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सर्वोच्च न्यायालय लोकतन्त्र का अभिभावक

देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने यह कह कर भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली की संघीय व्यवस्था में गुंथी हुई स्वर लहरी के सभी सुरों को झंकृत कर दिया है

देश के  प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमण ने यह कह कर भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली की संघीय व्यवस्था में गुंथी हुई स्वर लहरी के सभी सुरों को  झंकृत कर दिया है कि सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका लोकतन्त्र के अभिभावक की है। इसकी वजह यह है कि भारत की न्यायप्रणाली इसलिए अनूठी नहीं है कि इसका लिखा हुआ संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है बल्कि इसलिए अप्रतिम है कि देश के लोगों का इसमे अटूट और भारी विश्वास है। उन्हें विश्वास है जब भी कहीं कुछ गलत होगा तो न्यायपालिका उनके साथ खड़ी मिलेगी और न्याय होगा। लोगों का विश्वास है कि न्यायपालिका से उन्हें राहत व न्याय दोनों मिलेंगे। न्यायमूर्ति रमण के इस कथन से भारत की न्यायपालिका के निष्पक्ष व स्वतन्त्र रुख की अभिव्यक्ति होती है बल्कि यह निष्कर्ष भी निकलता है। भारत के लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को किसी भी सूरत में खतरा पैदा नहीं हो सकता और लोकतान्त्रिक प्रणाली के निडरता व निर्भयता के साथ काम करने में कहीं कोई अड़चन नहीं आ सकती। संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को पद व गोपनीयता की शपथ दिलाने के अधिकार से प्राधिकृत मुख्य न्यायाधीश का यह बयान देश के हर क्षेत्र में लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा होने की घोषणा भी करता दिखाई पड़ता है। केवल विधान के शासन की गारंटी करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के स्वतन्त्र भारत के इतिहास में ऐसे कई अवसर आये हैं जब इसने सम्पूर्णता में भारतीय शासन पद्धति को संविधान की कसौटी पर कसने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। 
उन्होंने यह भी कहा कि भारत कई धर्मों और संस्कृतियों का घर है, जो विविधता के माध्यम से इसकी एकता में योगदान करते हैं और यहीं पर न्याय और निष्पक्षता की सुनिश्चित भावना के साथ कानून का शासन चलन में आता है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय सबसे बड़े लोकतंत्र का संरक्षक है।
संविधान, न्याय प्रणाली में लोगों की अपार आस्था के साथ सर्वोच्च न्यायालय के आदर्श वाक्य-यतो धर्मस्ततो जय, यानी जहां धर्म है, वहां जीत है, को जीवन में लाया गया है। मुख्य न्यायाधीश ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धा​र्मिक कारणों से किसी भी समाज में संघर्ष अपरिहार्य है लेकिन संघर्षों के साथ-साथ संघर्ष समाधान के लिए तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है। उन्होंने मध्यस्थता को भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के एक उपकरण के रूप में वर्णित किया। उन्होंने संघर्ष समाधान उपकरण के रूप में महाभारत का उदाहरण भी दिया। जहां भगवान कृष्ण ने पांडवों और कौरवों के बीच विवाद में मध्यस्था करने का प्रयास किया। यह भी याद रखना होगा कि महाभारत में मध्यस्थता की विफलता के विनाशकारी परिणाम हुए।
न्यायपालिका को लोकतंत्र का संरक्षक या अभिभावक बताने और इसको आम लोगों के लिए खड़े होने वाली टिप्पणी करने से पहले राजद्रोह कानून पर सुनवाई के दौरान भी मुख्य न्यायाधीश का यही विचार झलका था। उनके नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने पूछा था कि देश के आजाद होने के 75 वर्ष बाद भी क्या राजद्रोह के कानून की जरूरत है। जब भी लोगों के मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात हुआ न्यायपालिका ने बड़ी भूमिका निभाई है।
भारत के लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका सर्वोच्च इसलिए रही है की  इसका दलगत राजनीति से किसी प्रकार का कोई लेना-देना नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश विक्रमादित्या का वह अवतार होता है जो अपने सिंहासन पर बैठते ही संविधान की रूह में समा जाता है और अपनी हस्ती को उसके ‘हरफो’ में ही ​मिटा देता है, इसलिए तो न्यायमूर्ति के अलावा उसके लिए कोई दूसरा शब्द उपयुक्त नहीं बैठता है। भारत की न्याय प्रणाली की साख पूरी दुनिया में ऊंचे पायदान पर है। भारत की न्यायपालिका ने ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक फैसले दिए हैं जिससे न केवल न्याय हुआ बल्कि उसने कई बार लोकतंत्र की रक्षा की है।
बाबा साहेब अम्बेडकर ने तो हमें शुरू से ही सर्वोच्च न्यायालय देकर तय किया की संसद में बनाए गए कानून की जांच भी संविधान की कसौटी पर होगी और यह काम सर्वोच्च न्यायालय ही करेगा। हमारे देश की न्याय व्यवस्था ने 1975 में प्रधानमंत्री तक की गलत कार्रवाई को अवैध घोषित करने में कोताही नहीं बरती। 
इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश स्वर्गीय जगमोहन सिन्हा ने तब स्वर्गीय इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुना कर साबित किया था की भारत में कोई व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि कानून का शासन है। हाल में आईटी एक्ट की निरस्त की जा चुकी धारा 66-ए के तहत दर्ज किए गए मुकदमों के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘इस देश में आखिर हो क्या रहा है। अंततः केन्द्र ने सभी राज्यों को ​निर्देश दिए कि धारा 66-ए के तहत केस वापिस लेने और इस धारा के तहत कोई केस दर्ज न किया जाए। इस तरह न्यायपालिका ने लोगों के अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा ही की है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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