भारत में मीडिया या स्वतंत्र प्रेस की भूमिका लोकतन्त्र के चौथे खम्भे की तरह समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने इसलिए बताई थी कि यह उस आम आदमी के लिए न्याय पाने का अन्तिम दरवाजा था जिसे लोकतन्त्र के तीनों खम्भों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका से भी न्याय न मिल पाया हो।
बेशक भारत की न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बहुत ऊंची रही है और आम लोगों को इस पर पूर्ण भरोसा और निष्ठा भी है परन्तु कभी-कभी भारी खर्च उठाने में नाकाबिल आदमी इसका दरवाजा खटखटाने से महरूम रह जाता है। अतः वह मीडिया या अखबार के दरवाजे पर जाकर अपनी गुहार लगा देता था जिससे उसकी आवाज सत्ता के गलियारों में गूंज जाती थी और एेसे भी अवसर भारत में सैकड़ों बार आये जब मीडिया द्वारा उठाये गये मुद्दे संसद में बहस का विषय बने।
इसमें सबसे बड़ा मामला भ्रष्टाचार से ही जुड़ा था। प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के दामाद स्व. फिरोज गांधी ने जब लोकसभा में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में छपी इस खबर का हवाला पचास के दशक में दिया था कि तत्कालीन वित्त मन्त्री टी.टी. कृष्णमंचारी ने देश के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा को सरकारी ऋण देने में घपला किया है तो पं. नेहरू ने तुरन्त कार्रवाई करते हुए उनके खिलाफ स्व. एम.सी. छागला के नेतृत्व में जांच कमीशन बैठा दिया था जिसने अपनी रिपोर्ट रिकार्ड 22 दिनों में ही दे दी थी।
इस रिपोर्ट में श्री कृष्णमंचारी पर शक जाहिर किया गया था कि उन्होंने हरिदास मूंदड़ा की कम्पनी ‘मूंदड़ा-साहू एयरवेज’ के बहुत कम मूल्य के शेयरों की एवज में भारतीय जीवन बीमा निगम से सवा करोड़ रु. का ऋण दिलाने में मदद की। बाद में यह मामला उच्च न्यायालय में गया जहां से श्री कृष्णमंचारी बेदाग छूटे और बाद में पुनः वित्त मन्त्री भी बने। इसी प्रकार अखबारों ने न जाने कितने कांडों का भंडाफोड़ अब तक किया है और सामान्य आदमी को न्याय दिलाने का कार्य भी किया है।
इस सन्दर्भ में जिला व तहसील स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कई मामले गिनाये जा सकते हैं परन्तु भारत मंे उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद इलैक्ट्रानिक मीडिया क्रान्ति होने से इस क्षेत्र में एेसा बदलाव आया है जिससे बाजार की शक्तियां इस क्षेत्र में प्रभावी हो रही हैं।
धीरे-धीरे इलैक्ट्रानिक मीडिया में प्रतियोगिता के बढ़ने से जनचेतना जागृत करने का स्थान जनता को भरमाने के तरीकों ने ले लिया है जिसकी वजह से जनता के वे मुद्दे गायब हो रहे हैं जिन्हें लोकतन्त्र और संविधान उन्हें देकर सक्षम और अधिकार संपन्न बनाता है। यह सब बाजार की शक्तियों के कारण ही हो रहा है। इसमें कोई दो राय इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि बाजार का धर्म केवल अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है।
जबकि लोकतन्त्र इस बात की ताईद करता है कि किसी नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा इस प्रकार होनी चाहिए कि भावनात्मक कथ्यों के स्थान पर केवल तथ्यपरक और वस्तुगत दृष्टिकोण ही प्रभावी रहे मगर क्या गजब का तमाशा हो रहा है कि सुशान्त सिंह राजपूत मृत्यु कांड को लेकर पूरे इलैक्ट्रानिक मीडिया ने ऐसा तूफान मचाया हुआ है जैसे भारत में इसके अलावा कोई दूसरी समस्या ही नहीं है और इस मामले के सुलझ जाने से देश की सभी समस्याएं सुलझ जाएंगी। जबकि हकीकत यह है कि भारत कोराेना संक्रमण के मामले में दुनिया का दूसरे नम्बर का देश बन चुका है।
