लोकसभा चुनाव 2024

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दागी जनप्रतिनिधि और संसद?

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चुने हुए जनप्रतिनिधियों अर्थात् विधायकों, सांसदों आदि पर आपराधिक मामलों के निपटारे के लिए पृथक अदालतें गठित करके जल्द से जल्द फैसले पर पहुंचने का विचार कानून की नजर में सभी को एक बराबर देखने के सिद्धान्त के पूरी तरह उलट इसलिए हैं क्यों​िक इसमें एक वर्ग के साथ भेदभाव किए जाने का भाव छुपा हुआ है। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति या वर्ग अथवा समुदाय के साथ भेदभाव की इजाजत नहीं देता है। अनुच्छेद 14 में गारंटी दी गई है कि भारत के सभी नागरिकों के साथ प्रशासन तन्त्र एक समान व्यवहार करेगा और इस मामले में उनकी जाति या धर्म अथवा क्षेत्र या धंधा आड़े नहीं आएगा। भारत का फौजदारी कानून किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करता है। इसके साथ ही आर्थिक अपराधों को रोकने के लिए जो कानून बने हैं वे भी सभी नागरिकों को एक नजर से देखते हैं।

आम जनता जिन लोगों को अपने एक वोट के अधिकार से चुनकर संसद या विधानसभा में भेजती है उनकी हैसियत भी इन सभी कानूनों की निगाह में अन्य साधारण नागरिकों के बराबर ही है। अपना कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें संसद या विधानसभा के भीतर जो विशेषाधिकार दिए गए हैं उनका देश की दंडात्मक या अन्य नागरिक कानून प्रणाली से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें विशेषाधिकार देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को लगातार मजबूत करने की गरज से इसलिए दिए गए हैं कि वे विधानसभा या संसद में अपनी बात बिना किसी डर या स्वार्थ के लालच में फंसे बिना निडर होकर कह सकें और सत्तारूढ़ सरकार या राजनीतिक दल के दबाव या रुआब में आए बिना आम जनता के हित के मुद्दों को उठा सकें मगर इसके बहाने आम जनता में यह भ्रम नहीं पैदा होना चा​िहए कि जनप्रतिनिधियों का कोई विशेष वर्ग हमारी व्यवस्था में है। यह बेवजह नहीं है कि चुने हुए सदनाें में अध्यक्ष होते हैं और विधानसभा या लोकसभा अथवा राज्यसभा में उनकी सत्ता सरकार के निरपेक्ष रहकर अपना काम करती है। वस्तुतः चुने हुए सदनों में सरकार की सत्ता नहीं बल्कि इनके अध्यक्षों की सत्ता काम करती है और वे संसदीय लोकतन्त्र की निष्पक्ष व स्वतन्त्र सत्ता को प्रतिष्ठापित करते हैं। इस स्वतन्त्र सत्ता में सरकार को निर्देश देना भी उनका पवित्र अधिकार होता है।

बेशक इस सत्ता के अधिकारों की एक नियमावली है जिसका अनुसरण अध्यक्ष अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके करते हैं मगर चुने हुए सदन सरकार और विपक्ष के सदस्यों से मिलकर ही बनते हैं। इन सदनों के भीतर पहुंचते ही सदस्यों पर सदन के नियम लागू हो जाते हैं जिनका सदन से बाहर किए गए उनके व्यवहार और आचरण पर सदन के नियमों का कोई प्रभाव या नियन्त्रण नहीं होता है। सदन के बाहर उन पर देश का सामान्य कानून ही लागू होता है। इन्हीं कानूनों से गुजरते हुए कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़कर सदन में पहुंचता है। जिन नियमों के तहत कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है उनकी रखवाली चुनाव आयोग करता है मगर विभिन्न अदालतों में मुकद्दमे चलने के बावजूद लोग सांसद या विधायक चुने जाते हैं। इनमें फौजदारी मुकद्दमे भी होते हैं मगर इसके साथ यह भी सत्य है कि चुने हुए सदन में पहुंच कर सभी विधायकों व सांसदों के अधिकार एक समान होते हैं। अध्यक्ष उनसे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकते मगर देश के कानून के सामने उनकी लगातार जवाब तलबी नियम-कायदे के अनुसार होती रहती है।

