझती हो कि नई प्रणाली के लागू होने से किसानों की माली हालत में सुधार होगा। अतःसर्वोच्च न्यायालय ने किसानों और सरकार के मौजूदा वार्तातन्त्र के बीच जमी हुई बर्फ को पिघलाने का काम किया है।  भारत की अर्थव्यवस्था के सूत्रधार और सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत अंश कृषि क्षेत्र को लगातार आन्दोलन के दौर में बनाये रख कर अंततः सम्पूर्ण देश व समाज का विकास ही अवरुद्ध होता है। अतः सर्वोच्च न्यायलय को कानूनों पर रोक लगाने जैसा विलक्षण फैसला करना पड़ा है। यह फैसला राष्ट्रहित का फैसला ही कहा जायेगा क्योंकि जिस तरह कुछ अन्य किसान संगठन प्रायोजित समर्थन रैलियां कर रहे थे उससे समूचे ग्रामीण क्षेत्र में आपसी द्वन्द को बढ़ावा मिलता। अतः बहुत जरूरी है कि आन्दोलकारी किसान अब शान्ति के साथ अपने आन्दोलन को ठंडा करें और सर्वोच्च न्यायालय के अन्तिम फैसले की प्रतीक्षा करें। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आज के फैसले में साफ कर दिया है कि वह इन कानूनों की संवैधानिकता के बारे में फैसला विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट आने के बाद ही करेगा परन्तु इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अंतिम फैसला आने तक कानून समर्थक भी अपनी गतिविधियां मुल्तवी रखें क्योंकि हमने देखा है कि हरियाणा में क्या हुआ? सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम श्रम का सम्मान करें और इसकी महत्ता को समझें। जब सरदार पूर्ण सिंह ने अपनी प्रसिद्ध लेखमाला ‘श्रम की महत्ता’ लिखी थी तो उस समय भारत आजाद ही हुआ था । मगर उनके विचारोत्तेजक लेखों से इतना तो हुआ कि प्रजातान्त्रिक सरकारों ने उनके मंतव्य को समझ कर देश की सम्पत्ति में मजदूरों की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रयास करने शुरू किये और उसी की बदौलत आज भारत दुनिया के बीस बड़े औद्योगिक राष्ट्रों में गिना जाता है। बेशक पूंजी की भी महत्ता होती है मगर श्रम के बिना वह ‘अनाज में थोथे’ के समान ही होती है। 
जब महात्मा गाधी से किसी विदेशी पत्रकार ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान यह पूछा कि ‘‘बापू आप स्वतन्त्र होने पर सबसे अधिक वरीयता किसे देंगे तो राष्ट्रपिता ने उत्तर दिया था कि मैं स्वावलम्बन और किसान को सबसे ऊंचे पायदान पर रखूंगा क्योंकि गांव स्वावलम्बी होंगे तो देश स्वावलम्बी बनेगा।’’ अतः बदलते दौर में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था होने के बावजूद यह फार्मूला बदला नहीं है क्योंकि भारत ने विकास तभी किया है जब यहां कृषि क्रान्ति हो गई और देश अन्न उत्पादन में स्वावलम्बी बन गया। जाहिर है इसके मूल में किसान की मेहनत ही थी। अतः सर्वोच्च न्यायलय द्वारा कृषि विशेषज्ञ समिति का गठन करने का लक्ष्य यही  लगता है कि जो भी फैसला हो वह जमीनी हकीकत की रोशनी में हो। हालांकि इस बारे में टिप्पणी करना पत्रकारों का काम नहीं है।

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