लाॅकडाऊन और कोराेना के चलते 17 करोड़ लोग अपना रोजगार खो बैठे हैं और देश की अर्थ व्यवस्था बुरी तरह गिर चुकी है और 40 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे की ओर जा रहे हैं। मीडिया का धर्म देश की समस्याओं से दो-चार होना और उनका सकारात्मक हल सुझाना होता है।
सुशान्त सिंह राजपूत मामले में उसकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को लेकर जो सनसनी फैलाई जा रही है और पूरा मामला अदालत में जाने से पहले ही जिस तरह प्रचारित किया जा रहा है उससे मीडिया की भूमिका पर सन्देह उठना लाजिमी हो गया है क्योंकि किसी व्यक्तिगत हत्या या आत्महत्या के मामले को इस तरह प्रचारित करने के पीछे केवल मुनाफा कमाने का लक्ष्य हो सकता है।
समाज और देश को इससे कोई सरोकार नहीं है कि सुशान्त सिंह अपने व्यक्तिगत जीवन में किस प्रकार की जीवन शैली का अनुसरण करता था और उसकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती से उसके संबंधों का आधार क्या था। इसका मतलब सुशान्त सिंह के परिवार व रिया चक्रवर्ती के परिवार से है।
सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश देकर जब यह मामला सीबीआई को सौंप दिया है तो उसके बाद इसमें क्या बचता है? सीबीआई देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी है और वह सुशान्त मामले की जांच करके अपनी चार्जशीट न्यायालय में दायर करके दोषी को सजा दिलाने की कोशिश करेगी।
तब तक सुशान्त के परिवार वालों को इन्तजार ही करना पड़ेगा मगर क्या कयामत है कि मीडिया चैनलों से सब्र नहीं हो रहा है और वे अब एक के बाद एक सुशान्त कांड की परत दर परत खोल कर दर्शकों को जांच का ही आंखों देखा हाल बता रहे हैं, इस पूरे मामले में न तो रिया को न्याय दिलाने की मुहीम चलाने की जरूरत है और न ही सुशान्त को, जरूरत है तो पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच होने की। यह निष्पक्ष जांच तभी हो पायेगी जब जांच एजेंसियों पर भावनात्मक दबाव बनाने के कृत्य बन्द होंगे।
मीडिया को धर्म न्याय के पक्ष में खड़ा हाेना होता है और न्याय दिलाने के लिए लड़ना होता है। जब सुशान्त की मृत्यु को लेकर शक पैदा हो रहा था तभी तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सीबीआई को सौंपा। इससे आगे तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही ‘नजरबन्द’ होना है। अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों को अपना काम करने देना चाहिए और मीडिया को आम देशवासी की सुध लेनी चाहिए।
लोकतन्त्र में यही उसका धर्म है। और हकीकत यह है कि देश में दैनिक मजदूरी करके अपना पेट भरने वाले मजदूरों की आत्महत्याओं में पिछले वर्षों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। सवाल यह भी है कि अर्द्ध सैनिक बलों में तैनात सिपाही आत्महत्या क्यों करते हैं? ये सभी ऐसे सवाल हैं जिनका समाज से प्रत्यक्ष लेना-देना है और जो हमारी समूची व्यवस्था की दशा बताते हैं। इस दशा को सुधारना मीडिया का पहला कर्त्तव्य होता है।
लोकतन्त्र हमें यही तो सिखाता है कि सत्ता के शिखर से लेकर नीचे तक सार्वजनिक कार्य में जुटा प्रत्येक व्यक्ति इस देश की सम्पत्ति है। इसकी सुरक्षा करना मीडिया का ईमान होता है।
-आदित्य नारायण चोपड़ा