देश की न्यायिक व्यवस्था भी उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव इसलिए नहीं कर सकती कि वे सांसद या विधायक हैं मगर पिछले दो दशकों से संसद व विधानसभा में एेसे लोगों के पहुंचने की तादाद में इजाफा हुआ है जिन पर गंभीर आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं। इसे लेकर आम जनता के बीच जबर्दस्त भ्रम की स्थिति है, क्योंकि ये लोग ही विधानसभा या संसद के भीतर पहुंच कर कानून के रखवाले बन जाते हैं और संविधान तक में संशोधन करने का अधिकार इन्हें प्राप्त होता है मगर इसके साथ यह भी सच्चाई है कि इन्हें आम जनता का समर्थन मिला होता है जिसकी वजह से ये चुने जाते हैं। राजनीतिक शब्दावली में एेसे प्रतिनिधियों को ‘दागी’ कहा जाने लगा है और माना जाने लगा है कि इनकी वजह से चुने हुए सदनों की प्रतिष्ठा पर बट्टा लगता है। इसलिए यह विचार उभरा कि इन पर लगे हुए आरोपों की जांच कराने के लिए अलग से अदालतें बनाई जाएं जिन्हें ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ कहकर जल्दी से जल्दी से सुनवाई करके फैसले किए जाएं। इसमें संसद और सांसद की गरिमा को किसी जघन्य अपराध स्थल और अपराधी से तुलना करने की वह भावना निहित है जो लोकतन्त्र की व्यापक पारदर्शिता को नकारती है और न्यायिक प्रणाली को नाकारा मानती है। इससे आम जनता में संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में केवल विश्वास ही कम नहीं होता बल्कि समूची उस व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है जो एक वोट के अधिकार से सरकारों का गठन करती है।

दरअसल राजनीतिक दलों ने पिछले लगभग तीन दशकों से जिस प्रकार की ‘गैंगवार’ की राजनीति को चलाया है उसका खामियाजा न तो देश का लोकतन्त्र भुगत सकता है और न न्याय प्रणाली। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को राजनीति में लाने का श्रेय केवल राजनीतिक दलों को ही दिया जा सकता है। इन दलों में जब अपने घर के भीतर की सफाई करने की हिम्मत नहीं है तो ये किस प्रकार राजनीतिक सफाई करने का दम्भ भर सकते हैं। हालत तो यह है कि आपराधिक छवि का कोई सांसद या विधायक जब एक दल से दूसरे दल में चला जाता है तो उसे गंगाजल में नहाया पवित्र समझ कर बांस पर चढ़ा दिया जाता है और मन्त्री तक बना दिया जाता है! बिना शक अपराधी का कोई राजनीतिक दल नहीं हो सकता। अतः संसद या विधानसभा या इनके सदस्यों की गरिमा व प्रतिष्ठा को इस बहाने गिराने का खेल समाप्त होना चाहिए। यह भारत की संसद ही थी जिसने धन के बदले प्रश्न पूछने वाले 12 सांसदों को सदन की सदस्यता से निलम्बित कर दिया था। राज्यसभा में आज यह मामला कांग्रेस के उपनेता श्री आनंद शर्मा व समाजवादी पार्टी के श्री नरेश अग्रवाल ने उठाकर उस मूलभूत मुद्दे को केन्द्र में लाने का प्रयास किया जिसके साथ जनतन्त्र के ढांचागत सुधारों का विषय जुड़ा हुआ है, इनमें सबसे बड़ा पहलू यह है कि लोकतन्त्र की सुरक्षा के लिए राजनीतिक दलों को ही सबसे पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए और साफ–सुथरे प्रत्याशियों को ही चुनावी मैदान में उतारना चाहिए मगर ये तो चुनावी जीत के लिए इस तरह रंग बदलते हैं जैसे गिरगिट बदलता है। अतः बुराई की जड़ तो राजनीतिक दल ही हुए मगर इसके लिए सभी चुने हुए सदस्यों के प्रति क्यों अनास्था भाव आम जनता में पैदा किया जाए? संसद का सत्र चल रहा है कृपया सांसद इस पर गौर करें !

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